आज आपको एक कहानी सुनाते हैं. स्कूल में मेरी एक क्लासमेट थी. पढ़ने में बड़ी होशियार. एक बार साइंस में उसके 50 में से 48 नंबर आए. अब अमूमन पेरेंट्स इतने अच्छे मार्क्स सुनकर खुश होते हैं. पर उसके पापा ने उसकी क्लास लगा दी. बोले, अड़तालीस तो ठीक हैं. पर ये दो नंबर क्यों कटे? ठीक से पढ़ती क्यों नहीं हो? अब से तुम्हें आधे घंटे के लिए भी फोन नहीं मिलेगा. न बिल्कुल खेलने जाओगी.
बच्चों पर हमेशा गुस्सा और डांट? सुधरेगी नहीं बल्कि बिगड़ जाएगी पढ़ाई और खेल में परफॉर्मेंस
सख़्त पेरेंटिंग की वजह से बच्चों का खुद पर भरोसा कम होने लगता है. बच्चे खुद को कभी अच्छा नहीं मान पाते हैं. उन्हें लगता है कि वे पेरेंट्स की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं.


पता है, ऐसी पेरेंटिंग को क्या बोलते हैं? टाइगर पेरेंटिंग. ऐसे पेरेंट्स बहुत स्ट्रिक्ट होते हैं. वो अपने बच्चों पर ज़रूरत से ज़्यादा दबाव डालते हैं. कभी क्लास में अव्वल आने का. कभी खेल में गोल्ड मेडल जीतने का. कुछ लोग कहते हैं कि इससे बच्चे का परफ़ॉर्मेंस बेहतर होता है. तो वहीं कुछ लोग मानते हैं कि इससे बच्चे में एंग्ज़ायटी बढ़ती है.
आज हम टाइगर पेरेंटिंग पर बात करेंगे. डॉक्टर से जानेंगे कि इस तरह की सख्त पेरेंटिंग बच्चे की मेंटल हेल्थ और आत्मविश्वास पर क्या असर डालती है. क्या टाइगर पेरेंटिंग से बच्चों की पढ़ाई और परफ़ॉर्मेंस सच में बेहतर होती है, या ये सिर्फ़ दबाव बढ़ाती है. किस उम्र के बच्चों को टाइगर पेरेंटिंग से सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचता है. और, स्ट्रिक्ट माता-पिता बैलेंस्ड पेरेंटिंग वाली अप्रोच कैसे अपनाएं.
टाइगर पेरेंटिंग क्या होती है?
ये हमें बताया डॉक्टर रुपिका धुरजाती ने.

टाइगर पेरेंटिंग एक तरीके की अथॉरिटेरियन (दबंग) पेरेंटिंग होती है. इसमें बच्चों पर बहुत सख़्त नियम लगाए जाते हैं. पढ़ाई और परफॉर्मेंस को लेकर उम्मीदें बहुत ज़्यादा होती हैं. बच्चों को आज़ादी और छूट बहुत कम मिलती है.
ऐसी सख्त पेरेंटिंग बच्चे की मेंटल हेल्थ और आत्मविश्वास पर क्या असर डालती है?
ऐसी सख़्त पेरेंटिंग की वजह से बच्चों का खुद पर भरोसा कम होने लगता है. बच्चे खुद को कभी अच्छा नहीं मान पाते हैं. उन्हें लगता है कि वे पेरेंट्स की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं. पढ़ाई और रिज़ल्ट को लेकर उनकी परफॉर्मेंस एंग्ज़ायटी बढ़ जाती है. हर समय डर बना रहता है कि उनके मार्क्स दूसरों से कम तो नहीं हैं. बार-बार तुलना होने से बच्चे स्ट्रेस में जाने लगते हैं. जिस उम्र में बच्चे की पहचान बन रही होती है, उस समय एंग्ज़ायटी और बढ़ जाती है. बच्चे खुद से फैसले नहीं ले पाते. ऐसी पेरेंटिंग से बच्चों में डिप्रेशन होना आम है. क्योंकि, बच्चे अपने जज़्बात दबाने लगते हैं और किसी से शेयर नहीं कर पाते.
टाइगर पेरेंटिंग से बच्चों की परफ़ॉर्मेंस सच में बेहतर होती है?
कई पेरेंट्स को लगता है कि घर में बहुत स़ख्त नियम-कानून होने से बच्चों की परफॉर्मेंस बेहतर होगी और मार्क्स बढ़ेंगे. लेकिन, ये बिल्कुल भी सच नहीं है. घर में बहुत स़ख्ती और पढ़ाई को लेकर ज़्यादा उम्मीदें से बच्चे बर्नआउट होने लगते हैं. इससे उनकी परफॉर्मेंस पर बुरा असर पड़ने लगता है. बच्चे खुद पर भरोसा करना बंद कर देते हैं कि वो बेहतर कर पाएंगे. उनके मन में हर समय खुद को लेकर शक बना रहता है. धीरे-धीरे बच्चों की खुद से दिक्कत का हल ढूंढने की क्षमता कम होने लगती है. किसी भी समस्या में क्रिएटिव तरीके से सोचने और उसका हल निकालने की क्षमता भी कमज़ोर पड़ जाती है.

