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अब पूरी दुनिया में डॉलर की जगह चीन की करेंसी में व्यापार शुरू होगा?

डी-डॉलराइजेशन की चर्चा जोर पर है.

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कई देशों ने चीन के साथ अमेरीकी डॉलर की बजाय, चीनी करेंसी युआन में व्यापार शुरू कर दिया है (फोटो सोर्स- Getty)

अगर डॉलर हमारे-आपके जीवन से ग़ायब हो जाए तो क्या होगा? क्या दुनिया भर में उथल-पुथल मच जाएगी? या दुनिया में होने वाले कारोबार के नियम उलट-पुलट हो जाएँगे? क्या आर्थिक अराजकता फैल जाएगी? डी-डॉलराइज़ेशन वो टर्म या जुमला है जिस पर इन दिनों चर्चा काफ़ी तेज़ हो गई है. आइए इसे ऐसे समझते हैं.

बचपन में पढ़ा था कि सैकड़ों-हजारों साल पहले दुनिया भर में बार्टर सिस्टम चलता था. कोई करेंसी नहीं थी, लोग सामान के बदले सामान की अदला-बदली कर लेते थे. यही व्यापार का अकेला तरीका था. इसमें ये तय हो पाना मुश्किल था कि कितने सामान के बदले दूसरा कितना सामान चढ़ेगा. माने कितने किलो आटे के बदले में एक किलो बासमती चावल मिलेगा. फिर व्यापारी जमीन और समंदर के रास्ते दूसरे देशों में व्यापार करने जाने लगे तो व्यापार के लिए एक कॉमन रेफेरेंस की दिक्कत और बढ़ी. धीरे-धीरे इंसान ने ये दिक्कत दूर कर ली. कीमती धातुओं के सिक्के चलन में आ गए. जैसे सोना, चांदी, पीतल वगैरह. इसके बाद सभी देशों ने अपनी करेंसीज बना लीं. लेकिन दुनिया भर में व्यापार का कॉमन रेफेरेंस बना अमेरिका का डॉलर. आज किसी छोटे से बच्चे से पूछो डॉलर क्या है. जवाब आएगा, ग्लोबल करेंसी यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा. क्यों? क्योंकि आज दुनिया भर के देश और व्यापारी डॉलर में ही व्यापार कर रहे हैं. बॉलीवुड मूवीज से लेकर देशों के रक्षा सौदों तक मिलियन-डॉलर, बिलियन डॉलर की डील का जिक्र, आज आम बात है. लेकिन क्या हमेशा ऐसा ही रहेगा? हो सकता है एक दिन सारी डीलें चीन युआन या रूसी रूबल या भारतीय रुपए में होने लगें? या डॉलर को हटाने के लिए कोई नई मुद्रा ही बना दी जाए? दुनिया भर में इस बड़े फेर-बदल की अटकलें लगाई जा रही हैं.

मास्टरक्लास में हम देश-दुनिया की उन तमाम चीजों पर तफसील से बात करते हैं, जिनका हमारे-आपके जीवन पर बड़ा प्रभाव रहता है. आज मास्टरक्लास में समझेंगे कि ये डी-डॉलराइजेशन क्या है? क्या विदेशी व्यापार में डॉलर का भौकाल ख़त्म होने वाला है? इससे अमेरिका को क्या खतरा है? और क्या अब ग्लोबल मार्केट में चीनी युआन चला करेगा?

पहले बात डॉलर की.

डॉलर ग्लोबल करेंसी कैसे बना?

