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जवानी में डायबिटीज़ बढ़ रही है! शरीर दे रहा है ये 5 अहम संकेत

पहले टाइप-2 डायबिटीज़ बुज़ुर्गों को होती थी. लेकिन अब युवाओं में भी इसके मामले बढ़े हैं. ऐसा खान-पान और लाइफस्टाइल में बदलाव के चलते हुआ है.

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युवाओं में डायबिटीज़ के मामले बढ़े हैं (फोटो: Freepik)

भारत को डायबिटीज़ कैपिटल ऑफ द वर्ल्ड कहा जाता है. ICMR-INDIAB 2023 की एक स्टडी के मुताबिक, भारत में 10 करोड़ से ज़्यादा लोगों को डायबिटीज़ है. 14 करोड़ से ज़्यादा लोग प्री-डायबिटिक है. यानी डायबिटीज़ के रिस्क पर हैं. 

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कई लोग मानते हैं कि डायबिटीज़ मोटापे की वजह से होती है. यानी जो लोग ओवरवेट हैं, केवल वही डायबिटीज़ के रिस्क पर हैं. पर ये बात पूरी तरह सही नहीं है. दुबले दिखने वाले लोग भी अंदर से अन्हेल्दी हो सकते हैं. उन्हें डायबिटीज़ हो सकता है.

70% से ज़्यादा भारतीयों की मेटाबॉलिक हेल्थ ठीक नहीं है. इसका मतलब उनकी शुगर, कोलेस्ट्रोल और ब्लड प्रेशर कंट्रोल में नहीं है.

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डायबिटीज़ अब सिर्फ बुढ़ापे की बीमारी नहीं है. जवानी में भी लोगों को डायबिटीज़ हो रही है. लेकिन घबराने की ज़रूरत नहीं है. अगर डायबिटीज़ का समय रहते पता लग जाए, तो उसे होने से रोका जा सकता है. कंट्रोल किया जा सकता है. कैसे? रेगुलर चेकअप, सही खाना, एक्सरसाइज और स्ट्रेस कंट्रोल करके.

डायबिटीज़ को होने से कैसे रोकें, समझते हैं डॉक्टर्स से. पहले हैं डॉक्टर पंकज अग्रवाल. वो हॉर्मोन केयर एंड रिसर्च सेंटर, गाज़ियाबाद में कंसल्टेंट डायबेटोलॉजिस्ट, थायरॉइडोलॉजिस्ट और एंडोक्रिनोलॉजिस्ट हैं. 

दूसरे हैं डॉक्टर सुबोध बंजाल. वो श्री अरबिंदो मेडिकल कॉलेज एंड पीजी इंस्टीट्यूट, इंदौर में एंडोक्रिनोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड और प्रोफेसर हैं. 

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तीसरे हैं डॉक्टर बलराम शर्मा. वो एसएमएस मेडिकल कॉलेज, जयपुर में एंडोक्रिनोलॉजी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर और सीनियर कंसल्टेंट हैं. 

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डॉ. पंकज अग्रवाल, डॉ. सुबोध बंजाल, डॉ. बलराम शर्मा

क्या जवानी में डायबिटीज़ हो सकती है?

डायबिटीज़ के कई प्रकार हैं. इनमें सबसे आम टाइप-2 डायबिटीज़ है. पहले टाइप-2 डायबिटीज़ बुज़ुर्गों को होती थी. लेकिन अब युवाओं में भी इसके मामले बढ़े हैं. ऐसा खान-पान और लाइफस्टाइल में बदलाव के चलते हुआ है. युवाओं की लाइफस्टाइल बहुत सुस्त है, वो एक्सरसाइज़ पर ध्यान नहीं देते. उनका स्क्रीन टाइम बहुत बढ़ गया है. फास्ट फूड और जंक फूड ज़्यादा खाया जाता है. कोविड-19 के बाद ये दिक्कत और ज़्यादा बढ़ी है. किशोरों और बच्चों में मोटापा घर कर गया है. उनका खाना-पीना काफी गड़बड़ है. इस वजह से 15-25 साल के लोगों को भी टाइप-2 डायबिटीज़ हो रही है. ये डायबिटीज़ पहले 30-40 की उम्र वालों में देखी जाती थी. ऐसा कह सकते हैं कि कोई भी उम्र डायबिटीज़ बची नहीं रह गई है.