किन बच्चों को टाइगर पेरेंटिंग से सबसे ज़्यादा नुकसान?
टाइगर पेरेंटिंग का असर दो उम्र में सबसे ज़्यादा देखा जाता है. एक, टॉडलर और दूसरा, टीनएज. टॉडलर उम्र का मतलब है, जब बच्चा चलना शुरू करता है, लगभग 2 से 7 साल तक. इस समय बच्चे के दिमाग का विकास सबसे तेज़ होता है. अगर इस उम्र में बच्चे को सुरक्षित माहौल मिले. उसे खेलने, सीखने और चीज़ें एक्सप्लोर करने की आजादी मिले, तो दिमाग का विकास बेहतर होता है. लेकिन, अगर बच्चे को हर बात पर ना कहा जाए. उसे हर चीज़ के लिए मना किया जाए. खुलकर कुछ करने की छूट न मिले, तो बच्चा डरा-सहमा रहने लगता है. उन्हें हर काम में खुद पर शक होने लगता है कि वो नहीं कर पाएंगे.
दूसरी उम्र है टीनएज यानी 13 से 19 साल की उम्र. इस उम्र में बच्चे की पर्सनालिटी और पहचान बन रही होती है. बहुत सख़्त माहौल की वजह से बच्चे पेरेंट्स से बातें शेयर करना बंद कर देते हैं. कुछ बच्चे बागी बन जाते हैं तो कुछ झूठ बोलने लगते हैं. खासकर ऐसी चीज़ें करते वक्त जिसके लिए उन्हें मना किया गया है. इस उम्र में एंग्ज़ायटी और डिप्रेशन के मामले भी ज़्यादा देखने को मिलते हैं.
बैलेंस्ड पेरेंटिंग वाली अप्रोच कैसे अपनाएं?
हर बच्चा अलग होता है, इसलिए पेरेंटिंग भी उसके हिसाब से होनी चाहिए. पेरेंट्स बच्चे के हिसाब से कभी कम, कभी ज़्यादा अनुशासन रखें. बच्चे की उम्र, उसके दोस्तों और उस समय की ज़रूरतों को देखकर पेरेंटिंग का तरीका बदलते रहें. बच्चों के दिन का एक स्ट्रक्चर होना ज़रूरी है. जैसे उनके सोने और उठने का समय तय हो. खाने और खेलने का भी समय तय हो. इससे बच्चों के दिमाग का विकास बेहतर होता है.
अगर दिन का कोई स्ट्रक्चर न हो, तो बच्चा कन्फ़्यूज़ रहता है कि किस समय क्या करना है. इससे अनुशासन बिगड़ता है. पढ़ाई और खेलने का समय तय न होने पर बच्चा चिढ़चिढ़ा हो जाता है. जब स्ट्रक्चर होता है, तो आधी समस्याएं अपने आप सुलझ जाती हैं.

दूसरा है बच्चों को सपोर्टिव माहौल देना. यानी बच्चे को अपनी भावनाएं खुलकर बताने की आज़ादी हो. उसे खेलने और अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का पूरा मौका मिले. जब बच्चा कुछ बताए तो उसे जजमेंट के साथ नहीं, दिलचस्पी के साथ सुनें. बच्चे को लगे कि वो बिना डर अपने दिन के बारे में सब बता सकता है. इससे बच्चे अपने जज़्बात दबाते नहीं हैं.
बच्चों को बहुत ज़्यादा कंट्रोल में न रखें. उन पर ढेरों नियम थोपने के बजाय उन्हें आज़ादी दें. दूसरे बच्चों से उनकी तुलना न करें. ऐसी अपेक्षाएं रखें, जो वो अपनी उम्र के हिसाब से पूरी कर सकें. अपनी उम्मीदों का बोझ उन पर न लादें. जब हर चीज़ को परफॉर्मेंस से जोड़ दिया जाता है. तब बच्चों को लगने लगता है कि उन्हें प्यार तभी मिलेगा, जब वो फर्स्ट आएंगे. उन्हें डर सताने लगता है कि अगर वो जीत नहीं पाए, तो मम्मी–पापा का प्यार कम हो जाएगा या बाकी लोग उन्हें पसंद नहीं करेंगे. इस सोच को बदलना बहुत ज़रूरी है.
चाहे पढ़ाई हो या प्रैक्टिस, बच्चे ने जो मेहनत की है, उसे सराहें. रैंक और नंबर से ज़्यादा उनके प्रयास की तारीफ़ करें. जब मेहनत की तारीफ़ होती है, तो बच्चों को पढ़ाई में मज़ा आने लगता है. अगर ऐसा नहीं होगा, तो उन्हें पढ़ाई से डर लगने लगेगा. लंबे समय में ये बच्चे और पेरेंट्स के लिए ठीक नहीं है.
बच्चों पर सख्ती बरतने में कोई बुराई नहीं है. पर इसकी भी अति नहीं होनी चाहिए. वरना बच्चा आपसे खुलकर बात नहीं करेगा. पढ़ाई में, खेलने-कूदने में उसका मन लगना बंद हो जाएगा. इसलिए कभी नीम-नीम, कभी शहद-शहद. कभी नरम-नरम, कभी सख्त-सख्त.
(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)
वीडियो: सेहत: 30 की उम्र में ही घुटनों, जोड़ों में दर्द क्यों हो रहा?















.webp)

.webp)


