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ये कश्मीरी लड़की पेंटिंग्स बनाती है, शांति का संदेश देने के लिए

अब बस भावनाएं आहत न हो जाए इतनी दुआ है.

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Source| VideoVolunteers|Youtube Screengrab
एक लड़की है. 20 साल की. बदरुन्निसा. पेंटिंग्स बनाती है. जो भी संसाधन हासिल हैं उनके सहारे कैनवस पर सूफिज्म उकेरती है. कश्मीर से है.
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बदरून्निसा.

बदरुन्निसा श्रीनगर की रहने वाली है. सूफी विचारधारा से उसकी उन्सियत बचपन से है. उसकी बनाई तस्वीरों में सूफिज्मकदम-कदम पर झलकता है. सूफी परंपराएं और शिक्षा का बदरून्निसा पर गहरा प्रभाव है. सूफी संतों के बारे में उसकी जानकारी भी ज़बरदस्त है. अपनी तस्वीरों के सहारे शांति का संदेश फैलाना चाहती है. बदरुन्निसा ना सिर्फ सूफिज्म की तस्वीरें बनाती हैं, बल्कि उसमें भी वो सूफी परंपरा की महिलाओं पर फोकस रखती है. वो महिलाएं जिनके बारे में बहुत कम बात की जाती है.
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बदरुन्निसा की पेंटिंग्स की देश से बाहर भी प्रदर्शनी लग चुकी है. तुर्की और ऑस्ट्रेलिया में. लेकिन खुद उसके गृहराज्य में ऐसा अब तक नहीं हो पाया है. वजह है कश्मीर में बदरुन्निसा जैसे आर्टिस्ट्स के हुनर को बढ़ावा देने वाले संसाधनों का ना होना. कश्मीर में एक भी आर्ट गैलरी नहीं है. लोकल मार्केट में मुश्किल से ही कोई पेंटिंग बिक पाती है. कुछेक आर्ट गैलरीज शुरू भी हुई थीं, तो लोगों के ठंडे रिस्पांस की वजह से चल नहीं पाई.
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बदरुन्निसा कहती है, “एक आर्टिस्ट का यहां सर्वाइव करना बहुत मुश्किल है.”
लेकिन बदरुन्निसा का हौसला डिगा नहीं है. वो अपना काम करती रहती है. बदरुन्निसा जैसे कलाकारों के लिए एक ख़तरा ये भी रहता है कि पता नहीं कब उसकी तस्वीरों से किसी की धार्मिक भावना खामखा चोटिल हो बैठे. बावजूद इसके वो अपना काम पूरी लगन से कर रही है.
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बदरुन्निसा बताती है,
“कुछ लोग सूफिज्म के बारे में बातें करते हैं. कुछ लिखते हैं. मैं सूफिज्म की तस्वीरें बनाती हूं. मैं कोई 10-11 साल की रही होउंगी जब सूफिज्म से मेरी पहचान हुई. मेरे दादाजी मेरे सामने ‘मसनुई’ पढ़ा करते थे. तभी से एक ख़याल मेरे अंदर घर कर गया. मैं वो नहीं करना चाहती जो हर कोई करता है, मैं वो करना चाहती हूं जो मैं हूं, जो मैं सोचती हूं.”
तुर्की में बदरुन्निसा की जिन पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी थी वो मिडिल-ईस्ट क्राइसिस पर आधारित थी. वो पेंटिंग्स आज तक अंकारा यूनिवर्सिटी में हैं. बदरुन्निसा को अपने महिला होने का नुकसान भी उठाना पड़ता है. ख़ास तौर से सफ़र के मामले में. बाहर जाने की इजाज़त मुश्किल से मिलती है. हमेशा ही मसला होता है. कहा जाता है कि लड़की हो, अकेले कहां जाओगी? किसी न किसी को साथ ले जाना पड़ता है.
हताशा भरे लहजे में बदरुन्निसा कहती है, “कोई नहीं. स्ट्रगल है. स्ट्रगल आती रहती है, लेकिन उनसे आगे बढ़ना पड़ता है.”
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बदरुन्निसा जैसे कलाकार आगे बढ़ते रहें यही मानवता के हित में है. सूफी विचारधारा, जिसकी मूलभूत शिक्षाओं में मनुष्यता पर जोर है, का प्रचार-प्रसार जिस भी साधन से हो बेहतर है. मशहूर सूफी विचारक रूमी कहते हैं,
“आप समंदर में एक बूंद नहीं हैं. आप एक बूंद में पूरे महासागर हैं.”
बदरुन्निसा को शुभकामनाएं.
https://www.youtube.com/watch?v=ZC5WWtKXfr4


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