टाइप-1 डायबिटीज़ बुज़ुर्गों में पहले ही होती रही है. लेकिन अब किशोरों और युवाओं को टाइप-2 डायबिटीज़ भी होने लगी है. किशोर, युवा, बच्चे सभी डायबिटीज़ के रिस्क पर हैं. अगर लाइफस्टाइल और खाने-पीने की आदतों को नहीं सुधारा गया, तो डायबिटीज़ हो सकता है. इसलिए हेल्दी लाइफस्टाइल अपनानी ही पड़ेगी.

डायबिटीज़ कम उम्र में क्यों हो रही है?

जैसे-जैसे लाइफस्टाइल बदलेगा, बचपन से ही मोटापा बढ़ेगा. अगर ज़्यादा कैलोरी वाला खाना खाएंगे, एक्सरसाइज़ कम करेंगे. तो इससे शरीर में इंसुलिन हॉर्मोन का असर कम होगा. इंसुलिन हॉर्मोन शरीर में बनेगा तो, पर ठीक से काम नहीं करेगा. इस वजह से कम उम्र में ही डायबिटीज़ होने का चांस बढ़ जाएगा. साथ में ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल और हार्ट अटैक का चांस भी बढ़ सकता है. 

जिस तरह खराब लाइफस्टाइल की वजह से डायबिटीज़ हो सकती है. वैसे ही माता-पिता से बच्चों में भी डायबिटीज़ आ सकती है. जिनके परिवार में किसी को शुगर है, उन्हें बचपन से ही सतर्क रहने की ज़रूरत है. वो एक हेल्दी लाइफस्टाइल जिएं ताकि उन्हें डायबिटीज़ होने का रिस्क न रहे.

क्या डायबिटीज़ होने पर शरीर सिग्नल देता है?

डायबिटीज़ तीन तरह की होती है. टाइप-1 डायबिटीज़, टाइप-2 डायबिटीज़ और जेस्टेशनल डायबिटीज़. जेस्टेशनल डायबिटीज़ प्रेग्नेंसी के दौरान होती है. 

टाइप-1 डायबिटीज़ होने पर बहुत ज़्यादा प्यास लगती है. बार-बार पेशाब करने जाना पड़ता है. कमज़ोरी लगती है. धुंधला दिखाई देता है. ये लक्षण बता देते हैं कि व्यक्ति को डायबिटीज़ हो गई है.

टाइप-2 डायबिटीज़ होने पर पता ही नहीं चलता. जब हार्ट अटैक और स्ट्रोक पड़ता है और मरीज़ अस्पताल जाता है, तब पता चलता है कि उसे टाइप-2 डायबिटीज़ है. ऐसे मरीज़ों में कुछ लक्षण दिखाई पड़ सकते हैं. जैसे कभी-कभी कमज़ोरी लगना. बेवजह वज़न कम हो जाना. प्राइवेट पार्ट में रेडनेस, खुजली होना. कभी-कभी देखने में परेशानी होना. घाव का समय पर न भरना. इन लक्षणों से टाइप-2 डायबिटीज़ का पता लगा सकते हैं. अमूमन टाइप-2 डायबिटीज़ में कोई ख़ास लक्षण दिखाई नहीं देते. लेकिन थोड़े वॉर्निंग साइन्स ज़रूर होते हैं, जिन्हें व्यक्ति आमतौर पर पकड़ नहीं पाता.

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फास्टिंग ब्लड ग्लूकोज़ में 8 घंटे भूखा रहने के बाद, ब्लड टेस्ट से शुगर की जांच की जाती है (फोटो: Freepik)

शुगर जांचने के लिए कौन-से टेस्ट करवाएं?

अगर किसी भी उम्र के व्यक्ति को डायबिटीज़ से जुड़े लक्षण हैं, तो उसे जांच करानी चाहिए. अगर कोई लक्षण नहीं है, लेकिन उम्र 45 साल से ज़्यादा है, तब आपको साल में एक बार टेस्ट ज़रूर कराना चाहिए. दो-तीन तरीके के टेस्ट करा सकते हैं, ये आमतौर पर हर लैब में हो जाते हैं. इनमें ब्लड ग्लूकोज़ की जांच की जाती है. 

