पंजाब का मानसा. क्रिसमस का मुबारक मौका. गोशाला भवन में आम आदमी पार्टी नए लोगों को पार्टी की सदस्यता दे रही थी. 'आप' के पंजाब प्रभारी संजय सिंह खुद मंच पर मौजूद. व्हील चेयर पर चलकर एक आदमी मंच के नीचे पहुंचता है. ये आदमी हैं बंत सिंह झब्बर. वो मंच पर नहीं चढ़ सकते. संजय सिंह खुद मंच से नीचे उतरते हैं और बंत को पार्टी में शामिल करते हैं. तालियां बजती हैं. लेकिन बंत सिंह हैरान रह गए, ये देखकर कि जिन्होंने उन्हें व्हील चेयर पर पहुंचा दिया, जिन्होंने उनकी नाबालिग बेटी की जिंदगी में कांटे बो दिए, वो लोग उसी मंच पर बैठे हैं. जिसके नीचे उनको पार्टी की सदस्यता दिलाई जा रही है.
जाति पर वोट बटोरने के चक्कर में AAP ने निहायत घिनौना काम किया है
AAP की राजनीति. बंत सिंह ने सोचा भी नहीं था कि ये दिन भी देखना पड़ेगा.
Advertisement

फोटो - thelallantop
Advertisement
बंत सिंह ने कहा, 'कभी नहीं सोचा था कि ये दिन भी देखना पड़ेगा.'
मंच पर बैठे थे हरबिंदर सिंह और नवदीप सिंह. ये वो लोग हैं जिन्होंने एक बार फिर बाप के जख्म ताज़ा कर दिए. वो बाप जिसकी मासूम बेटी के साथ बलात्कार किया गया. इन्हीं दोनों ने अपने साथियों के साथ मिलकर बंत सिंह हाथ पैर काट डाले थे, क्योंकि बंत ने इंसाफ की लड़ाई छोड़ने से इनकार किया था.कौन हैं बंत सिंह?

देश भर में दलितों पर होने वाले ज़ुल्मों के खिलाफ लड़ाई की आवाज़. इस बात का जिंदा प्रतीक कि ज़ुल्म पर हिम्मत की जीत होकर रहती है. लेकिन अफसोस एक ऐसी दुखद तस्वीर भी, कि आज़ाद हिंदुस्तान में इंसाफ के लिए कितनी बड़ी कुर्बानी देनी पड़ती है.
बंत सिंह 40 साल से पंजाब और देश भर के देहात में गा-गाकर दलितों, वंचितों के हक की बात करते हैं. पंजाब के देहात में खेतिहरों और मजदूरों के नेता. 'सीरी' के चलन के खिलाफ़ खड़े हुए जिसमें मज़हबी सिख जट सिखों के खेतों में बंधुआ मजदूरी करते थे. बीते ज़माने के शोषण के विरोध स्वरूप कभी खेतों में मजदूरी नहीं की, क्योंकि पंजाब में ज़मीन ज़्यादातर अगड़ी जात वालों के पास हैं. अपना छोटा-मोटा काम किया. स्क्रैप का कारोबार किया. खिलौनों और कॉस्मेटिक्स बेचे. सूअर भी पाले. इज़्ज़त की कमाई से एक मुकाम हासिल किया और उस भ्रांति को पलट दिया कि दलित, जट-सिखों की बराबरी नहीं कर सकता. अभी तक भाकपा (माले) के मजदूर मुक्ति मोर्चा के बैनर तले खूब घूम-घूमकर क्रांति की बात की. संत राम उदासी के गीत गाकर. उन्होंने आवाज़ दी-
बदला लेना है खून का, डोल जानी हैं दलालों की सरकारें
बंत ने उन उम्मीदों को जिंदा किया कि अख़बारों और टीवी की पहुंच से दूर, देहात में भी कुछ बदल सकता है.
Advertisement
जुलाई 2002 में बंत की बेटी बलजीत कौर के साथ गांव के ऊंची जात वाले दबंगों ने गैंग रेप किया. उस वक़्त से लेकर आज तक लोग यौन हिंसा को लेकर खुलकर सामने नहीं आ पाते. जब बलजीत ने शिकायत दर्ज करानी चाही, तो लोगों ने नसीहतें देनी शुरू कर दीं. कहा जाने लगा, बात बाहर न जाए तो ठीक है. गांव की पंचायत तक ने अरोपियों का पक्ष लिया. लेकिन बलजीत और उनके पिता बंत सिंह ने हार नहीं मानी और आरोपियों में से तीन को उम्रकैद हुई. तभी से बंत अपनी इन लोगों की नज़र में चढ़ गए.
अगस्त 2005 से लगातार बंत पर हमले हुए, लेकिन पास के जोगा पुलिस थाने ने कार्यवाही नहीं की. हर बार आरोपी छूट गए. जनवरी 2006 में बंत पर एक बड़ा हमला हुआ, जिसमें गांव के सरपंच जसवंत सिंह और उसके भाई (जो खुद भी सरपंच रह चुका था) के बेटों ने बंत को मार-मार के अधमरा कर दिया. पास के मानसा सिविल अस्पताल ने 36 घंटे तक ढंग से इलाज नहीं किया.

