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मुअनजोदड़ो ही था जिसने भारत के इतिहास को पुरातत्व का वैज्ञानिक आधार दिया

मुअनजोदड़ो किताब में जिक्र है कि जब ओम थानवी वहां पहुंचे तो क्या पाया, इतिहास को ऐसे भी पढ़िए.

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Source- Wikipedia
'मोहनजो दारो' फिल्म का ट्रेलर कल देखा हमने. असल मुअनजोदड़ो तो कभी देख नहीं पाए, लेकिन ऋतिक रौशन को काल्पनिक 'मोहनजो दारो' में बिलकुल योद्धा जैसा देख कर हम सोचने लगे कि आखिर वो पुराना मुअनजोदड़ो दिखता कैसा होगा! वैसे इस मामले में हमारा दिमाग कोरा कागज़ नहीं है. बहुत सारी तस्वीरें हैं दिमाग में, जो हमें ओम थानवी की किताब पढ़ कर मिली थी. उन्होंने ये किताब इतने जीवंत तरीके से लिखी है कि मोहनजोदड़ो उनके लिखे शब्दों में ही हमारे दिमाग में घूमता रहता है.


वातावरण में सन्नाटा था. एक सधी हुई चुप्पी. मगर ठीक सामने, खिड़की के पार, मुअनजोदड़ो का अजायबघर दिखता था. उसकी नंगी ईंटों वाली दीवार पर दो सफ़ेद आकृतियां थीं. एक वृषभ, दूसरा हाथी. पहली ही नज़र में कोई पहचान सकता था कि ये मुअनजोदड़ो की खुदाई में निकली उन मुहरों के विराट रूपाकार हैं, जिन्होंने रातोंरात दुनिया के सामने भारत के इतिहास का ‘नक़्शा’ बदल दिया था. सौ साल पहले भारत का दुनिया में महज़ दावा था कि उसकी सभ्यता प्राचीन है. बीसवीं सदी की देहरी पर मुअनजोदड़ो की खुदाई ने पहले हड़प्पा-कालीबंगा में हो चुकी खुदाई को समान रोशनी में देखा. और अन्ततः उस खोज ने सिंधु घाटी को मिस्र और मेसोपोटामिया (इराक) की सुमेरी सभ्यता के समकक्ष ला खड़ा किया.
जाहिर है, वह मुअनजोदड़ो ही था जिसने सबसे पहले भारत के इतिहास को पुरातत्व का वैज्ञानिक आधार दिया. मुअनजोदड़ो रवाना होने से पहले कराची में मैंने जो पर्यटक गाइड ख़रीदी थी, उसमें दर्ज थाः ‘जब यूरोप के लोग जानवरों की खाल ओढ़ा करते थे और अमेरिका महज आदिम जातियों का इलाका था, यहां (सिंधु घाटी) के लोग धरती पर एक अत्यन्त परिष्कृत समाज का हिस्सा थे. और नगर निर्माण में सबसे आगे.’
मुअनजोदड़ो, ओम थानवी की लिखी पुस्तक है, वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई.
मुअनजोदड़ो, ओम थानवी की लिखी पुस्तक है, वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई.

