एक एक्टर. जो जितना बड़ा कलाकार है, उतना ही बड़ा बहरूपिया. फिल्म इंडस्ट्री में लोगों के छद्म नाम होते हैं. लेकिन इस एक्टर का सिर्फ नाम ही छद्म नहीं, ये छद्म रूपों का भी उस्ताद है. खुद की काया ऐसे बदलते हैं कि एक से दूसरी फिल्म में इन्हें कोई पहचान ना पाए. वजन घटाना हो या बढ़ाना. इतनी जल्दी करते हैं कि थानोस की चुटकी भी स्लो लगने लगे. इसी वजह से अपने फैन्स को चिंता में भी डाल देते हैं. लेकिन जो भी हो, फैन्स अपने इस सुपरस्टार पर भरपूर प्यार लुटाते हैं. हाल ही में उनकी एक फिल्म आई थी. ‘कोबरा’. उसमें भी यही सब करते दिख रहे हैं. ये एक्टर हैं विक्रम. ‘कोबरा’ के बाद उनकी अब एक और बड़ी फिल्म आ रही है, 'पोन्नियिन सेलवन'. चोल साम्राज्य पर आधारित फिल्म. जहां विक्रम आदित्य करिकालन के किरदार में नज़र आएंगे.
जब तमिल सुपरस्टार विक्रम का घातक एक्सीडेंट हुआ और डॉक्टर्स ने बोला पैर काटना पड़ेगा
एक एक्टर. जो जितना बड़ा कलाकार है, उतना ही बड़ा बहरूपिया.

बात करेंगे तमिल सिनेमा के इसी सुपरस्टार की. जानेंगे उनके करियर से जुड़े किस्से. उनकी लाइफ की स्टोरी. साथ ही उनके करियर की बेस्ट परफॉरमेंसेज़ क्या रही हैं.

# एक ही ज़िद - एक्टिंग, एक्टिंग, एक्टिंग
17 अप्रैल, 1966. जॉन विक्टर और राजेश्वरी के घर एक बेटे का जन्म हुआ. नाम पड़ा कैनेडी जॉन विक्टर. विक्रम तो ये आगे जाकर कहलाए. कैनेडी से विक्रम बनने तक के लंबे सफर पर भी बात करेंगे. लेकिन उससे पहले जॉन विक्टर की बात की जानी जरूरी है. वो इंसान जो विक्रम के लिए पहली प्रेरणा बना. कच्ची उम्र में जॉन को सिनेमा का चस्का लग गया. तमन्ना थी कि खुद को बड़े परदे पर देखें. लोग उन्हें देखने के लिए लंबी कतार में लगकर टिकट खरीदें. यही सोचकर घर से भाग निकले. एक्टर बनने के लिए. लेकिन हकीकत उनके सपनों से कोसों दूर थी. लीड एक्टर बनने की उनकी तमन्ना सिर्फ साइड रोल्स तक सिमटकर रह गई. स्क्रीन पर विनोद राज के नाम से पहचाने जाने वाले जॉन ने लगभग 10 फिल्मों में काम किया. लेकिन सभी सपोर्टिंग रोल्स. थलपति विजय की फिल्म ‘घिल्ली’ उनके करियर की सबसे यादगार फिल्म रही. जहां उन्होंने तृषा कृष्णन के पिता का किरदार निभाया था.

पिता की तरह कैनेडी में भी सिनेमा को लेकर एक खास तरह की ललक थी. खासतौर पर एक्टिंग को लेकर. छोटी उम्र से ही स्कूल में होने वाले स्टेज प्ले में हिस्सा लेने लगे. जब करीब आठ-नौ साल के होंगे, तब स्कूल में एक प्ले हुआ. कैनेडी भी प्ले का हिस्सा थे. छोटा सा रोल था. इतना कि कुछ मिनट स्टेज पर रहते और फिर गायब. लेकिन उन चंद मिनटों ने उन्हें वो सब महसूस करवा दिया, जिससे वो अब तक अनजान थे. वो परफॉर्म करने की फीलिंग. स्टेज पर आकर किरदार को अपनी आवाज़ देने वाली फीलिंग. उस दिन के बाद एक्टिंग उनके लाइफ की केंद्रबिंदु बन गई. उसके बाद जो भी काम करते, यही सोचकर करते कि ये शायद आगे उन्हें एक्टर बनने में मदद करेगा. क्रिकेट खेलते समय बॉल बाहर जाती, तो दीवार फांदकर बॉल लाने जाते. कि क्या पता दीवार फांदने की प्रैक्टिस आगे एक्टिंग में काम आ जाए.