पिक्चर क्रेडिट: Punjab Dalit Solidarity
जब तक वे चंडीगढ़ के पीजीआई पहुंचाए गए, चोटों में गैंगरीन पसर चुका था. किसी तरह बचाए गए. एक पैर और दोनों हाथ काट देने पड़े. लेकिन आरोपी बेल पर छूट गए. लोकल प्रेस ने तक बात दबा कर रखी. जब तक सड़कों पर प्रदर्शन शुरू नहीं हुए, पुलिस ने SC-ST एक्ट के तहत मामला तक दर्ज नहीं किया. जो कुछ हुआ, मामले के राष्ट्रीय अख़बारों में छपने के बाद हुआ. पर बंत सिंह इस सब से उबर आए. पूरी तरह ठीक होने से पहले ही संत राम उदासी के गीत गाने लगे.
https://www.youtube.com/watch?v=CxSdru59NVs
हमले ने उनके शरीर को तोड़ा था, लेकिन उनके निश्चय को आंच नहीं पहुंची थी. ठीक होकर उन्होंने अन्याय के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी. दुगने जोश के साथ. दत्त की किताब 'द बैलेड ऑफ़ बंत सिंह: ए क़िस्सा ऑफ़ करेज' के आने के बाद उनकी कहानी को और कई लोगों ने जाना.
बंत के बारे में जानकर Word Sound Power के कलाकार भारत आए और उनके साथ मिलकर एक ज़बरदस्त रैप तैयार किया. सुनिए:
https://www.youtube.com/watch?v=ZobLEh4D17U
'आप' में आने की वजह पंजाब में जनसंख्या के प्रतिशत के हिसाब से सबसे ज़्यादा दलित रहते हैं. 31.94 फीसद. ये आंकड़ा कितना होता है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइए कि हमारे देश में चुनाव जीतने वाली पार्टियां कुल वोटों का 20 या उस से कम फ़ीसद लाकर सरकार बना लेती हैं. लेकिन इतनी बड़ी संख्या के बावजूद उत्तर प्रदेश की तरह का कोई बड़ा ज़मीनी आंदोलन पंजाब में दलितों को एक बैनर तले नहीं ला पाया, क्योंकि पंजाब में दलित अलग-अलग पंथों में बंटे हुए हैं. इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि दलितों को राजनीति में सही मायने में जगह दिलाने वाले कांशीराम पंजाब में पैदा हुए, लेकिन उनकी कर्मभूमि उत्तर प्रदेश रहा. इसलिए अलग गुरूद्वारों में जाने की मजबूरी और शोषण की कई घटनाओं के बावजूद दलितों की आवाज़ पंजाब में कम सुनी जाती है.

