एक SSP, जिसे देश के प्रधानमंत्री नहीं हटा पाए.
एक SSP, जिसे देश के सबसे बड़े दंगों में से एक का जिम्मेदार बताया गया.
उसे नीतीश कुमार ने बिहार पुलिस का मुखिया बनाया है. बिहार का DGP.
नाम है केएस द्विवेदी.
द्विवेदी का किस्सा जानने के लिए, एक दूसरा किस्सा सुनना होगा आपको. उसमें कई लोगों के मरने की कहानी है. बचने की कहानी है. लाश गाड़कर उनके ऊपर सरसों उगाने की कहानी है. सामूहिक कब्र के ऊपर फूलगोभी बोने की कहानी है. द्विवेदी हों कि ये कहानियां हों, सारा संदर्भ भागलपुर दंगे का है.
आगे बढ़ने से पहले ये पढ़िए:
अक्टूबर-नवंबर 1989 में जो भागलपुर दंगा हुआ, उसमें हुए नरसंहार के लिए हम भागलपुर के तत्कालीन सीनियर सुपरिटेंडेंट (SSP) के एस द्विवेदी को जिम्मेदार मानते हैं. 24 अक्टूबर (दंगा शुरू होने की तारीख) से पहले जो हुआ, 24 अक्टूबर और इसके बाद की तारीखों में जो हुआ, उन सबके लिए SSP द्विवेदी पूरी तरह जिम्मेदार हैं. जिस तरीके से उन्होंने मुसलमानों को गिरफ्तार किया और उनकी हिफाजत के लिए पर्याप्त कोशिश नहीं की, उससे साफ पता चलता है कि वो सांप्रदायिक तौर पर मुसलमानों के खिलाफ कितने पक्षपाती हैं.ये जिस रिपोर्ट का अंश है, वो एक सरकारी दस्तावेज का हिस्सा था. बिहार सरकार द्वारा कराई गई जांच का हिस्सा. कृष्ण स्वरूप द्विवेदी ने इस रिपोर्ट में जगह पाई थी. बाद में पटना हाई कोर्ट ने इस हिस्से को निकाल दिया था. द्विवेदी 1984 बैच के IPS ऑफिसर हैं. बिहार कैडर के अधिकारी हैं. क्रम के हिसाब से वो बिहार के 50वें डीजीपी बन गए हैं. अगले 10 महीनों तक वो बिहार पुलिस के मॉनीटर रहेंगे. 31 जनवरी, 2019 को उन्हें रिटायर होना है. के एस द्विवेदी का जिक्र करिए कि भागलपुर दंगों का, एक ही बात है. ये दंगा उनके पूरे करियर की सबसे बड़ी 'उपलब्धि' है. वो इस दंगे के लिए ही पहचाने जाते हैं. दर्जनों दंगा पीड़ितों ने अपने बयान में उनका जिक्र किया. न केवल दंगा, बल्कि इसके पहले की भी उनकी कुछ बातें यादगार हैं. एक वाकया कुछ ऐसा बताया जाता है:
- कमीशन ऑफ इनक्वायरी (CoI) का हिस्सा. पटना हाई कोर्ट ने रिट संख्या 5259 पर फैसला सुनाते हुए इस हिस्से को निकाल दिया था.
दंगे से कुछ समय पहले की बात है. मुहर्रम का मौका था. इस मौके पर के एस द्विवेदी ने एक भाषण दिया था. उन्होंने कहा कि वो भागलपुर को दूसरा कर्बला बना देंगे. इस भाषण में मुस्लिम आबादी के नरसंहार का जिक्र था. इस बयान के बारे में मालूम चलने पर भागलपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी ने के एस द्विवेदी से माफी मांगने को कहा था.मुख्यमंत्री ने लिखा- हटाना चाहता था, हटा नहीं पाया जिस समय ये दंगा हुआ, उस समय बिहार में कांग्रेस की सरकार थी. मुख्यमंत्री थे सत्येंद्र नारायण सिन्हा. दंगे के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. उनकी जगह जगन्नाथ मिश्र को CM बनाया गया. सत्येंद्र नारायण सिन्हा बिहार की राजनीति में 'छोटे साहब' कहकर बुलाए जाते थे. बड़े साहब, यानी उनके पिता थे अनुग्रह नारायण सिन्हा. बिहार के पहले वित्तमंत्री. राजेंद्र बाबू के सहयोगी. सत्येंद्र बाबू ने एक आत्मकथा लिखी- मेरी यादें, मेरी भूलें. इसमें के एस द्विवेदी का भी जिक्र है.

