किच्चा सुदीप की बहुप्रतीक्षित कन्नड़ फ़िल्म 'विक्रांत रोणा' सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है. बहुप्रतीक्षित इसलिए कि इस फ़िल्म का प्रमोशन भयंकर गाजेबाजे के साथ किया गया था. अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके ट्रेलर को अलग-अलग भाषाओं में उस भाषा के सुपरस्टार्स ने लॉन्च किया था. एक दर्जन से ज़्यादा भाषाओं में रिलीज़ हुई 'विक्रांत रोणा' कैसी है? उसमें क्या खास और क्या आम है? आज उसी पर बात करेंगे.
मूवी रिव्यू: विक्रांत रोणा
फ़िल्म कुछ क्लीशेज़ और स्टीरियोटाइप्स से ख़ुद को बचाती, तो एक बेहतर फ़िल्म की श्रेणी में पहुंच सकती थी.


'विक्रांत रोणा' की कहानी क्या है?
एक घना वर्षा वन यानी रेन फॉरेस्ट है, जहां सूरज चाचू की पैठ नॉमिनल है. उसी के बीचोबीच बसा है एक गांव, नाम है कमरोट्टू. जहां सिलसिलेवार ढंग से हत्याएं हो रही हैं. वहां एक भुतहा घर है और एक भुतहा मंदिर, दोनों बंद हैं. कहानी में कुछ ऐसी सिचुएशन बनती है कि घर खोला जाता है. वहीं से पैदा होता है थ्रिल. उस थ्रिल को नेक्स्ट लेवल पर ले जाने और क़ातिल को पकड़ने के लिए नया इंस्पेक्टर आता है, विक्रांत रोणा. कमाल ये है कि स्क्रीन के इस पार से कमरोट्टू का हर व्यक्ति विक्टिम और हर दूसरा व्यक्ति सस्पेक्ट नज़र आता है.
फिल्म ऑडियंस के साथ गेसिंग गेम खेलती है
दो तरह के सस्पेंस थ्रिलर होते हैं. एक जिसमें क़ातिल कौन है ये पता होता है और उसकी खोज चलती है. दूसरी, जिसमें क़ातिल का पता नहीं होता, पर शक़ सब पर होता है. अंधेरे में तीर मारा जाता है. सभी डॉट्स कनेक्ट किए जाते हैं और क़ातिल को ढूंढ निकाला जाता है. 'विक्रांत रोणा' दूसरे तरह की सस्पेंस थ्रिलर है. कहानी बढ़िया बुनी गई है. उस कहानी को अनूप भंडारी ने स्क्रीनप्ले में भी ठीक ढंग से ढाला है. कुछ पहलुओं को जाने दें, तो इसे कसा हुआ स्क्रीनप्ले कह सकते हैं. यदि इसमें गाने थोड़े कम होते, पन्ना और संजू के लव एंगल को राइटर्स बस ठक से छूकर वापस आ जाते या उस गली न भी जाते, तो स्क्रीनप्ले रिच ही होता. पूरी कहानी में सस्पेंस बना रहता है. हर दूसरे सीन में कहानी की नई परत खुलती है. थ्रिल पैदा करने की ये अच्छी तकनीक है. ऐसी फिल्में हमें स्टोरी गेस करने का मौक़ा देती हैं. ‘विक्रांत रोणा’ भी गेसिंग गेम खेलने के कई मौक़े देती है. एकाध जगह को छोड़ दें तो ये हमारी सोच से परे जाकर परफॉर्म करती है. हां, कुछ-कुछ बातें समझ नहीं आती हैं जैसे विक्रम का ब्रह्मराक्षस बनकर नाचना, और भी दो-चार पहलू हैं पर वो स्पॉइलर की श्रेणी में आ जाएंगे.