बीते साल, 2022 की जुलाई में 1 अमेरिकी डॉलर की कीमत पहली बार 80 रुपए के पार चली गई थी. और आज जब हम आपको ये कहानी सुना रहे हैं तब एक डॉलर की कीमत 82 रुपए 4 पैसे है. डॉलर या पाउंड किसी करेंसी की मार्केट वैल्यू कैसे घटती बढ़ती है, ये एक लम्बी कहानी है. लेकिन संक्षेप में ऐसे समझिये कि यहां भी डिमांड और सप्लाई का गेम चलता है. चीज की मांग ज्यादा तो उसकी कीमत भी ज्यादा. जैसे लोहा, सोना या तेल का ग्लोबल मार्केट है वैसे ही पैसे का भी ग्लोबल मार्केट है. इसे फॉरेन एक्सचेंज मार्केट या मनी मार्केट कहते हैं. इसकी सबसे छोटी इकाई है- बैंक. और दुनियाभर में लाखों बैंक हैं. इनके अलावा सरकार ट्रेडर्स को करेंसी के लेन-देन का लाइसेंस भी देती है, ये सब मनी मार्केट का हिस्सा हैं. जहां आप करेंसी का एक्सचेंज करते हैं. इस लेन-देन का एक रेट होता है, जिसे एक्सचेंज रेट कहते हैं. ये बदलता रहता है. जितनी जिस करेंसी की मांग, उतनी ही उसकी कीमत. डॉलर की कीमत इसलिए ज्यादा है क्योंकि उसकी पूरी दुनिया में मांग ज्यादा है. मांग ज्यादा क्यों है? इसकी वजह हमने आपको शुरू में ही बताई कि दुनिया में ज्यादातर व्यापार अमेरिकी डॉलर में ही होता है.

लेकिन डॉलर में ही सबसे ज्यादा लेन-देन क्यों होता है? इसे समझने के लिए चलना होगा करीब 70 साल पीछे. सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद दुनिया भर में आर्थिक संकट के हालात थे. इसके मद्देनजर जुलाई 1944 में एक बड़ी मीटिंग हुई. जगह अमेरिका के अमेरिका के न्यू हैम्पशायर का माउंट वाशिंगटन होटल. 44 देशों के सैकड़ों लोग जुटे. ये मीटिंग पूरे 22 दिन चली. जिसमें दो अहम काम हुए. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक का गठन और ब्रेटन वुड्स समझौता. इस समझौते के पहले तक दुनिया के तमाम देश सोना यानी गोल्ड को मानक मानते थे. सरकारें अपनी करेंसीज को सोने की मांग और मूल्य के आधार पर तय करती थीं. ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत विकसित देशों ने मिलकर तय किया कि अमेरिकी डॉलर के मुकाबले ही बाकी सभी करेंसीज का एक्सचेंज रेट तय होगा. क्योंकि इस वक़्त अमेरिका के पास ही सबसे ज्यादा सोने का भंडार था.

इसके बाद कुछ साल ब्रेटन वुड्स सिस्टम ठीक से काम करता रहा. साल 1958 तक ज्यादातर देश सोने के बदले डॉलर वाली इस प्रणाली को अपना चुके थे. लेकिन साल 1970 आते-आते कई देशों को समझ में आने लगा कि इस सिस्टम से अमेरिका को फायदा ज्यादा है. फ्रांस के तत्कालीन वित्त मंत्री जिस्कार दे’स्तां ने इसे America's exorbitant privilege यानी अमेरिका का असाधारण विशेषाधिकार कहा. यहां तक कि उस वक़्त अमेरिका के मशहूर अर्थशास्त्री बैरी एकेनग्रीन ने लिखा,

“100 डॉलर का एक नोट छापने के लिए कुछ सेंट का खर्चा आता है, लेकिन दूसरे देशों को ये नोट पाने के लिए हकीकत में 100 डॉलर का सामान देना पड़ता है.”

इस तरह पहली बार डॉलर से भरोसा उठ रहा था. उसकी एक और वजह भी थी. जर्मनी और जापान अब तक विश्व युद्ध से उबरने लगे थे. ऐसे में दुनिया भर में अमेरिका की आर्थिक हिस्सेदारी कम होने लगी थी. डॉलर की कीमत भी गिर चली थी. इसके बाद फ्रांस और बाकी कई देशों ने ब्रेटन वुड्स सिस्टम छोड़ दिया. अब वो डॉलर के बदले सोना चाह रहे थे. 13 अगस्त, 1971 को अमेरिकी प्रेसिडेंट निक्सन ने ब्रेटन वुड्स सिस्टम ख़त्म करने का ऐलान भी कर दिया. जिसके साथ ही डॉलर की गोल्ड में कन्वर्टेबिलिटी ख़त्म हो गई. माने अब दुनिया भर के देशों के पास जो अमेरिकी डॉलर जमा थे, वे उन्हें वापस देकर बदले में अमेरिका से सोना नहीं ले सकते थे.