पुरातत्व को प्राचीन इतिहास का रोशनदान कहा जाता है. यह रोशनी प्रामाणिक साक्ष्य पर आधारित होती है. दिलचस्प बात यह है कि वैदिक काल से बहुत पुरानी सिंधु घाटी या हड़प्पा सभ्यता की कई गुत्थियां आज भी उलझी हुई हैं. यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि इस सभ्यता के बाशिंदे कौन थे. वे कहां गए? उनकी लिपि दुनिया की चार प्राचीनतम लिपियों में एक है. उसे कोई आज तक भेद नहीं सका है. सात देशों के सौ से ज़्यादा विशेषज्ञों की मेहनत के बावजूद. इतना ही प्रकट है कि वह चित्र-लिपि थी, जिसके चार सौ चिन्ह ढूंढ़े जा चुके हैं. इसे लेकर भी विद्वानों में कम मतभेद नहीं हैं. मछली का चिन्ह तो सब मानते हैं. वरना एक अंडाकार चिन्ह को फिनलैंड के विशेषज्ञ आस्को पारपोला गाय का सिर मानते हैं, तो भारतीय विशेषज्ञ इरावतम महादेवन कोई शाही मर्तबान!
जो भी हो, सिंध के मुअनजोदड़ो, पाक-पंजाब के हड़प्पा, राजस्थान के कालीबंगा और गुजरात के लोथल व धौलावीरा आदि खुदाई में हासिल पुरावशेषों ने यह अच्छी तरह साबित कर दिया है कि सिंधु घाटी नगर संस्कृति थी. समृद्ध और व्यवस्थित. उन्नत खेती और दूर-दूर तक व्यवसाय करने वाले निवासी. उपकरणों का इस्तेमाल करने वाले और शुद्ध माप-तौल जानने वाले. उनका रहन-सहन और नगर नियोजन अनूठी प्रकृति का था.
इससे भी बड़ा उद्घाटन यह था कि वह साक्षर सभ्यता थी. एक सुरुचिसंपन्न संस्कृति. जाने कितनी बार चाक पर बने लाल मिट्टी के भांडों पर वे काली-भूरी रेखाओं वाले चित्र देखे मैंने हैं. वे असंख्य मुहरें, जिन पर बैल, हाथी, सांड़, गैंडा और चीता इतने सुडौल बने हैं कि रेखाओं और आकृतियों के शिक्षक आज, पांच हज़ार साल बाद, पलकें झपकाते हैं. यकीन न हो तो वह गले में लटकन वाला वृषभ देखिए जो अभी मेरे सामने, मुअनजोदड़ो के अजायबघर की दीवार पर, एक हज़ार गुना बड़े आकार में चमक रहा है. या बगै़र कूबड़ वाला वह रहस्यमय पौराणिक एक-शृंगी. या अजायबघर में संजोए चांदी के बर्तन, तांबे के गहने. हाथी दांत की कंघी, कांसे का आईना. चूने-पत्थर की मूर्तियों में स्त्रियों का केशविन्यास. पत्थर की मुहर पर सींग-मुकुट-धर ‘पशुपति’ वे चाहे किसी समुदाय के नाथ हों.
इस सबसे भी सौन्दर्य जिज्ञासा पूरी न हो तो मुअनजोदड़ो की दो जगतविख्यात कृतियां देखिएः गुलकारी के दुशाले में ‘याजक नरेश’ (प्रीस्ट किंग) और कांसे में ढली निर्वसन युवती, जिसे न जाने किस ख़याल से ‘नर्तकी’ (डांसिंग गर्ल) करार दिया गया है. गर्व से तना मस्तक, बंद आंखें, मोटे होंठ, कंधे पर झूल आई वेणी, गले में हार, एक हाथ कमर पर, दूसरे हाथ में कंधे तक कंगन और आगे को बढ़ा पांव! इन दोनों मूर्तियों को मैंने बार-बार देखा