पिता का करियर ग्राफ देखकर कैनेडी एक बात समझ चुके थे. कि एक्टिंग में बिना तैयारी के उतरना समझदारी नहीं. इसी वजह से अपने स्कूल के दिनों में खुद को थिएटर के प्रति समर्पित कर दिया. डांस, कराटे, स्विमिंग, सब मन लगा कर सीखा.
# एक्सीडेंट हुआ और पैर काटने की नौबत आ गई
स्कूल खत्म होने को आ गया. कैनेडी की इच्छा हुई कि अपने एक्टिंग टैलेंट को सिर्फ स्टेज तक सीमि ना रखा जाए. बड़े परदे से भी इसका परिचय हो. अपनी इच्छा पिता को बताई. कि स्कूल खत्म कर आगे नहीं पढ़ना चाहते. फिल्मों में काम करना चाहते हैं. पिता के फिल्मी दुनिया में कुछ अलग ही अनुभव रहे थे. जो उतने रंगीन नहीं साबित हुए जितनी कि कल्पना की थी. अपने अनुभवों को आधार बनाकर उन्होंने कैनेडी को रोका. कहा कॉलेज जाओ. अपनी पढ़ाई पूरी करो. उसके बाद करना जो जी में आए. कैनेडी की एंट्री हुई चेन्नई के लोयोला कॉलेज में. लेकिन एक्टिंग से कितना ही दूर रह पाते. कॉलेज की ड्रामा सोसायटी में शामिल हो गए. कई कॉलेजों में जाकर प्ले करने लगे. इंटर कॉलेज थिएटर फेस्टिवल्स में हिस्सा लेने लगे. यहां इनके परफॉरमेंस के हिस्से सिर्फ तारीफ़ें ही नहीं आई. बल्कि, अवॉर्ड भी आए.

इन्हीं में से दो प्ले थे. ‘द केन म्यूटनी कोर्ट मार्शल’ और ‘ब्लैक कॉमेडी’. ‘ब्लैक कॉमेडी’ का तो प्लॉट ही मज़ेदार है. अंधेरे और रोशनी की कहानी है. जब किरदार रोशनी में होंगे, तो स्टेज का बाकी हिस्सा अंधेरे में. और जब किरदार अंधेरे में, तो बाकी स्टेज जगमगा रहा होगा. खैर, इन दोनों प्ले में अपनी परफॉरमेंस के लिए कैनेडी को कई मौकों पर बेस्ट एक्टर के अवॉर्ड मिले. कैनेडी के प्ले ‘ब्लैक कॉमेडी’ की परफॉरमेंस आईआईटी मद्रास में हुई. जहां इंटर कॉलेज फेस्टिवल चल रहा था. प्ले खत्म हुआ. पर्दा गिरते ही हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. जनता ने खड़े होकर स्टैंडिंग ओवेशन दिया. ऐसे रिस्पॉन्स के बाद कैनेडी को समझ आ गया कि उनकी मंज़िल क्या है. लेकिन इस बात से बेखबर थे कि उसी रात उनके सपनों को ग्रहण लगने वाला है.

अवॉर्ड जीतने की खुशी में मस्त कैनेडी अपने दोस्त के साथ घर लौट रहे थे. दोनों बाइक पर थे. तभी अचानक पीछे से एक ट्रक उनकी बाइक को टक्कर मारकर गायब हो गया. दाहिने घुटने से नीचे की हड्डी चकनाचूर हो गई. स्किन और सॉफ्ट टिशू ऐसे डैमेज हुए कि मानो सुधार की कोई गुंजाइश ही ना हो. इससे पहले और ज़्यादा नुकसान हो, डॉक्टर्स ने पैर काटने की सलाह दी. कैनेडी की मां ने साफ इनकार कर दिया.
इसके बाद आया तिल-तिल कर तड़पने वाला समय. तीन साल का लंबा समय. ऐसा समय जब कैनेडी पूरी तरह बेड रेस्ट पर रहे. चलने के नाम पर सिर्फ बैसाखियों का सहारा. सारी जद्दोजहद थी पैर बचाने की. 23 बार सर्जरी की गई. कैनेडी ने बहुत कुछ सहा. दर्द से चीखे, रोए. लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी.