भागलपुर दंगे के समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. उन्हें दिल्ली से भागलपुर आना पड़ा. जो शिकायतें मिली थीं, उसके मुताबिक उन्होंने SSP के एस द्विवेदी को हटाने का आदेश दिया. मगर विहिप और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों ने इसका जमकर विरोध किया. इस वजह से राजीव गांधी को अपना फैसला वापस लेना पड़ा.
राजीव गांधी ने ट्रांसफर ऑर्डर दिया, वो भी वापस लेना पड़ा सत्येंद्र बाबू ने लिखा है कि भागलपुर दंगे के बाद वो के एस द्विवेदी को हटाना चाहते थे. मगर ऐसा हो नहीं पाया. आप सोचेंगे कि मुख्यमंत्री किसी SSP को हटाना चाहे, तो इसमें क्या बड़ी बात है? बात है. क्योंकि CM सत्येंद्र नारायण सिन्हा से पहले भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी के एस द्विवेदी को हटाने की कोशिश की थी. मगर बाद में उन्हें अपना फैसला वापस लेना पड़ा था. इतना ही नहीं. कई दंगा पीड़ित कहते हैं. कि अगर द्विवेदी को हटा दिया गया होता, उनका तबादला कर दिया गया होता, तो कई जानें बच सकती थीं.
भागलपुर दंगे को जाने बिना DGP द्विवेदी को कैसे जानेंगे? इस अधिकारी में ऐसा क्या था कि इतनी बड़ी-बड़ी ताकतें भी उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकीं? इस अधिकारी में ऐसा क्या है कि ऐसे अतीत के बाद भी (भले ही आगे चलकर उन्हें अदालत ने बरी कर दिया हो) उसे बिहार पुलिस का मुखिया बना दिया गया है? इस सवाल का जवाब सवाल में ही छिपा है. माने, अतीत को जाने बिना के एस द्विवेदी की 'अहमियत' को नहीं जाना जा सकता है. भागलपुर दंगे को जाने बिना के एस द्विवेदी के 'आभामंडल को नहीं समझा जा सकता है. इतना ही नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति को समझना है तब भी भागलपुर दंगे को समझना होगा. इसीलिए पेश है भागलपुर दंगे की पूरी कहानी.
24 अक्टूबर , 1989: एक बिसरा दिए गए दंगे की शुरुआत का दिन सर्दियों के मौसम की एक आम सी भोर. बाहर खेतों में धुंध फैली थी. घर के अंदर 29 साल की जमीला बीवी सुबह के काम निपटा रही थीं. खाना. बर्तन. झाड़ू-पोंछा. आंगन भी बुहारना था. उस पर दो छोटे बच्चे. तीन साल की बेटी. और दो साल का बेटा. दोनों रो-रोकर हलकान हुए जा रहे थे. मजाल की एक एक मिनट को चुप हो जाएं. पांच मिनट का काम इन दोनों बच्चों के मारे आधा घंटा ले रहा था. फिर भी, जैसे-तैसे काम निपटा. सुबह के 10 बज आए थे. गुनगुनी सी धूप निकल आई थी. जमीला बच्चों में लग गई थीं. कि तभी मुहम्मद मुर्तजा भागे-भागे घर में घुसे. जमीला ने मुंह घुमाकर शौहर की तरफ देखा. ढलते अक्टूबर में पसीना क्यों चमक रहा है माथे पर? पर इससे पहले कि जमीला कुछ पूछतीं, मुर्तजा की आवाज आई:
दंगे हो गए हैं. जल्दी भागो यहां से.जमीला ने दोनों बच्चों को समेटा और तेज पांव पति के साथ घर से निकल गई. बाकी कुछ साथ नहीं लिया. गहने-जेवर, खाट-कथरी, स्वेटर-कंबल, सब पीछे छूट गया.
दो महीने तक दंगा होता रहा ये भागलपुर दंगों की शुरुआत थी. 1989 के उस साल करीब दो महीने तक भागलपुर जिला जलता रहा. शहर और आसपास के करीब 250 गांव दंगे में झुलसते रहे. सरकारी दस्तावेजों में मरने वालों की गिनती 1,000 पर जाकर रुक जाती है. मगर लोग कहते हैं कि इन दस्तावेजों के बाहर करीब 1,000 लोग और मरे थे. मरने वालों में करीब 93 फीसद मुसलमान थे.