है. नरेश की तराशी हुई दाढ़ी, अधखुली आंखें, मोटे होंठ, ललाट व बांह पर आभूषण और दुशाले के फूल. यह मूर्ति कराची में पिछली यात्रा में देखी थी. युवती की मूर्ति दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में है. कुल जमा छह अंगुल का आकार, यानी एक पेंसिल से भी आधा. लेकिन अपनी आभा में मानो पूरे संग्रहालय पर भारी. ‘नर्तकी’ की मूरत के बारे में पुरातत्वज्ञ माखटमर वीलर ने कहा था, ”मुझे नहीं लगता कि संसार में इसके जोड़ की कोई दूसरी चीज़ होगी.“
तय किया कि जितना जल्द हो, तैयार होकर हम मुअनजोदड़ो के असल खंडहरों के बीच होंगे. थकान है, पर अब नींद कहां आएगी. कल शोर ने नहीं सोने दिया. आज अतीत के सन्नाटे ने जगा दिया. सन्नाटे की गूंज शोर पर बहुत भारी जान पड़ती है.
तुरत-फुरत तैयार होकर हम सीधे नाश्ते की मेज़ पर पहुंचे. गपशप में कुछ जगहों के नाम की चर्चा चल पड़ी. मोहनजोदाड़ो है कि मोएनजोदड़ो? या मुअनजोदड़ो! हमारे मेज़बान गुलाब पीरज़ादा का कहना था कि हम लोग मुअनजोदड़ो बोलते हैं. फिर शायद हमारी उपस्थिति का ख़याल कर कहा, पर मोहन बोलने से भी क्या फर्क पड़ता है. कहते हैं, मोहन नाम का कोई राजा रहा हो शायद यहां. पर मुझे यह निरी अटकल लगी. मुअन का कोई अर्थ है. हालांकि यह बात भी अपनी जगह है कि नाम में क्या रखा है. यह भी कि चलन की अहमियत ज़्यादा होती है. लेकिन संभव हो तो करीब के नामों को (वे लोगों के हों, या जगहों के) सही समझने की कोशिश ज़रूर होनी चाहिए! ख़ासकर तब जब वे अर्थ का अनर्थ करते हों.
कोई नहीं जानता कि सिंधु घाटी सभ्यता में शहरों के नाम वास्तव में क्या रहे होंगे. मुअनजोदड़ो बाद का नाम है. शायद किसी सम्भावित हादसे से जोड़कर रखा गया नाम. मुआ यानी मृत; जैसे कि कोसते हुए हिन्दी में कहा जाता है, मुए ने जीना मुहाल कर दिया. बहुवचन में मुअन, मुआ का सिंधी प्रयोग है. दड़ा माने टीला. मुअन-जो-दड़ो: मुर्दों का टीला. रांगेय राघव का इस नाम से हिन्दी में उपन्यास है. मुख-सुख परम्परा में य-ज या स-ह की तरह उ-ओ में भी उच्चारण-भेद आम है. मसलन मुहर और मोहर. कौन जाने मुअन से मोअन होते हुए कब मोहन हो गया हो! वैसे, अंगरेजी में ‘मोअन’ ही लिखा जाता है. जैसे ‘उमर’ को वे ‘ओमर’ लिखते हैं, ‘उसामा’ को ‘ओसामा’.
पीरज़ादा ने पूछा कि पहले अजायबघर देखना पसंद करेंगे या खंडहर. मैंने कहा, पहले असल मुअनजोदड़ो चलें. कितना दूर होगा? बोले, अजायबघर तो सामने है. मुअनजोदड़ो पांच मिनट के रास्ते पर.
मुअनजोदड़ो के खंडहर 1924 में दुनिया के सामने आए. इनकी खुदाई का श्रेय जॉन मार्शल को दिया जाता है. वे पूरे बत्तीस बरस भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे. उन्होंने अपने सहयोगियों का हौसला बढ़ाया, उन्हें दिशा दी. खोज की व्याख्या की, कुछ उलझे सूत्रों को जोड़ा. उन्होंने स्थापित किया कि सिंधु घाटी पूरी तरह भारत में पनपी और पली-पुसी संस्कृति थी.
