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कादर खान के 4 ख़ूबसूरत किस्से: काबुल से मुंबई आने की वजह इमोशनल कर जाती है

जब मां ने कहा था, "ग़रीबी कम करने का एकमात्र उपाय है तेरी पढ़ाई".

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कादर खान (तस्वीर - गेट्टी इमेजेस)

जब तक आप इस स्टोरी को पढ़ेंगे तब तक कादर खान को गुज़रे हुए शायद दिन, महीने साल भी बीत चुके हों. खबर पुरानी हो चुकी होगी. मौत की खबरें वैसे भी ज़ल्दी पुरानी हो जानी चाहिए. मुसलसल रहनी चाहिए तो ज़िंदगी की, आमद की, उम्मीद की खबरें. तो नहीं दोस्तों, हमको कादर खान की मौत की खबर पर तूल नहीं देना चाहिए. उसे आई-गई कर देना ही ठीक रहेगा. याद रखा जाना चाहिए तो उनका जीवन. तो चलिए पढ़ते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ खूबसूरत किस्से.

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Veteran actor & screenwriter Kader Khan passes away at the age of 81 in a hospital in Toronto, Canada pic.twitter.com/RUP9cq7SNn

— ANI (@ANI) January 1, 2019

उनका वो जीवन जो अफगानिस्तान की दुरुहता से शुरू हुआ. उनका वो जीवन जिसमें वो लेखक भी थे टीचर भी और अदाकार भी. उनका वो जीवन जिसका एक अहम हिस्सा धारावी से भी बदतर झोपड़पट्टी में गुज़रा. उनका वो जीवन जिसमें दर्द थे, दुःख थे. ढेरों थे. लेकिन फिर भी जो उम्मीदों से भरा था. आइए उनके उसी जीवन के कुछ किस्से आपको सुनाते हैं. ये किस्से आपकी आंखें भी नम करते हैं, आपको कुछ सीखा भी जाते हैं और आपको आशाओं से भी भरते हैं –

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It’s the end of an era... RIP Kader Khan sahab... An exceptional writer and a truly versatile actor... Heartfelt condolences to the family... #KaderKhan #Legend

— taran adarsh (@taran_adarsh) January 1, 2019

# 1. पढ़ने और अनपढ़ रहने के बीच में उस दिन मां का वो हाथ आ गया था

कादर खान काबुल में जन्मे. उनसे पहले पैदा हुए उनके तीन और भाई एक-एक कर बचपन में ही गुज़र गए. मौत का कोई ज्ञात कारण नहीं था. क्यूंकि गरीबी से कोई नहीं मरता ऐसा कई लोगों को कहते सुना है. खैर मां का दिल तो मां का ही ठहरा. घर में तीन मौतों के बाद उससे न रहा गया. बेटे को लेकर बॉम्बे आ गई. बॉम्बे, जो आज मुंबई है. ये कोई हम मध्यमवर्गियों की एक शहर से दूसरे शहर शिफ्टिंग तो थी नहीं, कि वहां ठिया-ठिकाने की पहले ही व्यवस्था हो. तो रहना पड़ा कमाठीपुरा. कमाठीपुरा, मुंबई का झोपड़पट्टी वाला इलाका. धारावी सरीखा, बल्कि उससे भी बदतर, कहीं बदतर. कादर खान ने क्लास वन से लेकर ग्रेजुएशन तक का एक लंबा समय वहीं बिताया. मां चाहती कि बेटा खूब पढ़े, कादर का पढ़ने में मन भी रमता, लेकिन मां की हालत पर तरस भी आता. कॉनी हाम की लिखी किताब ‘शो मी योर वर्ड्स – द पावर ऑफ़ लैंग्वेज इन बॉलीवुड’ के एक किस्से के अनुसार इसी के चलते एक दिन निकल पड़े पैसों का जुगाड़ करने, छोटा-मोटा काम ढूंढने. लेकिन कंधे पर एक हाथ का अहसास हुआ. वो हाथ मां का था. बोली - मुझे पता है कि तू रुपए कमाने जा रहा है, लेकिन तेरे दो या तीन रुपयों से हमारी गरीबी कम नहीं होने वाली. ग़रीबी कम करने का एकमात्र उपाय है तेरी पढ़ाई. इस एक बात का कादर के मन में गहरा प्रभाव पड़ा. उसने सारे अभावों के बावज़ूद पढ़ना ज़ारी रखा और एक दिन इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की. 

# 2. दो प्रतिस्पर्धी खेमों के बीच भी कादर खान कॉमन थे

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मनमोहन देसाई. प्रकाश मेहरा. दो लीजेंड निर्देशक. दोनों एक ही दौर के. और अगर दो लीजेंड एक ही देश-काल में उपस्थित हो जाएं तो दोनों के बीच कंपटीशन तो अवश्यम्भावी है. और इस कंपटीशन के बारे में एक मुहावरा है – दो पाटन के बीच में जीवित बचा न कोय. मने, दो लीजेंड. दोनों के अपने अपने खेमे, निर्माता-संगीतकार से लेकर स्पॉट-बॉय तक अलग-अलग. अपने-अपने फेवरेट. कुछ भी कॉमन नहीं. लेकिन मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा के खेमे में दो चीज़ें कॉमन थीं – अमिताभ बच्चन और कादर खान. क्यूं? क्यूंकि बेस्ट को आखिर कौन खोना चाहेगा. इसलिए तो यही दोनों थे जिन्होंने दोनों के साथ काम किया. 'गंगा जमुना सरस्वती', 'कुली', 'अमर अकबर एंथनी' जहां मनमोहन देसाई की थी, वहीं 'शराबी', 'लावारिस' और 'मुकद्दर का सिकंदर' जैसी फ़िल्में उनके कंपटीटर प्रकाश मेहरा की. इन सबके डायलॉग लिखे, अपने कादर खान ने. मनमोहन देसाई अपनी सफलता का क्रेडिट कादर खान को भी देते हैं. कहते हैं - उन्हें बोलचाल के मुहावरे का अच्छा ज्ञान है. मैंने उनसे बहुत सीखा है. लेकिन सिर्फ यही फ़िल्में ही नहीं थीं जिनके लिए उन्होंने लिखा. कुल 300 फिल्मों में काम किया और 250 के लगभग फिल्मों के लिए डायलॉग लिखे. 

