पृथ्वी दिवस हर साल 22 अप्रैल को मनाया जाता है. यह दिन पृथ्वी और इसके पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने और इसकी सुरक्षा के लिए कार्रवाई करने का प्रतीक है. पृथ्वी दिवस मनाने की शुरुआत 22 अप्रैल 1970 को अमेरिकी सीनेटर गेराल्ड नेल्सन ने की थी. लगभग दो करोड़ अमेरिकियों ने पृथ्वी दिवस के पहले आयोजन में हिस्सा लिया था. तब से हर साल पृथ्वी दिवस का आयोजन एक विशेष थीम के साथ 22 अप्रैल को होता आ रहा है. इस वर्ष 2024 की थीम 'गृह बनाम प्लास्टिक (Planet Vs Plastic) है.
पृथ्वी दिवस 2024: 'प्लेनेट बनाम प्लास्टिक' की जंग में महात्मा गांधी के बताए मार्ग से मिलेगी जीत
महात्मा गांधी ने कहा था कि पृथ्वी पर मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, मगर उसके लालच के लिए नहीं. गांधी जी का मानना था कि पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियां नहीं हैं, वे हमारे बच्चों की धरोहर हैं.

इस थीम के साथ अर्थ दिवस मनाने का उद्देश्य मानव और पृथ्वी के स्वास्थ्य के संबंध में प्लास्टिक प्रदूषण के नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाना है. पिछले वर्षों में पृथ्वी दिवस की थीम के रूप में जलवायु परिवर्तन और स्वच्छ ऊर्जा से लेकर प्रजातियों की रक्षा और वृक्षारोपण के लाभों तक जैसे कई पर्यावरणीय मुद्दों को शामिल किया जा चुका है. इस वर्ष की थीम, ‘गृह बनाम प्लास्टिक’, इसलिए और भी प्रासंगिक है क्योंकि प्लास्टिक प्रदूषण के मुद्दे पर इस साल के अंत तक एक ऐतिहासिक संयुक्त राष्ट्र संधि पर सहमति होने की उम्मीद है. ब्रिटेन सहित दुनिया के 50 से अधिक देशों ने 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने का आह्वान किया है.
धरती पर आज इंसान प्लास्टिक से बुरी तरह घिर चुका है. वह प्लास्टिक खा रहा है, पी रहा है और पहन भी रहा है. इस मटेरियल ने हमें आगे बढ़ने का रास्ता दिया, पर साथ ही यह अपने साथ अनेक समस्याएं भी साथ लाया. उन्हीं में से एक इसके प्रदूषण की समस्या है. आज हम हर साल करीब 30 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा फैला रहे हैं, जो कि सम्पूर्ण मानव जाति के भार के बराबर है. दुनिया भर के लिए अब प्लास्टिक एक बड़ा सिरदर्द बन चुका है. प्लास्टिक पर्यावरण हमारे आसपास ही नहीं बल्कि दूर दराज़ के इलाक़ों, पहाड़ों, नदियों और समुद्रों को भारी नुक़सान पहुंचा रहा है. द साइंस जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2040 तक पूरी दुनिया में क़रीब 1.3 अरब टन प्लास्टिक जमा हो जाएगा.
भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) और प्रैक्सिस ग्लोबल अलायंस के सहयोग से तैयार की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत हर साल क़रीब 3.4 मिलियन टन यानी 340 करोड़ किलो प्लास्टिक कचरा पैदा करता है और इसके केवल तीस प्रतिशत हिस्से को रीसाइकिल किया जाता है. प्लास्टिक को पर्यावरण में पूरी तरह घुलने में 300 से लेकर 800 साल तक लगते हैं. यानी हम और आप लोग धरती से चले जाएंगे लेकिन हमारे द्वारा छोड़ा गया प्लास्टिक कचरा पृथ्वी के इकोसिस्टम को तबाह करता रहेगा.