लेकिन हकीकत यह है कि हड़प्पा और मुअनजोदड़ो की बीसवीं सदी की समूची आरंभिक खुदाई भारतीय पुरातत्ववेत्ताओं का काम था. इस सिलसिले में सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि सिंधु घाटी के खुदाई अभियान के दौरान ही नहीं, इस खोज की घोषणा से पहले जॉन मार्शल ने खुद हड़प्पा या मुअनजोदड़ो जाना कभी ज़रूरी नहीं समझा! वे 1925 में मुअनजोदड़ो पहुंचे, तब जब लंदन में विशेषज्ञों ने उनकी ‘खोज’ को सुमेरी संस्कृति के बरक्स रख कर देखा. मार्शल या उनके सहयोगियों ने ख़ुद इसे उतना पुराना नहीं समझा था.
भारतीय पुरातत्ववेत्ताओं में सिंधु घाटी में पहले पहुंचे हीरानंद शास्त्री. उन्होंने 1909 में हड़प्पा (पंजाब) में खुदाई करवाई. हड़प्पा अब पाक पंजाब के साहिवाल जिले में है. हीरानंद भाषाशास्त्री थे और प्रसिद्ध साहित्यकार ‘अज्ञेय’ के पिता.  डॉ. नयनजोत लाहिड़ी, जिन्होंने सिंधु घाटी की खुदाई के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण काम किया है, का मानना है शास्त्री की खोज ने इस स्थापना में बुनियाद का काम किया कि सिंधु घाटी में बड़े आकार की ईंटों का प्रयोग हुआ था. डॉ. लाहिड़ी की सनसनीख़ेज जानकारी है कि हड़प्पा पर शास्त्री की मूल रिपोर्ट पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अभिलेखों में उपलब्ध ही नहीं है. शायद खो गई हो.
शास्त्री के बाद 1911 में मुअनजोदड़ो क्षेत्रा में डीआर भंडारकार ने सर्वे किया. हड़प्पा में 1917 में दयाराम साहनी ने सघन खुदाई करवाई. उनका काम बड़ा था. उन्हें पत्थर की मुहरें मिल गईं. पर यह उपलब्धि भी घाटी की सभ्यता को चिद्दित नहीं कर सकी. मुअनजोदड़ो में खुदाई का काम दो साल बाद हाथ में लिया गया. 1922-23 में राखालदास बंद्योपाध्याय ने खुदाई में वहां ऐसी मुहरें पाईं जो हड़प्पा से मेल खाती थीं. ध्यान देने की बात है कि तब तक मुअनजोदड़ो मुंबई प्रेसीडेंसी (सिंधु जिसके तहत था) की प्राचीन जगहों वाली सूची तक में शामिल नहीं था. बंद्योपाध्याय की खोज के बाद यह पुरातत्व का सबसे अहम ठिकाना बन गया. बंद्योपाध्याय के बाद माधोस्वरूप वत्स ने मुअनजोदड़ो की खुदाई की कमान संभाली. उनके बाद काशीनाथ दीक्षित ने.