एक टेस्ट है फास्टिंग ब्लड ग्लूकोज़. इसमें 8 घंटे भूखा रहने के बाद, ब्लड टेस्ट से शुगर की जांच की जाती है. अगर फास्टिंग ब्लड ग्लूकोज़ 99 mg/dL तक है यानी 100 से नीचे हैं, तो इसे सामान्य माना जाता है. अगर लेवल 100-125 mg/dL के बीच है, तो इसे प्री-डायबिटीज़ कहा जाता है. अगर फास्टिंग ब्लड ग्लूकोज़ 126 mg/dL से ऊपर है, तो इसे डायबिटीज़ माना जाता है. 

दूसरा टेस्ट है पोस्ट मील या पोस्ट प्रांडियल ब्लड शुगर. अगर खाना खाने के 2 घंटे बाद जांच हो रही है और ब्लड ग्लूकोज़ लेवल 140 mg/dL से नीचे है, तो इसे सामान्य माना जाता है. अगर ब्लड ग्लूकोज़ लेवल 140-199 mg/dL के बीच है, तो इसे प्री-डायबिटीज़ माना जाता है. वहीं अगर ब्लड ग्लूकोज़ लेवल 200 mg/dL या उससे ऊपर है, तो इसे डायबिटीज़ माना जाता है. 

तीसरी जांच है HbA1c, ये पिछले तीन महीने का औसत बताती है. अगर ब्लड शुगर लेवल 6.4% से ज़्यादा है, तो मरीज़ को डायबिटिक माना जाता है. अगर औसत ब्लड शुगर लेवल 5.7% से नीचे आता है, तो इसे सामान्य माना जाता है. लेकिन अगर ब्लड शुगर लेवल 5.7-6.3% के बीच है, तो पेशेंट को प्री-डायबिटिक माना जाता है. अगर इनमें से कोई दो जांच पॉज़िटिव हों या कोई एक जांच दो बार पॉज़िटिव आए. तब माना जाता है कि मरीज़ को डायबिटीज़ हो गई है.

डायबिटीज़ जांचने का सबसे सटीक टेस्ट कौन-सा है?

रैंडम ग्लूकोज़ की जांच न करें. जब मन किया, तब ब्लड शुगर लेवल टेस्ट नहीं करना चाहिए. ये सबसे ख़राब तरीका है. ऐसा करने पर डायबिटीज़ को पहचानने की संभावना कम हो जाती है. सबसे बेहतर यही है कि आप 75 ग्राम ग्लूकोज़ को पानी में मिलाकर, उसे खाली पेट पीने के बाद टेस्ट करें. इससे ज़्यादातर मामलों में डायबिटीज़ या प्री-डायबिटीज़ पहचानने में मदद मिलती है. रैंडम ग्लूकोज़ टेस्ट न कराएं, फास्टिंग ग्लूकोज़ टेस्ट कराना सबसे सरल होता है. इसमें आपको सिर्फ 8 घंटे खाली पेट रहकर टेस्ट करना है. 

हालांकि 75 ग्राम ग्लूकोज़ पीने के 2 घंटे बाद टेस्ट कराना सबसे प्रभावी है. कुछ मरीज़ों में ब्लड ग्लूकोज़ लेवल हर वक्त घटता-बढ़ता रहता है. ऐसे लोगों के लिए HbA1c बेहतर टेस्ट हो सकता है. लेकिन सबसे बढ़िया फास्टिंग ग्लूकोज़ टेस्ट है या 75 ग्राम ग्लूकोज़ पीने के 2 घंटे बाद वाला टेस्ट है. बस रैंडम ग्लूकोज़ टेस्ट करने से बचें. यूरिन ब्लड शुगर टेस्ट भी बिल्कुल न करें. ये सबसे पुराना और सबसे कम प्रभावी तरीका है.

डायबिटीज़ का इलाज नहीं हुआ तो क्या होगा?

डायबिटीज़़ के एक्यूट और क्रोनिक कॉम्प्लिकेशंस होते हैं. एक्यूट कॉम्प्लिकेशंस जैसे ज़्यादा प्यास लगना, ज़्यादा पेशाब लगना, इंफेक्शन होना और वज़न कम होना. 