थ्रिलर के लगभग सभी एलिमेंट्स को कवर करती है 'विक्रांत रोणा'
फ़िल्म का डायरेक्शन भी अनूप भंडारी ने किया है. एक सस्पेंस थ्रिलर को कैसे डायरेक्ट किया जाता है, अनूप इसका एक बेहतरीन नमूना पेश करते हैं. पर वो भी कई तरह के क्लीशेज से बच नहीं पाते. ख़ासकर लड़की को ऑब्जेक्ट की तरह पेश करना. बिना मतलब का लड़के का लड़की को रिझाने के लिए गाने गाना. एक लार्जन दैन लाइफ हीरो की तरह किच्चा सुदीप को दिखाया जाना. वही अकेला आदमी फ़िल्म की शुरुआत में 20 आदमियों को मार-पीटकर किनारे लगा दे रहा है. क्लाइमैक्स में दो आदमी भी उस पर भारी पड़ रहे हैं. दुःखद घटना. ख़ैर, अनूप भंडारी ने सस्पेंस पैदा करने के लिए अंधेरे और जंगल का बहुत बढ़िया प्रयोग किया है. फ़िल्म का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा अंधेरे में ही घटता है. लो की लाइटिंग का इस्तेमाल शानदार ढंग से किया गया है. एक अच्छी थ्रिलर के लगभग सभी एलिमेंट्स को फिल्म कवर करती है. जैसे: तगड़ी ओपनिंग, मल्टीपल पॉइंट ऑफ व्यूज़, क्लिफहैंगर्स और धांसू एंडिंग.
क्लाइमैक्स में फ़िल्म तगड़ा माहौल बनाती है
एंडिंग के तो क्या कहने. जो माहौल बनाया गया है, गज़ब है. क्लाइमैक्स का फाइटिंग सीक्वेंस भी कमाल है. बहुत दिनों के बाद कोई ऐसी ऐक्शन पैक्ड सस्पेंस थ्रिलर देखने को मिली है, जो अंत में भरभराकर गिरती नहीं है. इसका अंत फ़िल्म के लेवल को और ऊंचा उठा देता है. एक समय पर लगता है कि कोई प्ले चल रहा है. दो अजब पहनावे वाले लोग, दानव की तरह किच्चा सुदीप पर टूट पड़ते हैं. इस सीक्वेंस में अजनीश लोकनाथ का म्यूजिक अहम भूमिका अदा करता है. इनफैक्ट पूरी फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर ही धांसू है. अनूप भंडारी की कंपोज़ की हुई लोरी 'राजकुमारी' भी सुंदर है. सेट डिज़ाइन और आर्ट डायरेक्शन उम्दा है. कॉस्ट्यूम डिपार्टमेंट ने भी बढ़िया काम किया है. सिनेमैटोग्राफी और एडिटिंग इस फ़िल्म की जान हैं. कहते हैं एक खराब फिल्म को भी अच्छी एडिटिंग ठीक फ़िल्म बना देती है. ये फिल्म तो पहले से ही सही है, अच्छी एडिटिंग इसे और अच्छी फ़िल्म बना देती है.

विक्रांत रोणा के रोल में किच्चा सुदीप ने बढ़िया ऐक्टिंग की है. उनकी संवाद अदायगी अच्छी लगती है. वो जब-जब स्क्रीन पर आते हैं, एक अलग एनर्जी लेकर आते हैं. निरूप भंडारी ने संजीव के रोल में सही काम किया है. अपर्णा के रोल में नीता अशोक भी ठीक लगी हैं. वज्रधीर जैन और वासुकी वैभव ने अपने-अपने रोल बहुत अच्छे ढंग से निभाए हैं. फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले बात हो रही थी कि जैकलीन फर्नांडिस एक अहम भूमिका में होंगी. अहम भूमिका तो नहीं, वो बस हैं. राम जाने क्यों ही हैं? शायद उन्हें एक ख़ास किस्म की ऑडिएंस को थिएटर लाने के लिए इस्तेमाल भर किया गया है.
कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये है कि फ़िल्म कुछ क्लीशेज़ और स्टीरियोटाइप्स से ख़ुद को बचाती, तो एक बेहतर फ़िल्म की श्रेणी में पहुंच सकती थी. ये तो मेरी राय है. आप जाइए फ़िल्म देखकर आइए और अपनी राय खुद बनाइए.
………………
मूवी रिव्यू: फॉरेंसिक