सैकड़ों मरे, कई अपंग हुए, कई बेघर हुए जमीला और मुर्तजा जैसे हजारों लोग बेघर हुए. मगर उनकी किस्मत ने उनको जिंदा छोड़ा. बेघर होना कत्ल कर दिए जाने से तो बेहतर ही है! फिर कई लोग मल्लिका बेगम और बुन्नी बेगम जैसे भी हैं. जिन्हें अपंग बना दिया गया. बुन्नी बेगम को एक भीड़ ने घेर लिया था. नयाबाजार में. दंगे शुरू होने के दो दिन बाद. 26 अक्टूबर, 1989 को. किसी दंगाई ने उनकी गर्दन काटने को अपनी तलवार आगे बढ़ाई. तलवार बढ़कर बुन्नी की गर्दन तक पहुंच गई. कि तभी बुन्नी ने हाथ से तलवार को पकड़ लिया. गर्दन तो बच गई, मगर दो उंगलियां जाती रहीं. दंगाइयों ने सोचा बुन्नी मर गई. फिर उन्होंने बुन्नी की दो बड़ी बहनों- तमीजुल निसा और चंदा बेगम को कत्ल किया. और 15 साल के सचिन की भी हत्या कर दी. बुन्नी के बदन पर उस दिन के निशान अब भी हैं. हथेली में दो कटी उंगलियों का ठूंठ, दाहिने हाथ, बाएं कंधे और गर्दन पर एक बड़े से जख्म का निशान. भागलपुर दंगों को जानने वाले कई लोग उन्हें पहचानते हैं. आठ उंगलियों वाली पीड़िता के रूप में.
'हमसे नहीं, सारे मुसलमानों से नफरत थी' मल्लिका करीब 12-13 साल की रही होंगी उस बरस. उनके गांव का नाम था चंदेरी. एक भीड़ घुस आई थी उनके गांव में. लोगों को घरों से निकाला और एक जगह जमा किया. चारों तरफ से घेर लिया. और सबको मार डाला. करीब 70 लोगों की हत्या हुई. अकेली मल्लिका ही थीं, जो जिंदा बचीं. उनका दाहिना पैर कट गया था. बाद में बस 14 बरस की उम्र में उन्होंने पटना हाई कोर्ट में बयान दिया. उन्होंने कहा था:
हमसे नफरत नहीं थी उनको. उन्हें तो बस मुसलमानों से नफरत थी.'भागलपुर तो झांकी है, बाबरी विध्वंस बाकी है' ये 1989 की बात है. रामजन्मभूमि रथयात्रा शुरू होने से एक साल पहले की बात. और 6 दिसंबर, 1992 को हुए बाबरी विध्वंस से तकरीबन तीन साल पहले का वाकया. ये न हुआ होता, तो शायद बंबई में जो दंगा हुआ वो भी न होता. इन सारी घटनाओं का जिक्र यूं ही नहीं हुआ. इन सारी घटनाओं का गर्भनाल जुड़ा हुआ है. ये एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. तो कह सकते हैं कि अगर भागलपुर दंगों को रोक लिया जाता, या कम से कम उनसे सबक ही सीख लिया जाता, तो बाकी की चीजें न होतीं.
राम मंदिर के लिए ईंटें जमा हो रही थीं उन दिनों राम का माहौल था. कहते हैं, अयोध्या में जिस जगह पर बाबरी मस्जिद है, ठीक उसी जगह पर रामलला पैदा हुए थे. वहां रामजन्मभूमि मंदिर भी था. और बाबर ने इस मंदिर तो तुड़वाकर वहां मस्जिद बनाई. तो अब बाबरी मस्जिद को हटाकर वहां राम का एक विशाल मंदिर बनाने की बात चल रही थी. बीड़ा पान लेकर चल रहे विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बीजेपी. विहिप पूरे देश में घूम-घूमकर चंदा इकट्ठा कर रही थी. लोग ईंटें दे रहे थे. ईंटे, जो मंदिर में लगनी थीं. जगह-जगह पर हवन-पूजा करवाए जा रहे थे. सांप्रदायिक माहौल गर्माया हुआ था.
अगस्त में दंगा होते-होते रह गया था तो ऐसे दिन-ऐसी रात में तय हुआ कि 24 अक्टूबर को भागलपुर में रामशिला जुलूस निकलेगा. जुलूस के रूट पर प्रशासन ने मुहर लगाई. दो महीने पहले अगस्त में विषहरी माई का जुलूस निकला था. विषहरी माई इधर की लोकदेवी थीं. जैसे कुलदेवता होते हैं, वैसे ही लोकदेवी होती हैं. हर साल निकलता था विषहरी माई का जुलूस. लोग गीत गाते थे. त्योहार सा माहौल होता था. मगर 1989 में जब ये जुलूस निकला, तो इसका रंग बदला हुआ था. जुलूस में कई जगहों पर भड़काऊ नारेबाजी भी हुई थी. दंगा होते-होते बचा था. इन बातों को मद्देनजर रखते हुए प्रशासन को अतिरिक्त सतर्कता बरतने के निर्देश दिए गए थे. ध्यान रखा गया था कि मुस्लिम बहुल इलाकों से गुजरते समय कोई ऐसी हरकत न हो कि तनाव बढ़े.