क्रोनिक कॉम्प्लिकेशंस जैसे आंख के पर्दे यानी रेटिना को नुकसान पहुंचना, जिसे रेटिनोपैथी कहते हैं. नेफ्रोपैथी हो सकती है यानी किडनी ख़राब होने का चांस बढ़ जाता है. पैरों में सूजन आती है, सनसनाहट, झुनझुनाहट और जलन होती है.

डायबिटीज़ से माइक्रोवैस्कुलर कॉम्प्लिकेशंस होती हैं यानी शरीर की छोटी-छोटी नसों पर असर पड़ता है. मैक्रोवैस्कुलर कॉम्प्लिकेशंस भी होती हैं यानी शरीर की बड़ी नसों पर असर पड़ता है. बड़ी नसें यानी दिमाग, दिल, हाथ और पैरों तक खून सप्लाई करने वाली नसें. छोटी नसें आंख और किडनी जैसे अंगों को खून सप्लाई करती हैं. डायबिटीज़ सिर से लेकर पैर के नाखूनों तक असर करती है.

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बहुत ज़्यादा स्ट्रेस लेने से भी डायबिटीज़ हो सकती है (फोटो: Freepik)

स्ट्रेस से डायबिटीज़ हो सकती है?

तनाव एक ऐसा फैक्टर है, जो लगभग हर बीमारी की वजह बन सकता है. डायबिटीज़ भी इसमें एक प्रमुख बीमारी है. डायबिटीज़ होने की तमाम वजहों में तनाव एक अहम वजह है. तनाव होने पर शरीर में कुछ हॉर्मोन ज़्यादा रिलीज़ होते हैं. कभी-कभार तनाव होना अलग बात है. लेकिन अगर आपको लगातार तनाव बना हुआ है. ये आपकी लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया है. तब शरीर में कोर्टिसॉल, एड्रेनलिन, नॉरएड्रेनलिन हॉर्मोन बढ़ सकते हैं. ये इंसुलिन हॉर्मोन के खिलाफ काम करते हैं. इसलिए इन्हें काउंटर रेगुलेटरी हॉर्मोन्स कहते हैं. 

अगर किसी को डायबिटीज़ नहीं है, तो तनाव की वजह से उसे डायबिटीज़ हो सकती है. अगर किसी को पहले से डायबिटीज़ है, तो वो कंट्रोल से बाहर जा सकती है. तनाव ऐसा फैक्टर है, जिसे कंट्रोल करने पर डायबिटीज़ से बचाव हो सकता है. वहीं अगर डायबिटीज़ हो गई है, तो उसे कंट्रोल करने में मदद मिलती है.

आप तनाव कम करने के तरीके खोजें. हर व्यक्ति के लिए वो तरीके अलग-अलग हो सकते हैं. तनाव कम करने के लिए आप अपने परिवार की मदद ले सकते हैं. योग-प्राणायाम कर सकते हैं, दोस्तों की मदद ले सकते हैं. जैसे भी हो सके, अपना तनाव कम करें. ऐसा करने से न सिर्फ डायबिटीज़ से बचाव होता है. बल्कि दिल, ब्लड प्रेशर से जुड़ी दिक्कतें भी कम होती हैं. अगर तनाव की वजह से ब्लड प्रेशर बढ़ेगा. तो, ब्लड प्रेशर बढ़ने के कारण डायबिटीज़ होने का रिस्क भी बढ़ेगा. तनाव से डायबिटीज़ होने का रिस्क है. लेकिन तनाव को कम करने से डायबिटीज़ भी कंट्रोल की जा सकती है.

एक्सरसाइज़ के लिए जिम जाना ज़रूरी है?

ऐसा व्यायाम करें, जो आप कर सकते हैं. अगर दौड़ सकते हैं, तो दौड़ें. अगर नहीं दौड़ सकते हैं, तो जॉगिंग करें. अगर जॉगिंग नहीं कर सकते, तो तेज़ चाल से चलें. अगर तेज़ चाल से नहीं चल सकते, तो आराम से चलें. अगर घुटने या पैरों की कोई दिक्कत है, तो एक्सरसाइज़ वाली साइकिल चलाएं. ये साइकिल घर में रख सकते हैं और कभी भी चला सकते हैं. अगर ये मुमकिन नहीं है, तो बैठकर किए जाने वाले आसन और एक्सरसाइज़ करें. बस आपका शारीरिक व्यायाम होना चाहिए. 

