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छत्रपति शिवाजी महाराज की औरंगजेब के बारे में कौनसी भविष्यवाणी सही साबित हुई

औरंगज़ेब ने सोचा था कि संभाजी की मौत के बाद मराठा साम्राज्य ख़त्म हो जाएगा और उस पर काबू पा लेना मुमकिन होगा. लेकिन हुआ उलट. संभाजी के जीते जी जो मराठा सरदार बिखरे-बिखरे थे, वो उनकी मौत के बाद एक होकर लड़ने लगे. इसके चलते औरंगज़ेब का दक्कन पर काबिज़ होने का सपना मरते दम तक नहीं पूरा हो सका. और जैसा कि संभाजी ने कहा था औरंगज़ेब को दक्कन में ही दफ़न होना पड़ा.

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संभाजी महाराज और उन पर लिखा उपन्यास, महासम्राट.

मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का चौथा बेटा. नाम अकबर. साहिबजादे ने औरंगज़ेब के खिलाफ बगावत कर दी. अकबर गया और दक्कन में डेरा जमा लिया. पीछे -पीछे औरंगज़ेब भी चले. और औरंगाबाद में दरबार सजा लिया. अकबर ने बचने का कोई रास्ता न देख मदद मांगी मराठाओं से. छत्रपति संभाजी महाराज ने अकबर को न सिर्फ आसरा दिया. बल्कि एक खत लिखा. ये खत अकबर की बहन के नाम था. लेकिन औरंगज़ेब के हाथ लग गया. लिखा था,

“बादशाह को दिल्ली लौट जाना चाहिए. एक बार हम और हमारे पिता उनके कब्ज़े से छूट कर दिखा चुके हैं. लेकिन अगर वो यूं ही ज़िद पर अड़े रहे, तो हमारे कब्ज़े से छूट कर दिल्ली नहीं जा पाएंगे. अगर उनकी यही इच्छा है तो उन्हें दक्कन में ही अपनी कब्र के लिए जगह ढूंढ लेनी चाहिए.”

संभाजी का कहा बाद में सच साबित हुआ. औरंगज़ेब दिल्ली नहीं लौट पाए और मौत के बाद उन्हें दक्कन में ही दफनाया गया.

तारीख़ में आज आप पढ़ेंगे कहानी छत्रपति संभाजी महाराज की.
 

संभाजी महाराज (फोटो/विकिपीडिया)


संभाजी राजे. मराठा साम्राज्य की नींव रखने वाले मराठा शासक छत्रपति शिवाजी महाराज के सबसे बड़े सुपुत्र. संभाजी राजे का जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर किले पर हुआ. ये पुणे से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर है. वो शिवाजी महाराज की पहली और प्रिय पत्नी सईबाई के बेटे थे. वो महज़ दो साल के थे जब उनकी मां की मौत हो गई, जिसके चलते उनकी परवरिश उनकी दादी जिजाबाई ने की. जब संभाजी नौ साल के थे तब उन्हें एक समझौते के तहत राजपूत राजा जय सिंह के यहां बंदी के तौर पर रहना पड़ा था. जब शिवाजी महाराज औरंगज़ेब को चकमा देकर आगरा से भागे थे तब संभाजी उनके साथ ही थे.

बहरहाल आगरा से निकलने के बाद, उनकी जान को ख़तरा भांप कर शिवाजी महाराज ने संभाजी राजे को अपने रिश्तेदार के घर मथुरा छोड़ दिया. और उनके मरने की अफवाह फैला दी. कुछ दिनों बाद वो महाराष्ट्र सही-सलामत पहुंचे. संभाजी के बारे में कहा जाता है कि वो शुरू से ही रिबेल टाइप के थे. यही वजह रही कि 1678 में शिवाजी महाराज ने उन्हें पन्हाला किले में भेज दिया था. वहां से वो अपनी पत्नी के साथ भाग निकले. लगभग एक साल तक मुग़लों के साथ रहे. एक दिन उन्हें पता चला कि मुग़ल सरदार दिलेर ख़ान उन्हें गिरफ्तार कर के दिल्ली भिजवाने का मंसूबा बना रहा है. वो मुग़लों का साथ छोड़ के महाराष्ट्र लौट आए. लौटने के बाद भी उनकी किस्मत अलग नहीं रही और उन्हें फिर से पन्हाला भेज दिया गया.

अप्रैल 1680 में जब शिवाजी महाराज की मौत हुई, संभाजी पन्हाला में ही कैद थे. शिवाजी महाराज के दूसरे बेटे राजाराम को सिंहासन पर बिठाया गया. ख़बर लगते ही संभाजी राजे ने अपनी मुक्ति का अभियान प्लान किया. कुछ शुभचिंतकों के साथ मिल कर उन्होंने पन्हाला के किलेदार को मार डाला और किले पर कब्ज़ा कर लिया. उसके बाद 18 जून 1680 को रायगढ़ का किला भी कब्ज़ा लिया. राजाराम, उनकी बीवी जानकी और उनकी मां सोयराबाई को गिरफ्तार किया गया. इसके बाद 20 जुलाई 1680 को संभाजी की ताजपोशी हुई.

छत्रपति संभाजी राजे ने महाराज बनने के बाद अपने पिता की मुहीम आगे बढ़ाई और मुग़ल फौज की नाक में दम करना शुरू कर दिया. उन्होंने मराठा फौज लेकर बुरहानपुर शहर पर हमला किया और उसे बरबाद कर के रख दिया. शहर की सुरक्षा के लिए रखी गई मुग़ल सेना के परखच्चे उड़ा दिए. शहर को आग के हवाले कर दिया. इसके बाद से मुग़लों से उनकी खुली दुश्मनी रही.