'बच्चा-बच्चा राम का, बाकी सब हराम का' तय दिन पर जुलूस निकला. पुलिस का एक बड़ा दस्ता साथ था. जुलूस मुस्लिम बहुल तातारपुर इलाके में पहुंच चुका था. कहते हैं कि जुलूस ने भड़काऊ नारे लगाए. बच्चा-बच्चा राम का, बाकी सब हराम का. कि तभी एकाएक जुलूस के ऊपर ईंट-पत्थर फेंके जाने लगे. एक छोटा बम भी फेंका गया. किसी की जान नहीं गई, मगर जो होना था हो गया था. दंगा शुरू हो गया. जुलूस पर पत्थर और बम फेंका जाना गलत था. गनीमत थी कि किसी की मौत नहीं हुई. मगर पुलिस तो पुलिस होती है. वो बदला नहीं लेती? मगर भागलपुर में लोगों ने पुलिस का अलग ही रूप देखा. पुलिस ने फायरिंग की. खोज-खोजकर लोगों को मारने लगी. गाना है एक:
चिंगारी कोई भड़के, तो सावन उसे बुझाए सावन जो आग लगाए, उसे कौन बुझाए?अफवाह फैला कि हिंदू मारे गए, मरे मुसलमान थे इसी तर्ज पर सोचिए. जिस पुलिस के ऊपर दंगे रोकने की जिम्मेदारी है, जान बचाने की जिम्मेदारी है, वो ऐसे संवेग में आ जाए तो कौन किसको बचाएगा? आग में घी डाला एक अफवाह ने. किसी ने कहा कि परवत्ती में एक कुएं के अंदर लाशें मिलीं. 200 लाशें. टुकड़ों में कटी हुईं. कि ये लाशें हिंदुओं की हैं. एक मुंह से निकली बात पूरे शहर में फैल गई. अफवाह ने उत्तेजना बढ़ाई. हिंदू भड़क गए. इस अफवाह ने दंगों की हिंसा को कई गुना बढ़ा दिया. बाद में पता चला कि ये हिंदुओं की लाशें नहीं थीं. ये एक मुहम्मद जावेद का परिवार था. परिवार के 12 सदस्यों को मारकर टुकड़े-टुकड़े किया गया. फिर उन्हें कुएं में फेंक दिया. बाद में उन टुकड़ों को बीएसफ ले गई. जांच के लिए. जावेद को वो टुकड़े तक नहीं मिले. कत्ल किए गए उन लोगों का कभी अंतिम संस्कार तक नहीं हो सका.
पुलिस पुलिस नहीं रही, हिंदू बन गई दो महीने तक भागलपुर जिले में बेहिसाब हिंसा हुई. सैकड़ों लोग मारे गए. 50,000 से ज्यादा लोग बेघर हुए. आसपास के 250 गांवों में हिंसा फैल गई. मुसलमान बहुल इलाकों की पहचान करके उन्हें निशाना बनाया गया. 27 मार्च को दंगा रोकने के लिए सेना बुलाई गई. बीएसएफ को भी बुलाया गया. सेना और बीएसएफ लोकल इनपुट के लिए पुलिस पर निर्भर थे. लेकिन असली खेल यहीं था. क्योंकि पुलिस और स्थानीय प्रशासन की भूमिका बहुत पक्षपाती रही.
पुलिस ने सेना और बीएसएफ को भी गुमराह किया जांच रिपोर्टों ने पाया कि न केवल पुलिस दंगे रोकने में पूरी तरह नाकामयाब रही, बल्कि कई मौकों पर पुलिस ने दंगाइयों की मदद की. पीड़ित मुसलमानों की मदद नहीं की. शिकायत मिलने पर भी आंख मूंदकर बैठे रहे. कई ऐसे मौके आए जब स्थानीय पुलिस ने सेना और बीएसएफ को गुमराह किया. जान-बूझकर उन्हें भटकाया. जिन मुस्लिम-बहुल गांवों पर हमले हो रहे थे, वहां आर्मी और बीएसएफ को न भेजकर उन्हें किसी और ही गांव में भेज दिया. हिंदू दंगाई हिंसा करते रहे और पुलिस ने उन्हें ऐसा करने दिया. आजाद हिंदुस्तान में शायद ये पहली बार था जब पुलिस पुलिस नहीं रही, हिंदू बन गई.