निक्सन के इस कदम का मकसद डॉलर की कीमत को स्थिर बनाए रखना था. और वो इसमें सफल हुए. हालांकि निक्सन के इस फैसले पर 2008 की वैश्विक मंदी के आलोक में आज भी बहस होती रहती है. लेकिन कुल मिलाकर उनके निर्णय के बाद डॉलर एक सुरक्षित वैश्विक मुद्रा बन चुका था. दुनिया भर के देशों के पास भारी तादात में डॉलर का भण्डार था और ये आज भी है.

आज डॉलर की दुनिया भर में पकड़ कितनी मजबूत है, इसे कुछ आंकड़ों से समझिए-

-डॉलर के बाद यूरो को ग्लोबल करेंसी माना जाता है. लेकिन दुनिया भर के देशों की केन्द्रीय बैंकों के पास जो विदेशी मुद्रा भंडार है, उसमें करीब 60 फीसद अमेरिकी डॉलर होते हैं. जबकि यूरो करीब 19 फीसद होते हैं.

-डॉलर में कितना व्यापार होता है? इसे इस आंकड़े से समझिए कि आज भी अमेरिका जितने डॉलर छापता है, उनकी बड़ी तादाद का इस्तेमाल अमेरिका के बाहर होता है.

-दुनिया भर में सबसे ज्यादा कर्ज अमेरिकी डॉलर में दिए जाते हैं. 

-और दुनिया भर के 80 फीसद से ज्यादा व्यापार में अमेरिकी डॉलर का इस्तेमाल होता है.

लेकिन अब कहा जा रहा है कि डी-डॉलराइजेशन जरूरी है और डॉलर की ये बादशाहत ख़त्म होनी चाहिए. तो क्या कोई नई मुद्रा इसकी जगह ले सकती है? क्या ये बड़ा उलटफेर अचानक हुआ है?

De Dollarisation क्या है?

डी डॉलराइजेशन को लेकर विदेशी मीडिया और ग्लोबल मार्केट के जानकार क्या कहते हैं. इस पर आने से पहले ये समझ लीजिए कि डॉलर में व्यापार कैसे होता है. इसकी मोटा-माटी मिसाल ये है कि अगर किसी भारतीय को ग्लोबल मार्केट से कुछ भी इम्पोर्ट करना है, माने अगर सुई भी खरीदनी है तो उसे डॉलर में पेमेंट करना होता है, और अगर वो अपनी कोई चीज एक्सपोर्ट भी करे, माने बेचे तो भी उसे पेमेंट डॉलर में ही मिलेगा.

अब डी डॉलराइजेशन माने ऐसे समझिए कि दुनिया भर के देश अगर कोई ऐसा नियम बना लें कि वो सारा लेन-देन या इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट डॉलर के बजाय, किसी और करेंसी में करने लगें तो इसे डी डॉलराइजेशन कहा जाएगा.

इसी डी डॉलराइजेशन की कोशिशें जारी हैं. क्या-क्या हो रहा है इसे समझ लीजिए.

दुनिया में क्या चल रहा है?

डी-डॉलराइज़ेशन के मुद्दे पर अमरीका में भारी चिंता है. अमेरिका में दो बड़े न्यूज़ चैनल हैं. एक सीएनएन और एक फॉक्स टीवी. आम तौर पर इन दोनों का रवैया हर मुद्दे पर बिलकुल विपरीत रहता है. CNN को डेमोक्रटिक पार्टी के विचारों का समर्थक माना जाता है, जबकि फॉक्स टीवी को रिपब्लिकन पार्टी का. लेकिन 'डी डॉलराइजेशन' के मुद्दे पर दोनों ही चैनल एक सी बात कह रहे हैं. और वो बात ये कि डॉलर का पूरी दुनिया पर वर्चस्व ख़त्म हुआ तो अमेरिका और अमरीकियों को इसके बुरे नतीजे भुगतने होंगे. महंगाई बेकाबू हो जाएगी. पूरी दुनिया पर अमेरिका का आर्थिक वर्चस्व ख़त्म हो जाएगा और अमेरिका का सुपरपावर का तमगा छिन जाएगा. इसके पहले 17 मार्च, 2023 को अमेरिकी टीवी चैनल CNBC पर आर्थिक मामलों के मशहूर जानकार रुचिर शर्मा ने भी कह दिया कि ये डॉलर के बाद की दुनिया की शुरुआत है.