वत्स ने रेखांकित किया कि मुअनजोदड़ो और हड़प्पा में मुहरों के अलावा भी बहुत समानताएं हैं. उनके इस इसरार ने मार्शल के कान खड़े कर दिए कि यह सामान्य जगह नहीं है, यहां मौर्य काल से भी पुरानी दास्तान निकलनी चाहिए. हालांकि इससे ज़्यादा वत्स भी नहीं सोच सके. हड़प्पा और मुअनजोदड़ो में सैकड़ों मील की दूरी है. पर इस खोज में दोनों की संस्कृति का बहुत निकट का राब्ता निकल आया था. बाद में शिमला में मार्शल ने पुरातत्व के इन सभी विद्वानों की बैठक की. खुदाई में निकला सामान परखा. और 20 सितंबर, 1924 को इलस्टेटेड लंदन न्यूज में सिंधु घाटी सभ्यता की अवधारणा और खोज पर अपना लम्बा लेख छपवाकर भारत को मानो दुनिया की छत पर ला खड़ा किया. आज सिंधु घाटी की धारा सिंध, पंजाब, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा आदि को पीछे छोड़कर बलूचिस्तान के मैदान यानी मेहरगढ़ तक पहुंच गई है. वहां की खुदाई ने इस सभ्यता के सात हज़ार साल ईसा पूर्व के प्रमाण मुहैया कराए हैं. जानकार कहते हैं कि आबोहवा रूठने की वजह से वहां से लोग सिंधु घाटी की तरफ उतर आए. यहां उन्होंने बहुत तरक़्की की, खुशहाल हुए. फैलते हुए यह सभ्यता शिवालिक की तलहटी (आज के चण्डीगढ़) तक पहुंच गई. छह सौ साल की अपूर्व समृद्धि के बाद एक रोज़ वह हमेशा के लिए सिमट गई. कैसे? इस पर रहस्य की बहुत-सी परतें हैं.
बहरहाल, अभी भी मुअनजोदड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं. ये सिंधु घाटी सभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं. खुदाई में और शहर भी मिले हैं. लेकिन मुअनजोदड़ो ताम्र काल के शहरों में सबसे बड़ा है. वह सबसे उत्कृष्ट भी है. व्यापक खुदाई यहीं पर सम्भव हुई. बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तिययां, चाक पर बने चित्रित भांडे, मुहरें, साज़ो-सामान और खिलौने आदि मिले. सभ्यता का अध्ययन सम्भव हुआ. उधर हड़प्पा के ज़्यादातर साक्ष्य रेल लाइन बिछने के दौरान ‘विकास’ की भेंट चढ़ गए. खुदाई से पहले हड़प्पा को ठेकेदारों और ईंट-चोरों ने खोद डाला था.
मुअनजोदड़ो के बारे में धारणा है कि अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केंद्र रहा होगा. यानी एक तरह की राजधानी. माना जाता है यह शहर दो सौ हैक्टर क्षेत्र में फैला था. आबादी कोई पचासी हज़ार थी. ज़ाहिर है, पांच हज़ार साल पहले यह आज के ‘महानगर’ की परिभाषा को भी लांघता होगा.
दिलचस्प बात यह है कि सिंधु घाटी मैदान की संस्कृति थी, पर पूरा मुअनजोदड़ो छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था. ये टीले प्राकृतिक नहीं थे. कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की सतह को ऊंचा उठाया गया था, ताकि सिंधु का पानी बाहर पसर आए तो उससे बचा जा सके.
ऐसे ट्रक आज भी वहां चलते हैं, ये चित्र धर्मेन्द्र पारे जी का बनाया हुआ है.
ऐसे ट्रक आज भी वहां चलते हैं, ये चित्र धर्मेन्द्र पारे जी का बनाया हुआ है.