ये 1984 में हुए सिख दंगों की एक तस्वीर है. 84 के दंगों पर बाद में काफी राजनीति हुई. इसे लेकर ज्यादा जागरूकता है. भागलपुर दंगों के साथ ऐसा नहीं है. इस दंगे ने बिहार की राजनीति को तो बदला, मगर दंगा पीड़ितों के साथ न्याय की मांग कभी बड़ा मुद्दा नहीं बन सकी.
भागलपुर दंगे में हुई हिंसा की कुछ झलकियां देखिए:
- भागलपुर के दक्षिण में एक गांव है. लोगाइन. यहां 25 घरों को एक छोटा टोला सा था. 27 अक्टूबर को दंगाइयों ने इस समूचे टोले का कत्ल कर दिया. फिर लाशों को खेत में गाड़ दिया. इस नरसंहार की किसी को भनक न लगे, इसकी भी तरकीब भिड़ाई. उस खेत के ऊपर सरसों के बीज छींट दिए. जल्द ही वो बीज बढ़कर पौधे बन गए. लाशें शायद हमेशा के लिए छुपी रहतीं. अगर कुत्तों ने मिट्टी में दबी लाशों को खोद न लिया होता. कुत्ते, चील और गिद्ध वहां जुटने लगे. वो सड़े मांस पर दावत उड़ा रहे थे. इसी दावत ने लोगाइन जनसंहार का भंडा फोड़ा. करीब एक महीने बाद लोगों को लोगाइन का सच पता चला. 8 दिसंबर को वहां खुदाई हुई. तब जाकर लाशें मिलीं. तत्कालीन अडिशनल DIG अजीत दत्त ने अपनी रिपोर्ट में कहा. कि लोगाइन नरसंहार के अगले दिन, यानी 28 अक्टूबर को पुलिस लोगाइन आई थी. मगर उसने नरसंहार की बात दबा दी. उल्टे अपराधियों की मदद की. ताकि वो लाशों को छुपा सकें. दत्त की रिपोर्ट के आधार पर 14 लोगों के खिलाफ केस दर्ज हुआ. इनमें दो पुलिसवाले भी शामिल थे.
- ए के सिंह उस समय भागलपुर के अडिशनल डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट थे. उन्होंने दंगे के बाद एक रिपोर्ट तैयार की. इसमें एक घटना का जिक्र था. ए के सिंह ने लिखा: दंगे के समय भागलपुर के अडिशनल डीआईजी थे अजीत दत्त. चार मुसलमान उनके साथ चारहा बारागांव गए थे. ताकि अपने घर से जमा-पूंजी निकाल सकें. डीआई दत्त उन्हें पुलिस सुरक्षा में वहां ले गए. मगर वो हमेशा के लिए तो वहां नहीं रुक सकते थे. जैसे ही डीआईजी वहां से हटे, भीड़ ने चारों मुसलमानों को पीट-पीटकर मार डाला. मरने वालों में से एक को पोलियो था. दो बुजुर्ग महिलाएं भी थीं. जब ये सब हुआ, तब असिस्टेंट सीनियर इंस्पेक्टर (ASI) आर एन झा और कुछ पुलिसवाले वहीं खड़े. अपनी आंखों से ये लिंचिंग होते हुए देख रहे थे. वो चारों मुसलमान अपनी जान बचाने की नामुमकिन सी कोशिश कर रहे थे. और ये पुलिसवाले उनको देखते हुए हंस रहे थे.
- भागलपुर में एक गांव है. चंदेरी. वहां भयंकर नरसंहार हुआ. गांव की मुस्लिम आबादी डरी हुई थी. सोचा, साथ रहेंगे तो बच जाएंगे. सब के सब एक घर में जमा हो गए. भीड़ आई. रात ही रात में करीब 70 लोगों को कत्ल कर दिया. इस नरसंहार से कुछ घंटे पहले वहां सेना आई थी. स्थानीय पुलिस ने सेना से कहा कि आगे जाइए. यहां हम संभाल लेंगे. आश्वासन मिलने के बाद सेना चली गई. उनके जाने के बाद ये नरसंहार हुआ. कहते हैं कि पुलिस भी दंगाइयों के साथ मिल गई थी.
- परवत्ती और तिमोनी गांव में रह रहे मुस्लिम दंगे के डर से भाग गए. दंगाइयों ने उनके घरों को लूटा. उनमें आग लगा दी. जो मुसलमान पीछे रह गए थे, उन्हें काट डाला गया. भीड़ ने न बच्चों पर रहम किया, न औरतों पर और न बुजुर्गों पर.