आप में शामिल होते बंत.
पिक्चर: दैनिक भास्कर
अब क्योंकि पंजाब में चुनाव आने वाले हैं, ये 32 फ़ीसद का आंकड़ा हर कोई साधना चाहता है. जिसने साधा, उसका बेड़ा पार. 'नई राजनीति' का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी जिसने दिल्ली में जाति-निरपेक्ष होकर ख़ालिस 'आम आदमी' का वोट बैंक तैयार किया, पंजाब में दलितों को लुभाने के पॉपुलिस्ट तरीके अपना रही है. पार्टी ने पहले ही वादा कर दिया है कि जीते तो डिप्टी सीएम दलित ही होगा. इसकी आलोचना भी है कि डिप्टी सीएम दलित होगा का क्या ये मतलब है कि सीएम सवर्ण के लिए आरक्षित है?
चूंकि बंत एक असाधारण कहानी वाले दलित हैं, सीपीआई (माले) में रहे हैं और संघर्षपूर्ण सियासत का ककहरा जानते हैं. इसलिए आम आदमी पार्टी उनके पीछे पड़ी थी और अंतत: उन्हें मना भी ले गई. 'आप' का बचकाना बयान
संजय सिंह के साथ नवदीप और हरबिंदर. फोटो: दैनिक भास्कर
मामला सामने आने के बाद संजय सिंह ने कहा कि उन्हें हरबिंदर सिंह और नवदीप सिंह के बारे में ठीक से जानकारी नहीं थी. ये समझ से बाहर इसलिए है क्योंकि 'आप' के मानसा से कैंडिडेट नज़र सिंह मंसहिया का बयान था कि ये अच्छा है कि 'दोनों पक्ष पार्टी में एक ही इवेंट में शामिल हुए'. यानी 'आप' इस बात से पूरी तरह वाकिफ थी कि मंच के ऊपर और नीचे कौन बैठा है. और उनके बीच किस तरह का इतिहास रहा है. सच ये है कि 'आप' को साफ़ जानकारी थी, कि नवदीप जाट महासभा का पदाधिकारी है. और यही उसे बंत के ठीक साथ पार्टी में शामिल किए जाने की वजह रही. ताकि ऊंची जात वालों के अन्याय के खिलाफ खड़े सबसे चर्चित दलित चेहरे को शामिल करने से कोई 'समीकरण' न गड़बड़ा जाए. लाज़मी तौर पर बंत को ये पसंद नहीं आया था. बावजूद इस सब के, उन्होंने दिल बड़ा कर के कहा कि 'ये बात अलग है कि मेरी बेटी की जिंदगी खराब करने वाले भी अब आम आदमी पार्टी में हैं, लेकिन मैं अपनी लड़ाई जारी रखूंगा'.
हो-हल्ला होने पर 'आप' ने नवदीप और हरबिंदर को आज पार्टी से निष्कासित कर दिया. लेकिन इस सब से 'आप' अपनी गलती से बच नहीं सकती. उसने साफ़ तौर पर बंत और उनके हमलावरों को उनके काम के चलते नहीं बल्कि उनकी जाति को साधने के लिए पार्टी में शामिल किया.
साफ़ है कि 'नई राजनीति' की बात करने वाली 'आप' न तो दलितों को नज़रंदाज़ करने का जोखिम उठाना चाहती है, न ही इस चक्कर में अगड़ी जातियों को नाराज़ करना चाहती है. लेकिन जिस जल्दबाजी में उसने बंत और उनके गुनहगारों को एक मंच पर लाने की कोशिश की है, वो किसी के लिए भी हैरान करने वाली बात है. राजनीति में दांव पेंच अच्छे लगते हैं, फूहड़ता नहीं. ये सबक 'आप' जितनी जल्दी सीखे, बेहतर है.
क्यों खुद को आग लगाने को मजबूर हैं पंजाब के टीचर?
पंजाब में दो मुस्लिम लड़के बन गए गोरक्षक
अगस्त 2005 से लगातार बंत पर हमले हुए, लेकिन पास के जोगा पुलिस थाने ने कार्यवाही नहीं की. हर बार आरोपी छूट गए. जनवरी 2006 में बंत पर एक बड़ा हमला हुआ, जिसमें गांव के सरपंच जसवंत सिंह और उसके भाई (जो खुद भी सरपंच रह चुका था) के बेटों ने बंत को मार-मार के अधमरा कर दिया. पास के मानसा सिविल अस्पताल ने 36 घंटे तक ढंग से इलाज नहीं किया.

पिक्चर क्रेडिट: Punjab Dalit Solidarity
जब तक वे चंडीगढ़ के पीजीआई पहुंचाए गए, चोटों में गैंगरीन पसर चुका था. किसी तरह बचाए गए. एक पैर और दोनों हाथ काट देने पड़े. लेकिन आरोपी बेल पर छूट गए. लोकल प्रेस ने तक बात दबा कर रखी. जब तक सड़कों पर प्रदर्शन शुरू नहीं हुए, पुलिस ने SC-ST एक्ट के तहत मामला तक दर्ज नहीं किया. जो कुछ हुआ, मामले के राष्ट्रीय अख़बारों में छपने के बाद हुआ. पर बंत सिंह इस सब से उबर आए. पूरी तरह ठीक होने से पहले ही संत राम उदासी के गीत गाने लगे.
https://www.youtube.com/watch?v=CxSdru59NVs
हमले ने उनके शरीर को तोड़ा था, लेकिन उनके निश्चय को आंच नहीं पहुंची थी. ठीक होकर उन्होंने अन्याय के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी. दुगने जोश के साथ. दत्त की किताब 'द बैलेड ऑफ़ बंत सिंह: ए क़िस्सा ऑफ़ करेज' के आने के बाद उनकी कहानी को और कई लोगों ने जाना.
बंत के बारे में जानकर Word Sound Power के कलाकार भारत आए और उनके साथ मिलकर एक ज़बरदस्त रैप तैयार किया. सुनिए:
https://www.youtube.com/watch?v=ZobLEh4D17U
'आप' में आने की वजह पंजाब में जनसंख्या के प्रतिशत के हिसाब से सबसे ज़्यादा दलित रहते हैं. 31.94 फीसद. ये आंकड़ा कितना होता है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइए कि हमारे देश में चुनाव जीतने वाली पार्टियां कुल वोटों का 20 या उस से कम फ़ीसद लाकर सरकार बना लेती हैं. लेकिन इतनी बड़ी संख्या के बावजूद उत्तर प्रदेश की तरह का कोई बड़ा ज़मीनी आंदोलन पंजाब में दलितों को एक बैनर तले नहीं ला पाया, क्योंकि पंजाब में दलित अलग-अलग पंथों में बंटे हुए हैं. इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि दलितों को राजनीति में सही मायने में जगह दिलाने वाले कांशीराम पंजाब में पैदा हुए, लेकिन उनकी कर्मभूमि उत्तर प्रदेश रहा. इसलिए अलग गुरूद्वारों में जाने की मजबूरी और शोषण की कई घटनाओं के बावजूद दलितों की आवाज़ पंजाब में कम सुनी जाती है.

