एफसीसी के फैसले से चीन को होगा भारी नुकसान
अमेरिकी कम्यूनिकेशन कमीशन या एफसीसी वह संस्था है, जो अमेरिका में इंटरनेट को रेग्युलेट करती है. यह एक स्वतंत्र संस्था है और इसका काम यह सुनिश्चित करना है कि सभी अमेरिकी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव और डर के इंटरनेट की सुविधा मिले. यह संस्था ही अमेरिका में इंटरनेट के विस्तार के लिए इस्तेमाल होने वाली तकनीक पर भी नजर रखती है. इस संस्था ने 30 जून को जारी किए गए अपने फैसले में कहा है कि उसने पाया कि ज़ीटीई और हुआवेई के तार चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी और सेना के साथ जुड़े हुए हैं. ऐसे में किसी भी ऐसी कंपनी को अमेरिका में 5जी इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने का काम नहीं दिया जा सकता.
यह बैन सिर्फ इन कंपनियों पर ही नहीं, बल्कि इनकी सहयोगी या इन कंपनियों के इन्वेस्टमेंट वाली हर कंपनी पर लागू होगा. इस फैसले के बाद एफसीसी के यूनिवर्सल सर्विस फंड के 8.3 बिलियन डॉलर में से चीन की इन कंपनियों को एक भी पैसे का कारोबार नहीं मिलेगा. इस यूनिवर्सल सर्विस फंड से ही अमेरिका हार्डवेयर की खरीदारी और उनका रख-रखाव जैसा काम करता है. ज़ीटीई और हुआवेई 5 जी इंटरनेट के विस्तार के लिए काम आने वाले उपकरणों का बड़ा उत्पादक और निर्यातक है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि ऐसे में इन दोनों ही कंपनियों को करोड़ों डॉलर का नुकसान होने का अनुमान है.

हुआवेई ने भारत में 5जी का ट्रायल किया था
ऐसा क्या बनाती हैं ZTE और Huawei कि अमेरिका को बैन लगाना पड़ा
चीन दुनिया के उन चुनिंदा देशों में से एक है, जो कमर्शियल लेवल पर 5जी का इस्तेमाल करने लगा है. नवंबर 2019 से शंघाई और बीजिंग के कई इलाकों में बाकायदा 5जी सेवाएं उपलब्ध होने लगी हैं. इसे सबसे बड़ा 5जी सर्विस नेटवर्क माना जाता है. इनके पीछे इन दोनों कंपनियों का हाथ है. ये कंपनियां 5जी सेवा के लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराती हैं. इनके लिए रेडियो ट्रांसमीटर, टावर और एंटीना का भारी नेटवर्क स्थापित करना पड़ता है. ये दोनों कंपनियां दुनियाभर में ये इक्वीपमेंट सप्लाई करती हैं. आरोप है कि अपने उपकरणों के जरिए ही ये कंपनियां चीनी सरकार को इंटरनेट के इस्तेमाल संबंधी डेटा चीन को पहुंचाती हैं.
हालांकि इन कंपनियों को अलावा कई यूरोपियन कंपनी, जैसे नोकिया, एरिक्सन, क्वालकॉम और सैमसंग भी ये उपकरण बनाते हैं. लेकिन चीनी उपकरण कीमत में इनसे 30 फीसदी तक सस्ते होते हैं. इसकी वजह से ज्यादातर देशों में कपनियां इन्हीं से उपकरण खरीदना पसंद करती हैं. यह कंपनियों न सिर्फ अमेरिकी सरकार, बल्कि गूगल, फेसबुक, एपल जैसी बड़ी कंपनियों के साथ भी लाखों डॉलर सालाना का बिजनेस करती हैं. बैन के बाद इस पर भी भारी असर पड़ेगा.
पहले भी इन कंपनियों पर उठ चुके हैं सवाल
ऐसा नहीं है कि ज़ीटीई और हुआवेई हाल-फिलहाल ही अमेरिकी सरकार के निशाने पर आई हैं. बराक ओबामा के अमेरिकी प्रेसिडेंट रहते भी ज़ीटीई के खिलाफ इस तरह के सवाल उठे थे. इसके बाद ट्रंप प्रशासन 2019 से ही लगातार इन कंपनियों की भूमिका पर नजर रखे हुए था. कोविड संकट के बाद अमेरिका लगातार चीन को लेकर सख्ती दिखाता रहा है. अमेरिकी प्रेसिडेंट डॉनल्ड ट्रंप दुनियाभर में कोरोना को फैलाने के लिए चीन को दोषी ठहरा कर उसका बॉयकॉट करने की बात करते रहे हैं. इस कदम को भी अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के एक कदम के तौर पर देखा जा रहा है.
क्या होगा इस बैन का दुनियाभर में असर
अगर दुनियाभर में इन कंपनियों पर बैन के असर की बात करें, तो यकीनन 5जी के विस्तार को लेकर धक्का लगेगा. एशिया के कई देश, जैसे थाईलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर आदि चीनी उपकरणों के दम पर ही 5जी की छलांग लगाने की तैयारी में हैं. यूरोप के भी कई देश चीनी इक्वीपमेंट का इस्तेमाल करते हैं. एक्सपर्ट्स का कहना है कि इन कंपनियों के साथ कई कंपनियां डील में काफी आगे जा चुकी हैं. डील से मुकरने पर कंपनियों को भारी हर्जाना भी भरना पड़ सकता है.
भारत में जियो के आने, नोटबंदी और नए टैक्स सिस्टम- जीएसटी के चलते पहले ही कंपनियां 5जी विस्तार से कदम पीछे खीच चुकी हैं. पहले 2020 की शुरुआत तक 5जी को देश में कमर्शियल ट्रायल के लिए उपलब्ध कराने की बात कही गई थी, जो अब दूर की कौड़ी है. भारत के टेलीकॉम बिजनेस को लेकर वक्त-वक्त पर रिपोर्ट पेश करने वाली संस्था सीओएआई हुआवेई के देश में 5जी विस्तार को लेकर किए गए काम पर सराहना करती रही है. सीओएआई पहले यह भी कहती रही है कि बिजनेस और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मामलों को अलग रखने की जरूरत है. देश में पहला 5जी ट्रायल भी हुवावेई के सहयोग से 2019 में हुआ था.
हालांकि सीओएआई ने हाल ही में यह भी कहा है कि सरकार को चीनी कंपनियों को मार्केट से आउट करने और भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए रिसर्च और डिवेलपमेंट के लिए बड़ी सहायता देनी चाहिए. भारत सरकार भी इन दोनों कंपनियों के साथ 5जी विस्तार को लेकर काफी उत्साहित दिखती रही है. लेकिन चीन-भारत के तनाव के चलते माहौल में बदलाव आया है.
एथिकल हैकर जितेन जैन का कहना है कि ये कंपनियां भारत में भी संवेदनशील डेटा चोरी के मामलों में लिप्त रही हैं. इसके सबूत भी वक्त-वक्त पर मिलते रहे हैं, लेकिन यहां कभी कोई सख्त कार्रवाई उनके खिलाफ न होना आश्चर्य की बात है. टेक एनालिसिस फर्म 'टेक आर्क' के फैसल कवूसा का भी मानना है कि दाम कम होना और लंबे वक्त के लिए कर्ज देना इन कंपनियों की रणनीति का हिस्सा है. सबकुछ पता चलने के बाद भी कंपनियां अक्सर कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होतीं.
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