ये तो अमेरिका की बात है. 30 मार्च, 2023 को मशहूर ब्रिटिश अखबार, फाइनेंशियल टाइम्स ने भी एक डिटेल्ड रिपोर्ट छापी. इसमें भी कहा गया कि मल्टीपोलर करेंसी वाली दुनिया के लिए तैयार हो जाइए.

यानी विदेशी मीडिया और जानकारों को लगने लगा है कि कोई बड़ा बदलाव जल्दी आने वाला है. रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ तो डी डॉलराइजेशन के अनुमान लगाए जा रहे थे. जो अब सिर्फ हवा-हवाई नहीं लग रहे. साल 2022 में रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका ने रूस का 300 बिलियन डॉलर का फॉरेन रिज़र्व जब्त कर लिया था. रूसी करोड़पतियों की भी अरबों डॉलर की संपत्ति और पैसा जब्त कर लिया गया. और रूस पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए. इसके बाद रूस को डी डॉलराइजेशन की जरूरत महसूस होने लगी.

एशिया, यूरोप और लैटिन अमेरिकी देशों में भी ये कहा जाने लगा कि अमेरिका अपने डॉलर को युद्ध के हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है. वो अपने खिलाफ जाने वाले देशों को डॉलर पेमेंट सिस्टम से बाहर कर देता है और उनका डॉलर में किया गया इन्वेस्टमेंट भी जब्त कर लेता है. इसकी ताजा मिसाल तो रूस है लेकिन इसके पहले ईरान, वेनेजुएला और अफगानिस्तान जैसे देश भी अमेरिका की इस नीति का शिकार हुए हैं.

रूस पर प्रतिबन्ध लगे तो, डॉलर के अलावा दूसरी करेंसीज में व्यापार करना उसकी मजबूरी हो गई. उसने कोशिश की कि उसके साथ व्यापार करने वाले देश, उसे उसकी ही करेंसी रूबल में पेमेंट करें. लेकिन ऐसा आसानी से हुआ नहीं. वजह दो, एक तो रूस की माली हालत इस वक़्त तंग है, और दूसरा रूबल इतना चलन में नहीं है कि दुनिया भर में कारोबार की करेंसी बन सके. इसके बाद चीन के साथ रूस चीनी मुद्रा युआन में व्यापार करने लगा. रूस के इस मजबूरी वाले लेकिन नए फैसले से कई देशों ने सीख लेने की कोशिश की. मसलन अमेरिका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन भी अब यही कर रहा है. दुनिया के करीब 130 देशों के साथ चीन का व्यापार चलता है. व्यापार के मामले में वो अमेरिका से भी आगे है. यानी नंबर वन. हालांकि चीन साल 2009 में भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से एक नई ग्लोबल करेंसी की मांग कर चुका है. लेकिन इस बार उसके प्रयास कहीं बड़े हैं.

चीन क्या कोशिश कर रहा है?

बीते महीने 21 और 22 मार्च को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग रूस की यात्रा पर थे. इस दौरान रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने घोषणा कर दी कि अब रूस, चीन के अलावा एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों के साथ भी सारा कारोबार डॉलर के बजाय युआन में करेगा. ये घोषणा एक तरह से चीनी मुद्रा युआन को रूस की तरफ से ग्लोबल करेंसी मानने जैसा है.