- मुहम्मद इल्याज के साथ 38 और लोग थे. सारे मर्द. उन्हें पुलिस ने जमा किया था. कमीशन ऑफ इन्क्वायरी के मुताबिक, 'जिस तरह से पुलिस ने घरों में घुसकर तलाशी ली और मुसलमानों को जमा किया, वो वैसा ही था जैसा जर्मनी में नाजी पुलिस यहूदियों के साथ करती थी.' इल्याज और बाकियों को पुलिस एक चौकी पर ले गई. वहां करीब एक घंटे तक उन्हें खूब पीटा. घुटने के बल बिठाया. प्यासा रखा. खूब बदसलूकी की. पुलिस उन्हें कोस रही थी. कह रही थी कि दंगा शुरू क्यों किया. भला हो कुछ पुलिसवालों का. जिन्होंने दया की और इन लोगों को भागलपुर सेंट्रल जेल पहुंचाया. बाहर रहते तो शायद मारे जाते. जेल में थे, सो बच गए.
- वासिफ अली भागलपुर के परवत्ती गांव में रहते थे. अग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में प्रफेसर थे. दंगे की वजह से उन्हें अपने परिवार को लेकर भागना पड़ा. पिता बूढ़े थे. भाग नहीं सकते थे. वासिफ उन्हें घर में ही छोड़कर चले गए. तीन बाद सेना और बीएसएफ के साथ अपने गांव लौटे. घर के अंदर घुसे. उनके बूढ़े पिता की लाश पड़ी थी वहां. बिस्तर पर बिछाए जाने वाले गद्दे में लिपटी हुई. साथ में जो बीएसएफ कमांडर था, उसने भी ये सब देखा. कमांडर के मुंह से निकला- इन लोगों (दंगाइयों) में रत्तीभर भी दया नहीं. न बच्चों के लिए, न औरतों के लिए, न बूढ़ों के लिए. सबको मार रहे हैं.
- लोगाइन में करीब 118 लोगों को कत्ल किया गया. चंदेरी में लगभग 70 लोग मारे गए. भाटोरिया में 85 लोगों को मार डाला गया. रासलपुर में करीब 30 लोग मरे. सीलमपुर-अमनपुर में मरने वालों की तादाद 77 के करीब है. लोगाइन में तो मुस्लिम बचे ही नहीं. पूरे गांव में बस एक परिवार बचा रह गया. दंगे के दौरान सबसे ज्यादा भुगतने वाले गांव थे ये.
- शाह बानो भागलपुर शहर में रहती थीं. उन्होंने बयान दिया था कि जब दंगाई उनके घर में घुसे, तब पुलिस वहां मौजूद थी. चुपचाप तमाशा देख रही थी. शाह बानो के मुताबिक, पुलिस दंगाइयों को भड़का रही थी. उन्होंने स्थानीय SHO को कहते हुए सुना कि एक भी मुसलमान बचना नहीं चाहिए. जब जिंदा बचे लोग भागकर पुलिस थाने पहुंचे, तो पुलिसवाले उल्टे उनके ऊपर ही चिल्लाने लगे. फिर उनको गाड़ी में भरा और मारवाड़ी स्कूल राहत शिविर पर छोड़कर चले गए. दंगाई भीड़ शाह बानो की मां और दादी को घसीटते हुए बुद्धनाथ मंदिर चौक तक ले गई. कोतवाली पुलिस थाना यहां से बस आधा किलोमीटर दूर है. पर पुलिस नहीं आई. भीड़ ने शाह बानो की मां, दादी और दादा को मार डाला. उनकी 75 साल की नानी को भीड़ ने खटिया से बांध दिया. और आग लगा दी. घर जला. खटिया जली. और खटिया पर बंधी शाह बानो की नानी भी जल गईं.
- बीवी फरीदा नाथनगर गांव के नुरपुर मुहल्ले में रहती थीं. उनका छोटा बेटा अशरफ बस 20 साल का था. दंगे में अशरफ मारा गया. उनके बड़े बेटे असद को भी गोली लगी थी. मगर वो बच गया. ये 25 अक्टूबर, 1989 का दिन था. दंगा शुरू होने के एक दिन बाद. बीवी फरीदा ने भी अपने बयान में एक पुलिसवाले का जिक्र किया था. जो कि दंगाई भीड़ से कह रहा था, बस लूटो मत. मुसलमानों को मार डालो. पुलिसवाले जैसे हिंदू बन गए थे. मुसलमान भी थे पुलिस में. उन्होंने दंगाइयों को रोकने की कोशिश भी की. मगर तादाद में कम होने की वजह से बेअसर रहे.