संभाजी कैसे राजा थे? ये सवाल हमने पूछा मराठा इतिहास के विशेषज्ञ और छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर मराठी भाषा में महासम्राट नाम का उपन्यास लिखने वाले विश्वास पाटील से.  हिन्दी में इस उपन्यास के पहले खंड “झंझावत” को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. उन्होंने बताया, 

“औरंगजेब की बहुत बड़ी सेना दक्कन पर हमला करने आ रही थी. जिसमें चार लाख जानवर और पांच लाख फौजी थे. जिसे रोकने की जिम्मेदारी संभाजी राजा की थी. और उन्होंने इस फ़र्ज़ को निभाया. जब वे गद्दी पर बैठे तब वे बस 22 बरस के थे. और जब उनका देहांत हुआ, वे सिर्फ 32 बरस के थे. लेकिन सिर्फ नौ-दस बरस में ही उन्होंने ऐतिहासिक काम किया.”

विश्वास पाटील के उपन्यास का पहला खंड, झंझावत.

बहरहाल आगे बढ़ते हुए जानिए कि 1687 में मराठा फ़ौज की मुग़लों से एक भयंकर लड़ाई हुई. हालांकि जीत मराठों के ही हाथ लगी, लेकिन उनकी सेना बहुत कमज़ोर हो गई. यही नहीं उनके सेनापति और संभाजी के विश्वासपात्र हंबीरराव मोहिते की इस लड़ाई में मौत हो गई. संभाजी राजे के खिलाफ़ षड्यंत्रों का बाज़ार गर्म होने लगा. उनकी जासूसी की जाने लगी. उनके रिश्तेदार शिर्के परिवार की इसमें बड़ी भूमिका थी.

फ़रवरी 1689 में जब संभाजी एक बैठक के लिए संगमेश्वर पहुंचे, तो वहां उनपर घात लगा कर हमला किया गया. मुग़ल सरदार मुक़र्रब ख़ान की अगुआई में संभाजी के सभी सरदारों को मार डाला गया. उन्हें और उनके सलाहकार कविकलश को पकड़ कर बहादुरगढ़ ले जाया गया. औरंगज़ेब ने संभाजी के सामने एक प्रस्ताव रखा. सारे किले औरंगज़ेब को सौंप कर इस्लाम कबूल करने का प्रस्ताव. इसे मान लिया जाने पर उनकी जानबख्शी करने का वादा किया. संभाजी राजे ने इस प्रस्ताव को मानने से साफ़ इंकार कर दिया. इसके बाद शुरू हुआ टॉर्चर और बेइज्ज़ती का दौर.

कहते हैं कि इस्लाम कबूलने से इंकार करने के बाद संभाजी राजे और कविकलश को जोकरों वाली पोशाक पहना कर पूरे शहर भर में परेड कराई गई. पूरे रास्ते भर उन पर पत्थरों की बरसात की गई. भाले चुभाए गए. उसके बाद उन्हें फिर से इस्लाम कबूलने के लिए कहा गया. फिर से इंकार करने पर और ज़्यादा यातनाएं दी गई. दोनों कैदियों की ज़ुबान कटवा दी गई. आंखें निकाल ली गई.

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यूरोपियन इतिहासकार डेनिस किनकैड़ लिखते हैं,

“बादशाह ने उनको इस्लाम कबूलने का हुक्म दिया. इंकार करने पर उनको बुरी तरह पीटा गया. दोबारा पूछने पर भी संभाजी ने इंकार ही किया. इस बार उनकी ज़ुबान खींच ली गई. एक बार फिर से पूछा गया. संभाजी ने लिखने की सामग्री मंगवाई और लिखा, ‘अगर बादशाह अपनी बेटी भी दे, तब भी नहीं करूंगा’. इसके बाद उनको तड़पा-तड़पा कर मार डाला गया.”
11 मार्च 1689 को उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के उनकी जान ली गई. इस वक़्त की एक किवंदती महाराष्ट्र में बेहद मशहूर है. कहते हैं कि मार डालने से जस्ट पहले औरंगज़ेब ने संभाजी राजे से कहा था, “अगर मेरे चार बेटों में से एक भी तुम्हारे जैसा होता, तो सारा हिंदुस्तान कब का मुग़ल सल्तनत में समा चुका होता.”

कुछ लोगों के मुताबिक़ उनकी लाश के टुकड़ों को तुलापुर की नदी में फेंक दिया गया. वहां से उन्हें कुछ लोगों ने निकाला और उनके जिस्म को सी कर उसका अंतिम संस्कार कर दिया.

औरंगज़ेब ने सोचा था कि संभाजी की मौत के बाद मराठा साम्राज्य ख़त्म हो जाएगा और उस पर काबू पा लेना मुमकिन होगा. लेकिन हुआ उलट. संभाजी के जीते जी जो मराठा सरदार बिखरे-बिखरे थे, वो उनकी मौत के बाद एक होकर लड़ने लगे. इसके चलते औरंगज़ेब का दक्कन पर काबिज़ होने का सपना मरते दम तक नहीं पूरा हो सका. और जैसा कि संभाजी ने कहा था औरंगज़ेब को दक्कन में ही दफ़न होना पड़ा.

छत्रपति संभाजी राजे का रोल मराठा इतिहास में काफी प्रमुख है.  उन पर मराठी साहित्य में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. जिनमें शिवाजी सावंत का लिखा उपन्यास ‘छावा’ बेहद उम्दा है. छावा यानी शेर का शावक. आज भी महाराष्ट्र में संभाजी राजे की छवि शेर के बच्चे की ही है.

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