इस बड़ी घोषणा के बाद सीन एक दम बदलने लगा है. अब तक UAE, सउदी अरब और ब्राजील जैसे देश युआन को अपनाने को राजी हो गए हैं. हैरान करने वाली बात ये है कि फ़्रांस की बड़ी एनर्जी कंपनी टोटल एनर्जीज ने भी युआन में भुगतान करना शुरू कर दिया है. कुल मिलाकर औपचारिक तौर पर जब तक किसी नई करेंसी पर सहमति नहीं बनती, चीनी युआन देशों के बीच लेन-देन की मुद्रा बनता जा रहा है. सउदी अरब का युआन पर राजी होना, इसलिए ख़ास है कि साल 1973 में सउदी अरब ने कहा था कि वो तेल सिर्फ डॉलर में ही बेचेगा. इसके बाद दुनिया भर के देशों को सउदी से तेल लेने के लिए अपने फॉरेन करेंसी रिजर्व में डॉलर रखना जरूरी हो गया था. और अब सउदी अरब ने डॉलर से हाथ पीछे खींच लिए हैं.

सवाल है कि क्या चीनी युआन औपचारिक तौर पर ग्लोबल करेंसी बन पाएगी?

चीनी युआन ग्लोबल करेंसी बनेगी?

कोशिश जारी है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देश, ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका के समूह को ब्रिक्स कहते हैं. 30 मार्च को रूसी संसद के उप्पाध्यक्ष अलेक्सांद्र बाबाकोव ने कहा था कि ब्रिक्स के तहत एक नई करेंसी तैयार करने की कोशिश की जाएगी. कहा जा रहा है कि इस नई करेंसी की कीमत भी उसी तरह तय होगी जैसे साल 1971 तक गोल्ड स्टैण्डर्ड के तहत डॉलर की कीमत तय की गई थी. इस पूरे मॉडल को इस साल अगस्त में साउथ अफ्रीका में होने जा रहे ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में पेश किया जाएगा.

इस कोशिश को अर्थशास्त्री भी नामुमकिन नहीं मानते. फाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक, गोल्डमैन सैक्स ग्रुप के इकोनॉमिस्ट रहे जिम ओ'नील की रिसर्च में कहा गया है कि अब ब्रिक्स देशों को डॉलर का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए. क्योंकि इसकी कीमत जरूरत से कहीं ज्यादा बनी हुई है.

फाइनेंशियल टाइम्स, बीते साल की सेंटर फॉर इकनोमिक पॉलिसी की एक रिसर्च का हवाला देते हुए भी ये कहता है कि दुनिया में कई ग्लोबल करेंसी में व्यापार का ज़माना आ सकता है.

अमेरिका की हालत यूं भी खस्ता है. साल 1999 में दुनिया भर के करेंसी रिजर्व में डॉलर की हिस्सेदारी 72 फीसद थी, जो अब घटकर 59 फीसद रह गई है. अमेरिका का बैंकिंग सेक्टर भी इस वक़्त डगमगाया हुआ है. महंगाई बढ़ी हुई है. हालांकि अमेरिका में ऐसी अस्थिरता का प्रभाव अभी तक बाकी देशों पर भी पड़ता आया है. लेकिन डॉलर के अलावा चीनी युआन या किसी भी और करेंसी में व्यापार बढ़ता है तो अमेरिका के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी. दुनिया भर में अमेरिका के सैकड़ों सैन्य अड्डे हैं. उनका खर्चा उन्हीं डॉलरों से चलता है जो अमेरिका छाप-छापकर दूसरे देशों में भेजता है. और वे देश उन्हीं डॉलर्स को अमेरिकी ट्रेजरी बिल या बांड में इन्वेस्ट कर देते हैं. अमेरिका, नोट छाप-छापकर अपना कर्ज मैनेज करता रहा है. और उसकी इकॉनमी अब तक किसी तरह चलती रही है. लेकिन अगर डॉलर की जगह कोई और वैश्विक मुद्रा आई तो अमेरिका के लिए यूक्रेन जैसे देशों की बेहिसाब मदद छोड़िये, अपनी माली हालत सुधारना, अपने सैन्य अड्डे चलाते रहना तक आसान नहीं रहेगा.

भारत ने भी डॉलर में व्यापार से होने वाले नुकसान को भांपते हुए रूस और मलेशिया जैसे देशों के साथ रुपए में व्यापार शुरू कर दिया है. हालांकि अभी भी डॉलर, डॉलर है. और बादशाहतें ख़त्म होने में वक़्त लगता है.

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