- मुहम्मद इकबाल रामपुर गांव में रहते थे. करीब 150 गज की दूरी पर खड़े थे वो, जब उन्होंने देखा कि एक दंगाई भीड़ उनके भतीजे सलीम को मार रही है. उसके सिर पर कुल्हाड़ी और हंसिया से वार कर रही है. फिर भीड़ की नजर इकबाल और उनके साथ खड़े लोगों पर गई. और भीड़ उनके पीछे दौड़ी. ये लोग भागकर पुलिस के पास पहुंचे. उनसे मदद मांगी. मगर पुलिस ने कोई मदद नहीं की. मजबूर होकर इकबाल और उनके साथी जान बचाने की खातिर तैरकर नदी पार कर गए. नदी के उस किनारे इकबाल थे. और नदी के इस किनारे पर भीड़ ने उनके भतीजे सलीम को कत्ल करके उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए. और फिर उन टुकड़ों को नदी में फेंक दिया. बाद में इकबाल और उनके साथ के एक आदिल नाम के शख्स ने बांका कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई. इन लोगों को पुलिस पर रत्तीभर भरोसा नहीं था. मगर अदालत पर यकीन था. आदिल और इकबाल के दो हिंदू दोस्तों ने भी उनके पक्ष में बयान दिया. 11 दिसंबर, 1989 को अदालत ने उनके आवेदन को मंजूर किया. केस दर्ज हुआ. आदिल और इकबाल ने अदालत में कहा कि पुलिस और दंगाइयों में कोई फर्क नहीं बचा था.
मुसलमान जान से भी गए, माल से भी गए सबसे ज्यादा नुकसान हुआ मुसलमानों का. जान का भी. माल का भी. भागलपुर में सिल्क का कारोबार होता है. 125 साल से भी ज्यादा वक्त से वहां सिल्क का कामकाज हो रहा है. पैसा लगाने वाले ज्यादातर हिंदू हैं. मारवाड़ी समुदाय के. मगर कामगरों में अधिकतर मुसलमान हैं. 1989 में भी ऐसा ही था. हां, कई मुसलमान ऐसे भी थे जिनके पास अपना हैंडलूम था. दंगाइयों ने करीब 1,700 हथकरघाओं को आग लगा दी. दंगे ने न केवल लोगों को मारा, बल्कि बड़ी संख्या में मुस्लिम जुलाहों को बेकार भी कर दिया. कभी जिनके पास अपना हैंडलूम हुआ करता था, वो दंगे के बाद मजदूरी करने लगे. किसी और के पावरलूम पर दिहाड़ी करने लगे. दंगे के बाद अगले कई सालों तक कारोबार उबर नहीं पाया.
'दंगे के लिए SSP के एस द्विवेदी जिम्मेदार हैं' राज्य सरकार ने बाद में इन दंगों की जांच कराई. पहली जांच हुई जस्टिस राम चंद्र प्रसाद सिन्हा और एस शम्सुल हसन के नेतृत्व में. इस रिपोर्ट ने सांप्रदायिक संगठनों और मीडिया के कुछ धड़ों को अफवाह फैलाने का दोषी पाया. कहा गया कि प्रशासन बिल्कुल नकारा साबित हुआ. ऐसा लग रहा था कि लोगों की मौतों से पुलिस-प्रशासन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है. ये सवाल भी किया कि सांप्रदायिक तनाव की आशंका के बावजूद रामशिला जुलूस को तातारपुर से गुजरने की परमिशन क्यों दी गई. जांच रिपोर्ट ने SSP के एस द्विवेदी को दंगे के लिए जिम्मेदार माना. राजीव गांधी द्वारा द्विवेदी का ट्रांसफर किए जाने के खिलाफ विहिप और बीजेपी ने जो हंगामा किया था, उसको भी के एस द्विवेदी के सांप्रदायिक झुकाव का सबूत माना गया. उनके अलावा जिला प्रशासन के भी कई अधिकारियों को प्रशासनिक चूक का जिम्मेदार ठहराया गया.
'भारत का भरोसा जीतना है, तो ISI से रिश्ता तोड़ दो' एक और जांच करवाई राज्य सरकार ने. जस्टिस आर एन प्रसाद से इसके इनचार्च. उनकी रिपोर्ट में भारत के मुसलमानों के लिए उपदेश की घुट्टी थी. कि अगर आप चाहते हैं कि हिंदुस्तान के लोग आपके ऊपर फिर से भरोसा करें, तो आपको ISI एजेंट्स के साथ अपने संबंध तोड़ देने चाहिए. दो महीने तक ये दंगा चलता रहा. इसके बावजूद जस्टिस प्रसाद ने प्रशासन को क्लीन चिट दे दी. इन दोनों ही रिपोर्टों में मरने वालों की संख्या का जिक्र नहीं किया गया था.