थोड़ा ऑफ टॉपिक है. पर कैनेडी के इस स्ट्रगल को देखकर एक बात याद आती है. विक्टर फ्रैनकल की बुक ‘मैन्स सर्च फॉर मीनिंग’ में लिखी बात. कि अगर इंसान की ज़िंदगी में कोई मकसद है, तो वो हर विषम परिस्थिति को पार कर लेता है. अपने मकसद को अपने जीने की वजह बना लेता है. कैनेडी इस बात का जीवंत उदाहरण बने. एक्टर बनने की इच्छा ने उन्हें सामने आई हर मुश्किल से उभारा.
# स्टारडम अभी भी नसीब में नहीं था
पैर ठीक हो गया. अब टाइम आ गया था कैनेडी से विदा लेने का. कैनेडी नाम उन्हें वैसे ही पसंद नहीं था. आगे भी अपनी किसी फिल्म के टाइटल में वो ‘स्टारिंग कैनेडी’ नहीं देखना चाहते थे. नया नाम अपनाया. विक्रम. बतौर मॉडल कुछ एड्स किए. इसी दौरान एक टीवी शो मिल गया. नाम था ‘गलट कुदुंबम’. फिर मिली वो, जिसकी सालों से तलाश थी. पहली फीचर फिल्म. नाम था ‘एन कादल कनमणी’. 1990 में रिलीज हुई ये फिल्म एक लव स्टोरी थी. बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित हुई. इसके बाद दो और फिल्में की. ‘थंतु वित्तन एनाई’ और ‘मीरा’. दोनों रोमांटिक फिल्में. लेकिन ये भी विक्रम के करियर को लॉन्च करने में नाकाम साबित हुईं. तमिल सिनेमा में प्रॉपर लॉन्च ना मिल पाने से निराशा तो हुई, लेकिन हार नहीं मानी. गेम प्लान बदला. फोकस शिफ्ट किया तेलुगु और मलयालम सिनेमा की ओर. वहां से उन्हें फिल्म ऑफर भी आ रहे थे.

मलयालम सिनेमा में इन्होंने दस्तक दी 1993 में आई ‘ध्रुवम’ से. लीड में थे मलयालम सिनेमा के दिग्गज, ममूटी, सुरेश गोपी और जयराम. फिल्म हिट साबित हुई. अपनी अगली ही फिल्म ‘माफिया’ में सुरेश गोपी के साथ फिर काम करने का मौका मिला. अंडरवर्ल्ड पर बनी इस फिल्म पर जनता ने हॉल में खूब तालियां पीटी. फिर आई ‘सैन्यम’. सुपरस्टार ममूटी के साथ. एयर फोर्स को समर्पित इस फिल्म में विक्रम ने एयर फोर्स कैडेट का रोल किया. विक्रम अब तेलुगु सिनेमा की गहराई भी नापना चाहते थे. यही सोचकर ‘चिरूनावूला वरमिस्तव’ साइन की. फिल्म नहीं चली. इसके ठीक अगले साल एक और तेलुगु फिल्म की. ‘बंगारु कुटुंबम’. फिल्म थिएटर भरने को स्ट्रगल करती दिखी. नतीजा, बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित हुई.

उधर तमिल सिनेमा ने मानो विक्रम नाम के किसी एक्टर से जैसे आंखें ही फेर ली थी. उन्हें तमिल फिल्मों के ऑफर ना के बराबर मिलने लगे. एक्टिंग बहुत महंगा सपना है इस बात से वो पूरी तरह अवगत थे. तमिल नहीं तो बाकी ही सही. मलयालम और तेलुगु सिनेमा बना उनके खर्चे-पानी का जुगाड़. आंध्र से केरल घूम-घूमकर फिल्में करते रहे. सिर्फ एक्टिंग को ही अपने जेब खर्चे का साधन नहीं बनाया. फिल्मों में डबिंग भी करने लगे. सुपरस्टार बनने आया एक एक्टर अब बतौर डबिंग आर्टिस्ट काम कर रहा था. लेकिन अपने इस काम को उन्होंने कभी नीची नज़रों से नहीं देखा. विक्रम खुद मानते हैं कि उन्होंने ममूटी और मोहनलाल की फिल्मों में डबिंग करके उनसे नैचुरल एक्टिंग सीखी. उसी दौर में एक और सुपरहिट फिल्म में अपनी आवाज़ दी. प्रभु देवा और नगमा की ‘कादलन’. हिंदी में आप इसे ‘हमसे है मुकाबला’ नाम से पहचान जाएंगे. फिल्म ना भी देखी हो तो इसके गाने जरूर सुने होंगे. अपने समय के बड़े हिट थे. खासतौर पर दो. ‘मुकाबला मुकाबला’ और ‘उर्वशी उर्वशी’.