क्या हैं माइक्रोप्लास्टिक?समुद्र की गहराई से लेकर पहाड़ की चोटियों और अंतरिक्ष तक को इंसान ने प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़ों से पाट दिया है. अगर आप अपने आसपास नज़र दौड़ाएंगे तो आपको प्लास्टिक की कई सारी चीज़ें नज़र आएंगी. ऐसी ही चीज़ों के बारीक़ टुकड़े जब बहुत छोटे आकार में टूट जाते हैं तो उन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है. माइक्रो का मतलब छोटा या सूक्ष्म होता है. पर्यावरण और मौसम पर रिसर्च करने वाले दुनिया के टॉप इंस्टीट्यूट नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फियरिक (NOAA) ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि 5 मिलीमीटर से छोटे, यानी 0.2 इंच के आकार, या इससे छोटे प्लास्टिक के कण ही माइक्रोप्लास्टिक कहलाते हैं. माइक्रोप्लास्टिक एक तिल के बीज के बराबर, या उससे भी छोटा होता है. कुछ टुकड़े इससे भी छोटे होते हैं, जिन्हें नैनो स्केल में ही मापा जा सकता है. उन्हें नैनो प्लास्टिक कहा जाता है. ये प्लास्टिक के बारीक कण हर उस चीज़ में पहुँच रहे हैं जो हम खाते हैं और जिसमें हम साँस लेते हैं.
ऐसा अनुमान है कि इस पृथ्वी पर मौजूद हर एक व्यक्ति औसतन हर साल 50 हज़ार से ज़्यादा प्लास्टिक कणों का उपभोग करता है, और अगर इसमें साँसों के ज़रिए हमारे भीतर पहुँचने वाले कणों को भी शामिल कर लिया जाए, तो इनकी संख्या और भी बढ़ जाती है. जब कभी हम यात्रा कर रहे हों या ऐसी जगह हों, जहाँ साफ़ पानी न मिल पाए, वहां हमारी कोशिश रहती है कि बोतल बंद पानी मिल जाए. हम यह मानते हैं कि इस पानी में गंदगी नहीं होंगी. लेकिन इस पानी के अंदर माइक्रोप्लास्टिक यानी प्लास्टिक के असंख्य महीन कण हो सकते हैं.
एक शोध के अनुसार आज धरती पर रहने वाला हर एक व्यक्ति कम से कम 5 ग्राम अर्थात एक क्रेडिट या डेबिट कार्ड के भार जितना प्लास्टिक पानी से , खाने से या माइक्रोप्लास्टिक युक्त हवा से अपने शरीर में ले रहा है. प्लास्टिक अब हमारे खून का हिस्सा भी बन चुका है. मतलब अब प्लास्टिक किसी बर्तन या किसी प्रोडक्ट तक सीमित नहीं बल्कि अब हम इंसानों की नसों में भी घुलने लगा है. नीदरलैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ एम्सटर्डम ने अपने रिसर्च में पाया है कि लोगों के खून में भी माइक्रोप्लास्टिक मौजूद है.
पीने का साफ़ पानी हम सभी की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है. आईआईटी पटना के एक शोध में बारिश के पानी में भी माइक्रोप्लास्टिक कण मिले थे. इसी तरह एक अन्य शोध में पाया गया कि भारत में ताज़ा पानी की नदियों और झीलों तक में माइक्रोप्लास्टिक मिल रहा है. इनमें फ़ाइबर, छोटे टुकड़े और फ़ोम शामिल हैं. इस शोध के मुताबिक़, फ़ैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी और शहरी इलाक़ों से निकलने वाले प्लास्टिक वेस्ट जैसे कई कारणों से ये हालात बने हैं. माइक्रो प्लास्टिक पानी के अलावा उस ज़मीन में भी बहुतायत में पाए जाने लगे हैं, जहाँ खेती होती है.
अमेरिका में साल 2022 में एक पड़ताल की गई थी. इसके मुताबिक़, सीवर की जिस गाद को वहां फसलों के लिए खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, उसमें माइक्रोप्लास्टिक होने के कारण 80 हज़ार वर्ग किलोमीटर खेती योग्य ज़मीन दूषित हो गई थी. इस गाद में माइक्रोप्लास्टिक के अलावा, कुछ ऐसे केमिकल भी थे, जो कभी विघटित नहीं होते यानी उसी अवस्था में बने रहते हैं.
वहीं, ब्रिटेन में कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी ने पाया था कि यूरोप में हर साल खेती वाली ज़मीन में खरबों माइक्रोप्लास्टिक कण मिल रहे हैं जो हर निवाले के साथ लोगों के शरीर के अंदर पहुंच रहे हैं. कुछ पौधे ऐसे हैं, जिनमें बाक़ियों की तुलना में माइक्रोप्लास्टिक ज्यादा होता है. दरअसल, कुछ शोध बताते हैं कि जड़ों वाली सब्ज़ियों में माइक्रोप्लास्टिक ज़्यादा पाए जाते हैं. यानी पत्ते वाली सब्जियों में कम माइक्रोप्लास्टिक होंगे, जबकि मूली और गाजर जैसी सब्ज़ियों में ज्यादा देखे गए हैं.