जैसे गाड़ी चलती है, तो वो पेट्रोल खर्च करती है. वैसे ही शरीर जितना काम करेगा, वो ग्लूकोज़ खर्च करेगा. इससे शुगर लेवल कम होता जाएगा. एक्सरसाइज़ करके शुगर को डायरेक्टली कम किया जा सकता है. एक्सरसाइज़ से डायबिटीज़ की दवाओं, इंसुलिन का असर भी बढ़ता है. एक्सरसाइज़ से शरीर में खून का फ्लो सुधरता है. इससे हार्ट अटैक, हार्ट फेलियर , ब्रेन स्ट्रोक, लकवा और पैरों में गैंग्रीन होने से बचा जा सकता है. 

एक्सरसाइज़ डायबिटीज़ को कंट्रोल करने और उससे होने वाली कॉम्प्लिकेशंस से बचाने में मदद करता है. जो एक्सरसाइज़ कर सकें, वो करें. एक्सरसाइज़ जितनी तीव्रता (इंटेंसिटी) की होगी, वो उतना ज़्यादा फायदा पहुंचाएगी. घर पर व्यायाम करेंगे, तो लंबे वक्त तक करना पड़ेगा. लेकिन वो फायदा तो पहुंचाएगा ही.

खाने की कौन-सी चीज़ों से डायबिटीज़ का रिस्क बढ़ता है?

पारंपरिक खाना सबसे अच्छा है. हाई-फाइबर डाइट लें. चबा-चबाकर खाएं. समय-समय पर खाएं. अनुशासन में खाएं. हर खाना खाने से शुगर नहीं बढ़ती. शुगर ऐसा खाना खाने से बढ़ती है, जो मोटापा बढ़ाता है और इंसुलिन रेज़िस्टेंस पैदा करता है. जैसे फास्ट फूड यानी पिज़्ज़ा और बर्गर वग़ैरा. कोल्ड ड्रिंक, फ्रूट जूस से भी वज़न बढ़ता है. इन्हें खाते-पीते हुए लोगों को पता भी नहीं चलता कि उन्होंने ज़्यादा खा-पी लिया है. 

टीवी, मोबाइल देखते हुए खाना खाने से भी वज़न बढ़ता है. लोगों को एक्सरसाइज़ का समय कम मिलता है. वज़न बढ़ने से इंसुलिन रेज़िस्टेंस बढ़ता है यानी इंसुलिन हॉर्मोन ठीक से काम नहीं करता. ऐसे लोगों में डायबिटीज़ होने का रिस्क बढ़ जाता है. इसलिए फास्ट फूड से बचें और अपना पारंपरिक खाना खाएं. 

फल, हरी पत्तेदार सब्ज़ियां और सलाद अपने खाने में ज़रूर शामिल करें. सूखे मेवे भी खा सकते हैं, इनमें मोनोअनसैचुरेटेड फैट और फाइबर होता है.

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इंसुलिन पंप और CGMS से डायबिटीज़ कंट्रोल में मदद मिल सकती है (फोटो: Freepik)

टेक्नोलॉजी डायबिटीज़ कंट्रोल करने में कैसे मदद करती है?

आजकल हम टेक्नो-फ्रेंडली माहौल में रह रहे हैं. लेकिन ध्यान रखें कि टेक्नोलॉजी दो-धारी तलवार की तरह है. कई बार ये हमारा स्क्रीन टाइम बढ़ा देती है, कई बार बहुत मदद भी करती है. आजकल सबके पास स्मार्टफोन है. इसमें कोई ऐप डाउनलोड करके देख सकते हैं कि हमने दिनभर में कितनी एक्टिविटी की. हमारा स्क्रीन टाइम कितना रहा. हम कितने कदम चले. कई ऐप्स बता देते हैं कि आपने कितनी कैलोरीज़ खाई हैं. यानी अपने फोन से आप डाइट को भी मॉनिटर कर सकते हैं. 