मुअनजोदड़ो की ख़ूबी यह है कि इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में आप आज भी घूम-फिर सकते हैं. यहां की सभ्यता और संस्कृति का सामान चाहे अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहां था अब भी वहीं है. आप इसकी किसी भी दीवार पर पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैं. वह कोई खंडहर क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पांव रख कर सहसा सहम जा सकते हैं, जैसे भीतर कोई अब भी रहता हो. रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गन्ध महसूस कर सकते हैं. शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस बैलगाड़ी की रुन-झुन भी सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्व की तस्वीरों में मिट्टी के रंग में देखा है. यह सच है कि किसी आंगन की टूटी-फूटी सीढ़ियां अब आपको कहीं ले नहीं जातीं; वे आकाश की तरफ जाकर अधूरी ही रह जाती हैं. लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर खड़े हैं; वहां से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झांक रहे हैं.
सबसे ऊंचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है. मगर यह मुअनजोदड़ो की सभ्यता के बिखरने के बाद एक जीर्ण-शीर्ण टीले पर बना था. कोई पच्चीस फुट ऊंचे चबूतरे पर छब्बीस सदी पहले बनी ईंटों से स्तूप को आकार दिया गया. चबूतरे पर भिक्षुओं के कमरे भी हैं. 1922 में जब रखालदास बंद्योपाध्याय यहां आए, तब वे इसी स्तूप की खोजबीन करना चाहते थे. इसके इर्द-गिर्द खुदाई शुरू करने के बाद उन्हें भान हुआ कि यहां ईसा पूर्व के निशान हैं. धीमे-धीमे यह खोज विशेषज्ञों को सिंधु घाटी सभ्यता की देहरी पर ले आई.
एक संकरी पगडंडी पार कर हम सबसे पहले इसी स्तूप पर पहुंचे. पहली ही झलक ने हमें अपलक कर दिया. इसे नगर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप कहा गया है. शायद सबसे रोमांचक भी होगा. न आकाश बदला है, न धरती. पर कितनी सभ्यताएं, इतिहास और कहानियां बदल गईं. ठहरे हुए लैंडस्केप में हज़ारों साल से लेकर पल भर पहले तक की धड़कन बसी हुई है. इसे देखकर सुना जा सकता है. भले ही किसी जगह के बारे में हमने कितना पढ़-सुन रखा हो, तस्वीरें या वृत्तचित्र देखे हों, देखना अपनी आंख से देखना है. बाकी सब आंख का झपकना है. जैसे यात्रा अपने पांव चलना है. बाकी सब कदम-ताल है.
मौसम जाड़े का था, पर दुपहर की धूप बहुत कड़ी थी. सारे आलम को जैसे एक फीके रंग में रंगने की कोशिश करती हुई. यह इलाका राजस्थान से बहुत मिलता-जुलता है. रेत के टीले नहीं हैं. पर खेत हरे हैं. बाकी वही खुला आकाश और सूना परिवेश. धूल, बबूल. ज़्यादा ठंड, ज़्यादा गरमी. मगर यहां की धूप का मिज़ाज जुदा है. राजस्थान की धूप पारदर्शी है. सिंधु की धूप चौंधियाती है. तस्वीर उतारते वक़्त आप कैमरे में ज़रूरी पुर्जे न घुमाएं तो ऐसा जान पड़ेगा, जैसे दृश्यों के रंग उड़े हुए हों.
पर इससे एक फायदा हुआ. हमें हर दृश्य पर नज़रें दुबारा फिरानी पड़तीं. इस तरह बार-बार निहारें तो दृश्य ज़ेहन में ठहर जाते हैं. जैसे तस्वीर देखकर उनकी याद ताज़ा करने की ज़रूरत शायद कभी न पड़े.
स्तूप वाला चबूतरा मुअनजोदड़ो के सबसे ख़ास हिस्से के एक सिरे पर स्थित है. इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं. चारदीवारी के भीतर ऐतिहासिक शहरों के सत्ता-केन्द्र अवस्थित होते थे, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता. बाकी शहर गढ़ से कुछ दूर बसे थे. क्या यह रास्ता भी दुनिया को मुअनजोदड़ो ने दिखाया?
मुअनजोदड़ो की सभी अहम (और अब दुनिया भर में प्रसिद्ध) इमारतों के खंडहर चबूतरे के पीछे यानी पश्चिम में हैं. इनमें ‘प्रशासनिक’ इमारतें, सभाभवन, ज्ञानशाला और कोठर हैं. वह आनुष्ठानिक कुंड या स्नानागार भी जो सिंधु घाटी सभ्यता के अद्वितीय वास्तुकौशल को स्थापित करने के लिए अकेला ही काफी माना जाता है. असल में यहां यही एक निर्माण है जो अपने मूल स्वरूप के बहुत नज़दीक बचा रह सका है. बाकी इमारतें इतनी उजड़ी हुई हैं कि कल्पना और बरामद चीज़ों के जोड़ से उनके उपयोग का अन्दाज़ा भर लगाया जा सकता है.
मुअनजोदड़ो नगर नियोजन की अनूठी मिसाल हैः इस जुमले का मतलब आप बड़े चबूतरे से नीचे की तरफ देखते हुए सहज ही भांप सकते हैं. इमारतें भले खंडहरों में तब्दील हो चुकी हों, मगर ‘शहर’की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफी हैं. यहां की कमोबेश सारी सड़कें सीधी हैं. या फिर आड़ी. वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं. आज की सेक्टर-मार्का कॉलोनियों में हमें आड़ा-सीधा ‘नियोजन’बहुत मिलता है. लेकिन वह रहन-सहन को नीरस ही बनाता है. शहरों में नियोजन के नाम पर भी हमें अराजकता ज़्यादा हाथ लगती है. ब्रासीलिया या चण्डीगढ़ और इस्लामाबाद ‘ग्रिड’शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं. लेकिन उनकी बसावट शहर के ख़ुद विकसने का कितना अवकाश छोड़ती है, इस पर बड़ी शंका पैदा होती है.