क्या दंगे के पीछे भागलपुर के गैंगवॉर का हाथ था? इस दंगे की एक और थिअरी थी. गैंगवॉर. भागलपुर में उस समय कई गैंग सक्रिय थे. सबसे मजबूत तीन गैंग थे- माधो मंडल गैंग. कामेश्वर यादव गैंग. और राम चंद्रा रमण गैंग. आरोप लगा कि इन गिरोहों ने दंगे की साजिश रची. मुसलमानों की तरफ से भी कुछ गैंग थे. एक था अंसारी गैंग. गिरोहों में भी हिंदू-मुस्लिम की स्थिति थी. उस समय भागलपुर में खूब गैंगवॉर हुआ करता था. दंगे के बाद जब विधानसभा चुनाव हुए, तो माधो मंडल, कामेश्वर यादव और राम चंद्र रमण तीनों चुनाव में उतरे. उन्हें सपोर्ट कर रही थी विहिप. कई साल बाद आगे चलकर कामेश्वर यादव को सजा सुनाई गई.

सत्येंद्र नारायण सिन्हा बड़े कद के नेता थे. उन्हें अंदाजा नहीं होगा कि ये दंगा उनकी CM की कुर्सी छीन लेगा. ये सत्येंद्र बाबू के निधन के बाद की तस्वीर है.
सत्येंद्र नारायण सिन्हा को CM की कुर्सी छोड़नी पड़ी इस दंगे की वजह से मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा को कुर्सी छोड़नी पड़ी. उनकी जगह ललित नारायण मिश्र के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र को CM बनाया गया. कांग्रेस को लगा कि इतने भर से मुसलमान उसे माफ कर देंगे. मगर ऐसा नहीं हुआ. मुस्लिम कांग्रेस का परंपरागत वोटर था. मगर इस दंगे के बाद स्थितियां बदल गईं.
दंगे के पीछे पार्टियों का राजनैतिक लालच जिम्मेदार था भागलपुर में ये नौबत क्यों आई? विषहरी माई के जुलूस में सांप्रदायिक तनाव साफ दिख रहा था. फिर रामशिला जुलूस के समय एहतियात क्यों नहीं बरता गया? इसका जवाब है राजनैतिक लालच. क्या थे ये लालच और इसका क्या नतीजा निकला, इसकी बात अगली किश्त में करेंगे. ये जिक्र भी होगा कि के एस द्विवेदी को DGP बनाकर बीजेपी-नीतीश सरकार ने कैसा मास्टरस्ट्रोक खेला है.
अगले किश्त में मिलेंगे हम आपसे. मगर हम आपको ऐसे नहीं छोड़ सकते. इन तमाम मायूसियों, इस खून-खराबे के अतीत में एक सिल्वर लाइनिंग भी खोज लाए हैं हम आपके लिए. इसको पढ़िए. थोड़ी राहत मिलेगी.
अलीम अंसारी. दयानंद झा. एक मुसलमान. दूसरा मैथिल ब्राह्मण. दोनों बचपन के दोस्त. दोनों दरभंगा के एक स्कूल में साथ पढ़े. कॉलेज भी साथ गए. फिर 1989 का ये भागलपुर दंगा हुआ. अलीम अंसारी कुछ हफ्तों तक अपने गांव में फंस गए. घर में बीमार मां थी. उन्हें दवा की जरूरत थी. बच्चे छोटे थे. दूध मांगते थे. दवाई और दूध कहां से आए. घर में तो राशन भी खत्म हो चुका था. बाहर मौत बंट रही थी. ऐसे में बाजार कौन जाए? फिर क्या हुआ? दोस्त दोस्त के काम आया. करीब एक महीने तक दयानंद झा रोजाना अलीम अंसारी के घर पहुंचते. राशन और बाकी जरूरी चीजें लेकर. लोगों ने उन्हें भी धमकाया. ताना दिया. कहा, मुस्लिम की मदद करते हो? दंगे के वक्त जब मजहबों की जंग हो रही होती है, तब दूसरे मजहब के किसी इंसान की मदद करने वाला अपने मजहब का आदमी भी दुश्मन बन जाता है. मगर दयानंद झा पीछे नहीं हटे. पूरी दोस्ती निभाई. अब अंसारी परिवार और झा परिवार एक परिवार बन गए हैं. वो दोस्त कम, भाई ज्यादा बन गए हैं.
नोट: के एस द्विवेदी अपने ऊपर लग रहे आरोपों के खिलाफ अदालत गए थे. हाई कोर्ट ने उन्हें बरी भी कर दिया था. ऊपर जिन आरोपों का जिक्र है, वो अदालत के आदेश के पहले की बात है. हां, कई पीड़ित अब भी उन्हें दोष देते हैं.
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