ऑनलाइन चेक करके किसी सही सोर्स से ये पता लगा सकते हैं कि हमें क्या खाना चाहिए, क्या नहीं और कौन-सी एक्टिविटी करनी चाहिए. इससे डायबिटीज़ और वज़न कंट्रोल करने में मदद मिल सकती है. अगर डायबिटीज़ हो गई है, तो भी टेक्नोलॉजी कई तरह से मदद करती है. जैसे ब्लड ग्लूकोज़ मॉनिटर करने के लिए ग्लूकोमीटर आता है. इससे आप अपने शुगर लेवल पर लगातार नज़र रख सकते हैं. 

CGMS (कंटिन्यूअस ग्लूकोज मॉनिटरिंग सिस्टम) नाम की एक मशीन भी आती है. इसमें ब्लड ग्लूकोज़ लेवल की लगातार मॉनिटरिंग की जा सकती है. CGMS को सीधे मोबाइल पर भी देखा जा सकता है. इससे मरीज़ देख सकता है कि उसका शुगर लेवल कितना है. ECG के ग्राफ की तरह उसे मोबाइल पर देखा जा सकता है. इससे पता चलता है कि आपकी शुगर का लेवल कैसा है. 

अगर टाइप-1 डायबिटीज़ के मरीज़ को इंसुलिन लगाने में दिक्कत आ रही है या फिर किसी मरीज़ का शुगर लेवल ऊपर-नीचे हो रहा है. तो, इंसुलिन पंप जैसी सेमी-ऑटोमेटिक मशीन मौजूद है. ये CGMS के साथ टाई-अप हो जाती हैं. जिससे इंसुलिन हॉर्मोन और शुगर, दोनों की लगातार मॉनिटरिंग होती है. फिर उस हिसाब से इंसुलिन हॉर्मोन दिया जा सकता है.

शुगर बढ़ने से शरीर में क्या होता है?

हमारे शरीर में शुगर, ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल आदि का बढ़ना हानिकारक है. इन दिनों शुगर बढ़ने का सबसे आम कारण ख़राब लाइफस्टाइल है. इससे शरीर में इंसुलिन का असर धीरे-धीरे कम होने लगता है. जब शरीर इसकी भरपाई करने की कोशिश करता है, तब सिर्फ़ शुगर नहीं बढ़ती. बल्कि ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल और दिल की बीमारियां भी होने लगती हैं. 

अमूमन जिस वक्त शुगर बढ़ रही है, उस वक्त तुरंत कोई असर नहीं दिखता. जब शुगर बढ़कर 300, 400, 500 mg/dL तक पहुंच जाती है. तब मरीज़ को कई तरह की दिक्कतें होना शुरू होती हैं. जैसे मरीज़ को बहुत भूख और प्यास लगती है. बार-बार पेशाब जाना पड़ता है. उसका वज़न घटने लगता है. इंफेक्शंस होते हैं. 

सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि 250-300 mg/dL तक की शुगर होने पर कोई लक्षण नहीं दिखते. इससे मरीज़ को पता ही नहीं चलता कि वो डायबिटिक है, उसके शरीर को नुकसान पहुंच रहा है. डायबिटीज़ शरीर को दीमक की तरह खोखला कर देती है. इसलिए लक्षण आने का इंतज़ार न करें.

डायबिटीज़ के मरीज़ों के घरवाले, दोस्त कैसे मदद कर सकते हैं?

करीब 15-16% लोगों को शुगर की बीमारी है. गांवों में भी डायबिटीज़़ तेज़ी से बढ़ रही है. कई लोगों को पता ही नहीं है कि उन्हें डायबिटीज़़ हो गई या वो प्री-डायबिटिक हैं. हर तीसरे-चौथे व्यक्ति को डायबिटीज़ है या होने वाली है. माने हर घर में कोई-न-कोई शुगर का मरीज़ है. शुगर के मरीज़ को ट्रोल करने के बजाय उसे सपोर्ट करें. उससे ये न कहें कि वो कोई मिठाई खा ही नहीं सकता. अगर उसने ये कहकर मीठा खाने से मना किया है कि उसे शुगर है. तब उसे ज़बरदस्ती मीठा खिलाने की कोशिश न करें.

अगर किसी को इंसुलिन का इंजेक्शन लगाने में परेशानी होती है, तो उसकी मदद करें. अगर कोई खाना खाने से पहले इंसुलिन का इंजेक्शन लगा रहा है, तो उसका मज़ाक न उड़ाएं.

(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)

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