मुअनजोदड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी, लेकिन उसमें नगर नियोजन और वास्तुकला की आख़िर कितनी भूमिका थी?

स्तूप वाले चबूतरे के पीछे ‘गढ़’ है और ठीक सामने ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती. उसके पीछे पांच किलोमीटर दूर सिंधु नदी बहती है. पूरब की इस बस्ती से दक्षिण की तरफ नज़र दौड़ाते हुए पूरा पीछे घूम जाएं तो आपको मुअनजोदड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देंगे. दक्षिण में जो टूटे-फूटे घरों का जमघट है, वह कामगारों की बस्ती है. कहा जा सकता है, इतर वर्ग की. सम्पन्न समाज में वर्ग भी होंगे. लेकिन क्या निम्न वर्ग वहां नहीं था? कयास लगाया गया है कि निम्न वर्ग के घर इतनी मज़बूत सामग्री के नहीं रहे होंगे कि पांच हज़ार साल तक टिक सकें. होंगे तो उनकी बस्तियां और दूर रही होंगी. यह भी है कि सौ साल में इस इलाके के एक-तिहाई हिस्से की खुदाई ही हो पाई है. अब वह भी बन्द है.
हम पहले स्तूप के टीले से कुंड के विहार की दिशा में उतरे. दाईं तरफ एक लम्बी गली दीखती है. इसके आगे कुंड है. पता नहीं सायास है या संयोग कि धरोहर के प्रबन्धकों ने उस गली का नाम दैव मार्ग (डिविनिटि स्ट्रीट) रखा है. माना जाता है कि उस सभ्यता में सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग था. किसी छोटे स्विमिंग-पूल की सी शक्ल वाला कुंद करीब चालीस फुट लम्बा और पच्चीस फुट चौड़ा है. गहराई सात फुट. कुंड में उत्तर और दक्षिण से सीढ़ियां उतरती हैं. इसके तीन तरफ कक्ष बने हुए हैं. उत्तर में दो पंक्ति में आठ स्नानघर हैं. इनमें किसी का द्वार दूसरे के सामने नहीं खुलता.
पक्की और आकार में समरूप धूसर ईंटें सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान मानी ही गई हैं, ढंकी हुई नालियों का उल्लेख भी पुरातात्त्विक विद्वान और इतिहासकार ज़ोर देकर करते हैं. पानी-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बन्दोबस्त इससे पहले के आदि-इतिहास में नहीं मिलता.
कुंड के बाद हमने ‘गढ़’ का फेरा लगाया. कुंड के दूसरी तरफ विशाल कोठर है. कर के रूप में हासिल अनाज शायद यहां जमा किया जाता था. इसके निर्माण रूप (ख़ासकर चौकियों और हवादारी) को देखकर ऐसा कयास लगाया गया है. यहां नौ-नौ चौकियों की तीन कतारें हैं. उत्तर में एक गली है जहां बैलगाड़ियों का (जिनके प्रयोग के साक्ष्य मिले हैं) ढुलाई के लिए आवागमन होता होगा. ठीक इसी तरह का कोठर हड़प्पा में भी पाया गया है. यह जगजाहिर है कि सिंधु घाटी के दौर में व्यापार ही नहीं, उन्नत खेती भी होती थी. बरसों यह माना जाता रहा कि सिंधु घाटी के लोग अन्न उपजाते नहीं थे, उसका आयात करते थे. नई खोज ने इस ख़याल को निर्मूल साबित किया है. बल्कि अब कुछ विद्वान मानते हैं कि यह मूलतः खेतिहर और पशुपालक सभ्यता थी. लोहा तब नहीं था. पर पत्थर और तांबे की बहुतायत थी. पत्थर सिंध में था. तांबे की खानें राजस्थान की तरफ थीं. इनके उपकरण खेती-बाड़ी में प्रयोग किए जाते थे. जबकि मिस्र और सुमेर में चकमक और लकड़ी के उपकरण इस्तेमाल होते.


ऋतिक स्टारर मुअनजो दड़ो का ट्रेलर आ गया है और चिंतित होने की बात है

हड़प्पा-मोहनजोदड़ो को किसने बर्बाद किया? आर्यों ने या अापदाओं ने?

मोहनजोदड़ो में बड़का बाथटब ही नहीं, और भी गजब की चीजें मिली थीं

हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की लिपि हमें छका क्यों रही है?

कौनसे मोहनजोदड़ो शहर लेकर जा रहे हैं ऋतिक अौर गोवारिकर, जान लो

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