1971 से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी सफ़र अंत-अंत तक ज़ारी रहा. पहला ब्रेक मिला मनमोहन देसाई से. उस वक्त वो रोटी फिल्म बना रहे थे. लेकिन उन्हें डायलॉग लिखने वाला कोई नहीं मिल रहा था. कादर खान के रूप में उनकी तलाश पूरी हुई. और इसके बाद तो कादर खान ऐसे छाए कि 'मेरी आवाज़ सुनो' और 'अंगार' के लिए 'बेस्ट डायलॉग' कैटेगरी में फिल्मफेयर अवॉर्ड और 'बाप नंबरी बेटा दस नंबरी' के लिए के लिए बेस्ट कॉमेडियन का फिल्मफेयर अवॉर्ड झटक ले गए. इसके अलावा 9 बार फिल्मफेयर अवॉर्ड की बेस्ट कॉमेडियन वाली कैटेगरी के नॉमिनेशन तक भी पहुंचे. 2013 में हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें साहित्य शिरोमणि पुरस्कार से भी नवाजा गया. राजेश खन्ना की फिल्म 'दाग' से ऐक्टिंग शुरू करने वाले कादर खान ने गोविंदा के साथ काफी सुपरहिट फिल्में दीं. कादर खान और शक्ति कपूर का कॉम्बो भी काफी इंट्रेस्टिंग और लंबा रहा, दोनों ही चरित्र अभिनेता भी रहे और कॉमेडियन भी. कादर खान ने जितेंद्र की कई फिल्मों के डायलॉग्स भी लिखे. 

# 3. कादर खान से जानिए कैसे कठिन ऑडियंस के बीच भी महफ़िल लूट ले जाएं?

कादर खान नाटकों के लिए भी लिखा करते थे. उनके नाटक देखने केवल शिष्ट दर्शक ही आएं, ऐसा संभव नहीं था. लेकिन कादर खान का मानना था कि आपने सबको जानना चाहिए. आपने सब कुछ जानना चाहिए. आपको हरफनमौला होना होता है. फ़ॉर्मूला सिंपल है कि दर्शकों को अपनी बातें समझाने के लिए पहले उन्हें समझिए. एक बार उन्होंने आपकी बातों में इंटरेस्ट लेना शुरू किया तो फिर बाद में वो आपका कहा भी सुनेंगे. कादर मानते थे कि दस तारीफों के बाद आप ऑडियंस को समझ जाते हो. और तब आप उन्हें अपने विचार बताते हो. उनका कहना था कि तीन तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं - पहली आपकी प्रतिक्रिया, दूसरी डायरेक्टर की और तीसरी ऑडियंस की. तीन प्रतिक्रियाओं के अपने अपने इलाके होते हैं और इनके बीच ही साम्य बनाना आपको एक अच्छा परफॉर्मर बनाता है. 

# 4. मुस्लिम होने के प्रति

कादर खान अफगानिस्तान से आते थे. एक कट्टर मुस्लिम परिवार से. उनका मानना था कि जिन मुस्लिमों को इस बात के लिए दोष दिया जाता है कि उन्होंने दुनिया की शांति भंग की, उनके तो खुद के घर में शांति के लाले पड़े हैं. उनको दुःख था कि मुस्लिम कुरान या इस्लामी कानून को नहीं जानता.  वो तो बस अधिक से अधिक उसका अनुवाद भर जानता है, और अनुवाद में 'क्या का क्या' हो जाता है. वो फिल्मों में आने से पहले एक टीचर भी थे. इसलिए उनकी एक वैसी ही सुलझी हुई सोच भी थी. वो मुस्लिमों को शिक्षित करना चाहते थे. वो कहते थे कि मैं उन्हें शिक्षित कर इस लायक बनाना चाहता हूं कि वे उनसे, उन अनुवादकों से, उन मुल्ले मौलवियों से पूछ सकें,’बताओ मूल किताब में ऐसा कहां लिखा है?’ वो उर्दू पर काम कर रहे थे. वो गालिब के दीवान से लेकर कुरआन और हदीस को आम लोगों के समझने लायक बना रहे थे. उसकी सीडी तैयार कर रहे थे. ये काम कहां तक पहुंचा नहीं पता, लेकिन अब कादर खान हमारे बीच नहीं है.  


इस लेख को लिखने में कबाड़खाना के ब्लॉग की एक पोस्ट इस उल्लू के पठ्ठे को सब्जेक्ट समझ में आया है और ये उल्लू का पठ्ठा लिख के लाया है की भी सहायता ली गई है. कबाड़खाना की ये पोस्ट दरअसल कादर खान का एक इंटरव्यू है जो कॉनी हाम ने लिया था और जिसका अनुवाद अशोक पांडे ने किया था.

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