
1956 में अपनी कविताएं सुनाते मैथिली शरण गुप्त. (फोटो - इंडियन हिस्ट्री पिक्स/ट्विटर)
आज मैथिली शरण गुप्त जी का जन्मदिवस है. इस मौके पर पढ़िए उनकी कविता -
अर्जुन की प्रतिज्ञा
उस काल मारे क्रोध के तन कांपने उसका लगा, मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा. मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ, प्रलयार्थ उनके मिस वहां क्या काल ही क्रोधित हुआ?
युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से, अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से. निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही, तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही.
साक्षी रहे संसार करता हूं प्रतिज्ञा पार्थ मैं, पूरा करूंगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं. जो एक बालक को कपट से मार हंसते हैं अभी, वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी.
अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है, इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है, उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है, उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है.
उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है, पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है. अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूं न मैं, तो सत्य कहता हूं कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूं न मैं.
अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही, साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही. सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूं, तो शपथ करता हूं स्वयं मैं ही अनल में जल मरूं.