माइक्रोप्लास्टिक के संभावित खतरेवैज्ञानिकों ने हाल ही में शरीर में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी की पहचान की है. ऐसी आशंका जताई गई है कि इंसान वर्षों से प्लास्टिक के छोटे कण को खा रहे हैं, पी रहे हैं या सांस के जरिए शरीर में ले रहे हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, रिवरसाइड द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि प्लास्टिक में मौजूद हानिकारक केमिकल्स अगली दो पीढ़ियों में मेटाबॉलिक डिजीज का कारण बन सकते हैं.
माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को लेकर अभी सीमित शोध सामने आए हैं. कुछ शोधों के मुताबिक, “माइक्रोप्लास्टिक हमारे एंडोक्राइन ग्रंथियों (हारमोन पैदा करने वाली ग्रंथियों) के काम में समस्या पैदा करते हैं. हो सकता है भविष्य में पता चले कि माइक्रोप्लास्टिक बहुत गंभीर नुक़सान कर सकते हैं, इसलिए अभी से सजग रहने की ज़रूरत है.”
हर दिन ऐसे नए अध्ययन सामने आ रहे हैं जिनमें इनके इंसानों और अन्य जीवों के स्वास्थ्य पर पड़ते दुष्प्रभाव उजागर हो रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि इस समस्या से निपटने के प्रयासों को उपलब्ध विज्ञान और संसाधनों के जरिये बढ़ाना होगा. आज प्लास्टिक का इस्तेमाल कम करने या प्लास्टिक के विकल्प के रूप में अन्य प्रकृति हितैषी वस्तुओं का इस्तेमाल करने की जरूरत है. इस पृथ्वी दिवस पर पृथ्वी और प्लास्टिक के 100 साल पुराने रिश्ते को अलविदा कहने के बारे में गंभीरता से विचार करके कदम उठाना होगा.
हम पृथ्वी दिवस कैसे मना सकते हैं?पृथ्वी दिवस पर आप छोटे-छोटे काम करके पृथ्वी को बचाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं. जैसे आज से ही प्लास्टिक का उपयोग कम करें, कपड़े के थैले का उपयोग करें और पुनःप्रयोज्य पानी की बोतल लें. ऊर्जा को बचाने का काम करें. इसके लिए जल्दी सोयें और सुबह जल्दी जागकर सूरज की रोशनी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें. जब ज़रूरी न हो बत्तियां बंद करें और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को अनप्लग करें. पानी जीवन के लिए बहुत ज़रूरी हैं, इसलिए पानी बचाएं. इसके लिए आप कम समय तक शावर लें, बाल्टी-मग का प्रयोग कर नहायें. साथ ही ना सिर्फ पौधे लगाएं और पेड़ों की रक्षा करें बल्कि तीज त्योहार-जन्मदिन-शादी की वर्षगांठ व अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर हरे भरे पौधे लोगों को भेंट में दें.
पर्यावरण के अनुकूल मौसम में उगने वाले लोकल उत्पादों और फल सब्जियों का उपयोग करें. पर्यावरणीय संगठनों का समर्थन करें. उतने ही भौतिकतावादी बनें जितनी जरूरत है, खाने पीने तथा अन्य चीजों की बर्बादी रोकें. जितना हो सके एसी के उपयोग से बचें और अगर एसी का उपयोग ही करें तो तापमान 24 डिग्री सेंटीग्रेड रखें.
पृथ्वी हमारा एकमात्र घर है. इसे बचाने के लिए हम सबका मिलकर प्रयास करना जरूरी है. महात्मा गांधी ने कहा था कि पृथ्वी पर मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, मगर उसके लालच के लिए नहीं. गांधी जी का मानना था कि पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियां नहीं हैं, वे हमारे बच्चों की धरोहर हैं.
(लेखक का नाम डॉ. सुशील द्विवेदी है. वे विज्ञान व पर्यावरण मामलों के जानकर हैं तथा वर्तमान में भारत सरकार के शैक्षिक मिशन के अंतर्गत भारतीय राजदूतावास केन्द्रीय विद्यालय काठमांडू में कार्यरत हैं.)
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