आप में शामिल होते बंत.
पिक्चर: दैनिक भास्कर
अब क्योंकि पंजाब में चुनाव आने वाले हैं, ये 32 फ़ीसद का आंकड़ा हर कोई साधना चाहता है. जिसने साधा, उसका बेड़ा पार. 'नई राजनीति' का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी जिसने दिल्ली में जाति-निरपेक्ष होकर ख़ालिस 'आम आदमी' का वोट बैंक तैयार किया, पंजाब में दलितों को लुभाने के पॉपुलिस्ट तरीके अपना रही है. पार्टी ने पहले ही वादा कर दिया है कि जीते तो डिप्टी सीएम दलित ही होगा. इसकी आलोचना भी है कि डिप्टी सीएम दलित होगा का क्या ये मतलब है कि सीएम सवर्ण के लिए आरक्षित है?
चूंकि बंत एक असाधारण कहानी वाले दलित हैं, सीपीआई (माले) में रहे हैं और संघर्षपूर्ण सियासत का ककहरा जानते हैं. इसलिए आम आदमी पार्टी उनके पीछे पड़ी थी और अंतत: उन्हें मना भी ले गई. 'आप' का बचकाना बयान

संजय सिंह के साथ नवदीप और हरबिंदर. फोटो: दैनिक भास्कर
मामला सामने आने के बाद संजय सिंह ने कहा कि उन्हें हरबिंदर सिंह और नवदीप सिंह के बारे में ठीक से जानकारी नहीं थी. ये समझ से बाहर इसलिए है क्योंकि 'आप' के मानसा से कैंडिडेट नज़र सिंह मंसहिया का बयान था कि ये अच्छा है कि 'दोनों पक्ष पार्टी में एक ही इवेंट में शामिल हुए'. यानी 'आप' इस बात से पूरी तरह वाकिफ थी कि मंच के ऊपर और नीचे कौन बैठा है. और उनके बीच किस तरह का इतिहास रहा है. सच ये है कि 'आप' को साफ़ जानकारी थी, कि नवदीप जाट महासभा का पदाधिकारी है. और यही उसे बंत के ठीक साथ पार्टी में शामिल किए जाने की वजह रही. ताकि ऊंची जात वालों के अन्याय के खिलाफ खड़े सबसे चर्चित दलित चेहरे को शामिल करने से कोई 'समीकरण' न गड़बड़ा जाए. लाज़मी तौर पर बंत को ये पसंद नहीं आया था. बावजूद इस सब के, उन्होंने दिल बड़ा कर के कहा कि 'ये बात अलग है कि मेरी बेटी की जिंदगी खराब करने वाले भी अब आम आदमी पार्टी में हैं, लेकिन मैं अपनी लड़ाई जारी रखूंगा'.
हो-हल्ला होने पर 'आप' ने नवदीप और हरबिंदर को आज पार्टी से निष्कासित कर दिया. लेकिन इस सब से 'आप' अपनी गलती से बच नहीं सकती. उसने साफ़ तौर पर बंत और उनके हमलावरों को उनके काम के चलते नहीं बल्कि उनकी जाति को साधने के लिए पार्टी में शामिल किया.
साफ़ है कि 'नई राजनीति' की बात करने वाली 'आप' न तो दलितों को नज़रंदाज़ करने का जोखिम उठाना चाहती है, न ही इस चक्कर में अगड़ी जातियों को नाराज़ करना चाहती है. लेकिन जिस जल्दबाजी में उसने बंत और उनके गुनहगारों को एक मंच पर लाने की कोशिश की है, वो किसी के लिए भी हैरान करने वाली बात है. राजनीति में दांव पेंच अच्छे लगते हैं, फूहड़ता नहीं. ये सबक 'आप' जितनी जल्दी सीखे, बेहतर है.
ये भी पढ़ें
आम आदमी पार्टी ने दलितों का बहुत बड़ा अपमान किया हैक्यों खुद को आग लगाने को मजबूर हैं पंजाब के टीचर?
पंजाब में दो मुस्लिम लड़के बन गए गोरक्षक
Advertisement