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एक घूंट भरा हो जैसे मैंने खून का

आज पढ़िए प्रियंवद की ये कहानी.

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सीनियर कथाकार प्रियंवद कानपुर में ही पैदा हुए. कानपुर में ही हैं और हमेशा कानपुर में ही रहेंगे. यह उनका ही बयान है और अपनी बसावट के प्रति उनकी मोहब्बत का इजहार भी. यह शहर बगैर अपने नामोल्लेख के भी उनकी कहानियों, उपन्यासों और लेखों में जाहिर होता रहता है. एक कहानी रोज़ में हिंदी को कई यादगार कहानियां देने वाले प्रियंवद की एक कहानी...
बूबा के होंठ बिल्कुल लाल थे और बूबा को मौत बहुत अच्छी लगती थी. बूबा हमेशा बहुत धीरे-धीरे मरना चाहती थी. जाडे की कुनमुनी धूप जैसे पूरे बदन पर रेंगती है, बिल्कुल उसी तरह बूबा मौत को छूना चाहती थी. ‘तुम मेरा गला दबा सकते हो?’ बूबा मुस्कराकर पूछती. ‘दबा सकता हूं.’ मैं अपनी हथेली में बूबा की सफेद नर्म गर्दन दबा लेता. बूबा चुपचाप दीवार से सिर टेके आंखें बंद किए बैठी रहती. मेरी उंगलियों का कसाव बढ़ता जाता, लेकिन बूबा के चेहरे पर कोई सिकुड़न नहीं आती. बूबा के गले की नसें उभरने लगतीं और बूबा के गले का वह हिस्सा नीला पड ज़ाता. मैं अपना हाथ हटा लेता और बूबा के गले का वह नीला हिस्सा चूम लेता. ‘तुम मेरी मां हो बूबा.’ मैं फुसफुसाया. और फिर बूबा मेरा सिर अपने सीने में दुबका लेती.’ डरपोक, ‘बूबा हंस देती और मेरी गर्दन पर उसके दांत धंस जाते. बहुत पहले एक तपती दोपहर में एक पतंग के पीछे भागता हुआ मैं बूबा के घर में घुस आया और बूबा ने मुझे रोक लिया. मेरे हाथों में चप्पल, धूल से सना चेहरा, पसीने और मिट्टी में डूबा पूरा बदन. ‘कौन हो तुम?’ बूबा ने मेरा हाथ पकड़ लिया था. ‘वो पतंग’ मैं बिल्कुल सन्न रह गया था तब बूबा को देख कर. कहानी किस्सों के पन्नों से फड़फड़ाती राजकुमारी निकल आई है. गोरा मुंह, लाल होंठ और लंबे बाल. हंसती तो फूल झरते हैं. रोती है तो मोती. आंखें उदासी से कढ़ी हुईं. ‘इतने गंदे-संदे घूमते हो, मां नहीं डांटती?’ ‘ मां नहीं है.’ ‘इतने छोटे हो और मां नहीं है!’ बूबा की आवाज भीग गई थी और बूबा ने मुझे अपने बिल्कुल पास खींच लिया था. ‘तुम रोज आओगे मेरे पास?’ ‘क्यों?’ ‘क्योंकि तुम्हारी आंखें बहुत अच्छी हैं, बिल्कुल सैटेनिक ब्राऊन.’ ‘तुम बिल्कुल राजकुमारी लगती हो.’ मेरा डर खत्म हो गया था. ‘ओ बाबा’ बूबा खिलखिला कर हंस पड़ी थी. ‘तुम क्या किसी का खून पीती हो?’ ‘ओ मां’ बूबा हंसते-हंसते गिर पड़ी थी. ‘मेरा नौकर कहता है, जो किसी का खून पीता है उसके होंठ बिल्कुल लाल हो जाते हैं, तुम्हारी तरह. बूबा फिर मेरा हाथ पकड़ कर खींचती हुई अंदर गई थी. मेरे हाथ-पैर धोकर उसने मुझे न जाने क्या-क्या खिलाया. सीने से लगाए न जाने कितनी देर दुलराती रही और मैं उस तपती दोपहर में अपने अकेले बचपन को हथेली में बंद किए धीरे-धीरे पिघल कर बूबा के अंदर  सिमट गया था. उसके बाद मैं रोज आता रहा. शाम होती और मैं भागता हुआ बूबा के घर पहुंच जाता. बूबा तभी नौकरी से वापस आती हांफती हुई. बाबा की दवा के पैसे बचाने के लिए एक-दो मील पैदल चल कर आती वह. बूबा अपना काम करती रहती और मैं कमरे की दहलीज पर चुपचाप बैठा बूबा को देखा करता. बूबा खाना बनाती, कपड़े धोती, बिस्तर लगाती, बाबा को खिलाती, दवा देती और फिर सुलाती भी. न जाने कितनी देर हो जाती. कभी-कभी मैं ऊंघने लगता. चौंकता तब जब बूबा हिलाती. ‘सो गया क्या?’ बूबा वहीं बैठ जाती. ‘मैं जाग जाता.’ इतनी देर कर देती हो, कल से नहीं आऊंगा.’ नहीं बाबा.बूबा मेरा चेहरा अपने हाथों में भरकर अपने लाल होंठ मेरे माथे पर रख देती, कल से देर नहीं करूंगी बस.और फिर मेरा सिर खींचकर अपनी गोद में रख लेती. थोडी देर में बूबा की उंगलियां मेरे बालों में, गले में, सीने पर एक बेचैनी के साथ घूमने लगतीं. साथ ही साथ बूबा हमेशा, चुपचाप कोई किताब भी पढ़ती रहती. अक्सर खलील जिब्रान की कविता - 'दि ब्यूटी ऑफ डेथ.' मेरे गाल पर जब कोई बूंद गिरती तब मैं चौंकता. ‘तुम रो रही हो बूबा?’ मैं उठ बैठता. बूबा अपने आंसू पोंछ लेती. ‘ऐसा क्यों होता है. सुख आदमी को छूता हुआ क्यों निकल जाता है. उसे अपने में समेट कर जम क्यों नहीं जाता, बर्फ की सिल्ली की तरह.’ मैं कुछ नहीं समझ पाता. बूबा को टुकुर-टुकुर देखा करता. बूबा फिर मुझे अपने सीने में दुबकाकर बड़बड़ाते हुए वहशियों की तरह चूमने लगती, ‘सुख केवल कोई क्षण होता है रे. मेरा वह क्षण तू है?’ मेरा दम घुटने लगता और मैं फिर उसी तरह पूरे का पूरा पिघलने लग जाता. ‘तुम मेरी मां हो बूबा.’ ‘हां मैं तेरी मां हूं!’ बूबा फफक कर रो पड़ती. मैं वैसे ही बूबा के सीने पर सिर रखे लेटा रहता और मेरा चेहरा बूबा के आंसुओं से भीगता रहता. और तब मैं सोचा करता अपने नौकर की बात. वह राजकुमारी जितना रोती थी उतने ही उसके बाल लंबे होते जाते थे. बूबा के बाल इसलिए लंबे हैं, क्योंकि बूबा हमेशा रोती है. जमीन का वह टुकड़ा बिल्कुल लाल हो जाता था. गुलमोहर सारी रात बरसते और उसकी पंखुरी-पंखुरी से जैसे वह टुकड़ा खून से भीग जाता, बिल्कुल बूबा के होंठों की तरह. जमीन के उसी सुर्ख टुकड़े के ऊपर हम बड़े होते रहे थे. मैं, बूबा, मेरे अंदर का आदमी और बूबा के अंदर की औरत. ‘जानते हो, मुझे और तुमको किस चीज ने जोड़ा है?’ बूबा पूछती. ‘नहीं.’ ‘अपने होने के बेमानीपन ने. अपने अस्तित्व की निरर्थकता ने.’ न जाने तब कितनी रात बीत चुकी होती. बूबा हमेशा तब ऐसी ही बातें करती. ‘हम दोनों एक दूसरे के कंधों पर सिर रखकर रोते हैं रे. एक दूसरे के अकेलेपन को चुपचाप कुतरते हुए. यही वह जमीन है, जिस पर हम दोनों मिलते हैं.’ मैं बूबा का हाथ अपने हाथों में ले लेता. बिल्कुल सूखी झुर्रियों वाला हाथ. बूबा के पूरे बदन से उसका हाथ बिल्कुल अलग था. जैसे किसी बूढ़ी औरत की हथेली काटकर बूबा के हाथों में जोड़ दी गई है. ‘तुम्हारा हाथ ऐसा क्यों है?’ मैं बूबा के हाथ की उभरी नीली नसों पर उंगली फेरता रहता. ‘हाथ हमेशा दिल की तरह होता है.’ बूबा हंस पडती, ‘तूने कभी ऋग्वेद का गीत सुना है?’ बूबा मुझे अपने पास खींच लेती. ‘कौन सा?’ ‘यम और यमी का गीत?’ ‘नहीं!’ जानता है तू यम और यमी भाई-बहन थे. एक दिन यमी ने यम से पूछा, 'तू मेरा कौन है? भाई यम बोला. तेरा धर्म क्या है? यमी ने पूछा. 'तुझे सुख देना.' यम बोला. मुझे रति-सुख दे यमी ने याचना की. ‘बूबा.’ मेरा हाथ कांप गया. ‘डरपोक!’ खिलखिला कर हंस पड़ी बूबा, ‘देहातीत होकर सोच एक बार यमी की इस बात को. फिर जीवन-दर्शन बना ले - अपने जीवन के सारे मूल्यों का आधार.’ ‘बूबा.’ ‘हां रे, यमी की इस बात से अचानक उसका जीवन कितना बड़ा हो गया है. कितना उन्मुक्त, व्यापक और स्पष्ट! ऐसा नहीं है क्या? यह वर्णन  तो स्वयं में एक दर्शन है. यमी की दृष्टि कितनी निर्भीक और विस्तृत है. जीवन के छोटे-छोटे टुकड़ों में उत्तीर्ण. तुझको इसलिए बता रही हूं कि केवल तुझसे ही तो बोल पाती हूं. फिर तुझे तो अभी बहुत बड़ा होना है. सत्य का अन्वेषी, तटस्थ दृष्टि अभी से सीख ले.’ ‘लेकिन पाप!’ ‘धत्. अगर पाप और पुण्य सत्य हैं तो सुख कुछ भी नहीं होता रे! और अगर सुख सत्य है तो पाप-पुण्य का कोई अस्तित्व नहीं है. सुख की नित्यता तो हम निश्चित ही जानते हैं, इसलिये पाप-पुण्य कुछ नहीं है.’ ‘तो यमी की स्थिति.’ ‘हां, यमी की स्थिति मान्य है. यमी के जीवन की स्पष्टता मेरा आदर्श है.’ ‘और रिश्तों का धर्म?’ रिश्तों के नाम जीवन को बहुत छोटे-छोटे घेरों में बांध देते हैं. आंखों में कपड़ा बांधे बैल की तरह आदमी उन्हीं घेरों में घूमता रहता है. यह गलत है. एक बार में आदमी क्या सब रिश्ते नहीं भोग सकता? क्या मेरे और तेरे रिश्ते का कोई नाम है? क्या मैं तेरी सब कुछ नहीं हूं? मां, दोस्त, बहन बोल?’ ‘हां, बूबा.’ मैं बूबा की हथेली की नीली नसें चूम लेता.’ तुम मेरी इकलौती आस्था हो, मेरी रक्षिता हो, मेरी कल्याणी.’ मेरी आवाज कांपने लगती. बूबा मेरी निगाहों में तब न जाने कितनी ऊपर उठ जाती. ज्ञानी, गंभीर, ममत्वमयी बूबा. ‘आ चलें.’ बूबा उठ जाती. गुलमोहर की सुर्ख पंखुरियां बूबा के बालो में उलझी होतीं. ‘एक बात पूछूं बूबा?’ मैं ठहर जाता.’ फिर यम ने क्या किया?’ ‘उसका कोई महत्व नहीं है रे. देह का अस्तित्व तो कुछ क्षणों का होता है बस.’ ‘अच्छा बूबा, तुम जो कुछ कहती हो, क्या सचमुच उतना उनमुक्त होकर कर सकती हो?’ ‘शायद,’ बूबा हंस देती, ‘अपनी बूबा को समझा नहीं क्या?’ ‘समझा तो बिलकल नहीं. रोज नई बूबा को देखता हूं न!’ बूबा खिलखिला पडती, ‘यू सेटेनिक ब्राउन?’ और फिर मेरी गर्दन में बूबा के दांत धंस जाते. कभी-कभी मैं सोचता कि बूबा इतनी चुप क्यों रहती है, क्यों ऐसी बातें करती है, तो मुझे समझ में नहीं आता. एक दिन बूबा ने मुझे बताया था, ‘मेरी पूरी देह मुर्दा ख्वाबों से गुंथी है रे, और जब कभी उन ख्वाबों में से कोई ख्वाब करवट लेता है तो मैं बिल्कुल चुप हो जाती हूं. कहीं वह ख्वाब जाग न जाए.’ बूबा रो पड़ी थी फिर, और तब मुझे बूबा के पूरे बदन पर मरे हुए सपने फैले दिखाई पड़े थे. मुझे लगा था कि बूबा की देह का कोना-कोना हर वक्त कोई न कोई लड़ाई लड़ता रहता है और उन्हीं मरे हुए सपनों के बीच, कोने-कोने की लड़ाई के बीच मेरी बूबा बड़ी होती रही है. उसके बाद मैंने कभी कुछ नहीं पूछा. मैं जानता था. बूबा किसी जमीन का कोई ऐसा टुकड़ा चाहती है, जिस पर बूबा अपने पांव रख सके. थकी हुई हांफती बूबा अब और नहीं लड़ना चाहती और इसलिए जमीन वह टुकड़ा कभी यमी की स्थिति होती, कभी खलील जिब्रान की 'दि ब्यूटी ऑफ डेथ' और कभी मैं. बूबा उस रात सर्दी से कांप रही थी. ‘अंदर चलें?’ मैंने कहा. ‘नहीं.’ बूबा ने अपना शॉल और कसकर लपेट लिया. बेहद थकी लग रही थी बूबा. न जाने उंगली से क्या-क्या खींचती रही फर्श पर. मैं चुपचाप बैठा देख रहा था. मैं जानता था यही वह क्षण है जब अपने अस्तित्व की निरर्थकता के बोझ से बूबा का दम घुटने लगता है और बूबा सिर्फ मरना चाहती है. बिल्कुल धीरे-धीरे. मैं सोच रहा था कि बूबा मुझसे पूछेगी कि क्या मैं उसका गला दबा सकता हूं और मैं बूबा के गले पर अपना हाथ धर दूंगा. ‘सुनो’ बूबा बहुत देर बाद बोली. बूबा की आवाज बहुत धीमी थी, ‘मैं महसूस करना चाहती हूं कि मैं हूं.’ बूबा सीधे मेरी आंखों में देख रही थी. ‘बूबा!’ मैंने बूबा के चेहरे पर ऐसा तनाव और थकान कभी नहीं देखी थी. बूबा का चेहरा इस सर्दी में भी भीग रहा था. बूबा के साथ हमेशा से चलता हुआ मीलों लंबा अकेलापन और सन्नाटा भरती हुई शाम की ललछौंही, कुछ ऐसा ही बूबा के चेहरे पर फैला था. ‘मैं अपने होने को पूरा, पर जीना चाहती हूं.’ ‘मैं समझा नहीं बूबा.’ ‘तू मेरे लिए क्या कर सकता है?’ ‘कुछ भी.’ ‘कुछ भी? सत्य-असत्य से परे, सुख-दु:ख के बिना?’ ‘हां बूबा.’ ‘मुझे चूमो.’ बूबा ने मेरा हाथ पकड़ लिया. बूबा की हथेली भीग रही थी. बूबा की आंखें धीरे-धीरे बलने लगी थीं. ‘बूबा.’ मैं डर रहा था बूबा की सूरत से. उदासी से कढ़ी बूबा की आंखें सिर्फ एक औरत की आंखें रह गई थीं. एक ऐसी औरत जो हमेशा से बूबा के अंदर थी, बूबा के साथ बड़ी होती रही, लेकिन बूबा ने उसे कभी अपने से बाहर झांकने नहीं दिया. वह औरत धीरे-धीरे बूबा के जिस्म की एक एक नस में फैल गई थी और आज वही औरत जब बाहर निकलना चाह रही थी तो बूबा की एक-एक पर्त एक-एक नस चटक रही थी. मैं उठा और धीरे से मैंने बूबा का गला चूम लिया. बिल्कुल वही हिस्सा जो मेरे दबाने से नीला पड़ ज़ाता था. ‘मेरे होंठ.’ बूबा फुसफुसाई. बूबा ने अपनी आंखें बंद कर लीं. मैंने झुककर बूबा के होंठ चूम लिए. सुर्ख लाल होंठ. एक घूंट भरा हो जैसे मैंने खून का. ‘और’ बूबा की बेचैन उंगलियां मेरी गरदन मेरे सीने पर रेंग रही थीं. ‘और.’ ‘बूबा.’ मैं हांफने लगा. मेरे चेहरे पर पसीना छलछला आया. मेरा बदन कांप रहा था. मुझे लग रहा था कि मैं अपने आप से छिटक कर अलग हो गया हूं और सिर्फ एक आदमी मेरे अंदर शेष रह गया है. बहुत पहले मैं ने पूछा था बूबा से कि यम ने क्या किया बूबा ने कहा था, उसका कोई महत्व नहीं है. महत्व है जीवन-दृष्टि का, मूल्यों का और मैंने फिर पूछा था बूबा से कि मूल्यों के लिए तुम जिस तरह से सोचती हो, उतना मुक्त होकर उनको जी सकती हो? ‘शायद’ बूबा ने कहा था. मेरी वही बूबा, मेरी इकलौती आस्था मेरे सामने बैठी थी. यमी की जीवन-दृष्टि को आदर्श मानने वाली, शाश्वत सत्य की अन्वेषिका, पाप - पुण्य के अनास्तित्व और रिश्तों के धर्म की अध्येत्री, मेरी रक्षिता, मेरी कल्याणी, मेरी मां. ‘मुझे सुख दे रे मुझे विस्तार दे.’ बूबा ने मुझे खींच लिया. ‘बूबा’ मैं कुछ कहना चाहता था. लेकिन अचानक ही बूबा की आंखों में, होंठों पर, सैकडों मरे सपने करवट बदलने लगे. बूबा की हांफती सांसों को किसी जमीन का एक टुकड़ा चाहिए था, जिस पर रुककर बूबा कुछ गहरी सांसें ले सके. मैं सिर्फ बुदबुदा कर रह गया. और मैं, सिर्फ एक आदमी, बूबा के, सिर्फ एक औरत के सीने पर हांफता हुआ गिर पड़ा. सुबह जब मैं गया तो बहुत सन्नाटा था. बाबा कमरे में सो रहे थे. कमरे की दहलीज पर धूप का एक टुकडा रेंग रहा था. बूबा कहीं नहीं दिखी. मैं वहीं एक कोने में बैठ गया. कुछ देर में बूबा बाथरूम से निकली. वही पुरानी उदासी से कढ़ी आंखें. सूजी हुईं. सारी रात रोई थी शायद बूबा. होंठ भी कुछ छिले हुए और सूज रहे थे. मुझे देखते ही बूबा चौंक गई. मेरी आंखें झुक गईं. ‘तू आ गया रे!’ देख तो मेरे होंठ कैसे नीले हो गए हैं! बिल्कुल जहर में डूबे. सारी रात तो धोया है मैंने इन्हें, लेकिन यह रंग छूटता ही नहीं.’ बड़बड़ाती हुई बूबा फिर नल पर चली गई. मैं फूट-फूट कर रो पड़ा. ‘ओ अनामा, अदृष्टा मंत्रकर्ता, तुम्हारी कथा अधूरी थी. आगे क्या हुआ, यह मैं बताता हूं. शाश्वत सत्य की अन्वेषिका यमी देह सत्य को अपने जीवन के स्तर पर जी नहीं पाई और उसके होंठ नीले पड़ गए. मेरी बूबा की तरह जहर में डूबे दो नीले फूलों जैसे होंठ.’
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