# उस फिल्म ने किस्मत बदली जिसे कोई नहीं देखना चाहता था
साल 1999. विक्रम को इंडस्ट्री में करीब 10 साल हो चुके थे. लेकिन फ्लॉप फिल्मों का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था. उनके बाद आए विजय और अजित जैसे एक्टर्स हिट हो चुके थे. लेकिन विक्रम को अब तक अपने करियर के पहले मील के पत्थर का इंतज़ार था. फिर आई वो फिल्म. सब बदल के रख देने वाली फिल्म. विक्रम को अब तक ओवररेटेड समझने वालों को उनका फैन बनाने वाली फिल्म. नाम था ‘सेतु’. 1999 में आई इस फिल्म पर बात करने के लिए दो साल पहले चलते हैं. साल 1997. असिस्टेंट डायरेक्टर बाला ने एक कहानी लिखी. कॉलेज दबंग चियान की, जो एक मासूम सी लड़की के प्यार में पड़ जाता है. आगे प्यार मुकम्मल ना होने पर पागल हो जाता है. कहानी लेकर कई एक्टर्स के पास पहुंचे. लेकिन कोई ऐसी डार्क फिल्म करने को राज़ी नहीं हुआ. फिर कहानी सुनाई विक्रम को. वो तो जैसे ऐसी ही किसी कहानी का वेट कर रहे थे. झट से हां कर दी.

लेकिन बाला की एक शर्त थी. जब तक ‘सेतु’ करोगे, हर दूसरी फिल्म से तौबा करना होगा. विक्रम भी किरदार को अपनाने में लग गए. सिर मुंडवा लिया. डाइट ऐसी लेने लगे कि 21 किलो वजन हवा कर दिया. नाखून बढ़ाए. फिल्म की शूटिंग शुरू हुई. साथ ही शुरू हुई तमिल फिल्म इंडस्ट्री में हड़ताल. फिल्म को छह महीने पीछे धकेल दिया. धीरे-धीरे ये छह महीने एक साल में तब्दील हो गए. इस दौरान विक्रम कोई और फिल्म भी नहीं साइन कर पाए. वरना उनके लुक की कंटीन्यूटी बिगड़ जाती. लगा था कि फिल्म तीन महीने में पूरी हो जाएगी. पर डेढ़ साल गुज़र चुका था. और फिल्म अधूरी ही थी. आखिरकार, पूरे दो साल बाद फिल्म बनकर तैयार हुई. फिल्म के प्रीव्यू लोगों को दिखाए गए. हर तरफ से तारीफ़ें बरसी. लोग विक्रम को तमिल सिनेमा की खोज बताने लगे. लगा कि आखिरकार अच्छे दिन आ ही गए. लेकिन ये खुशी कुछ पल की थी.

क्यूंकि कोई भी डिस्ट्रिब्यूटर फिल्म खरीदने को तैयार नहीं हुआ. फिल्म के एंड में जहां हीरो की ऐसी दुर्दशा हो गई हो, ऐसी फिल्म के साथ कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था. कोई और चारा ना देख, प्रोड्यूसर ने खुद ही फिल्म रिलीज़ कर दी. एक और समस्या आई. फिल्म रिलीज़ तो हुई लेकिन कोई थिएटर दिखाने को तैयार नहीं. जैसे-तैसे करके एक थिएटर में दोपहर का शो मिला. विक्रम भी शो में पहुंचे. हॉल लगभग खाली था. अपनी तपस्या का ये हाल होता देख उनकी रुलाई फूट पड़ी. फिर आया कहानी में ट्विस्ट. मेकर्स के पास मार्केटिंग का बड़ा बजट नहीं था. फिल्म वर्ड ऑफ माउथ के भरोसे ही थी. यही वर्ड ऑफ माउथ इसका तारणहार बना. धीरे-धीरे थिएटर भरने लगे. शो बढ़ने लगे. देखते ही देखते फिल्म ने चेन्नई में अपने 75 दिन पूरे कर लिए. सबको चौंकाते हुए एक बड़ी हिट साबित हुई. ऐसा परचम लहराया कि ‘सेतु’ के बाद विक्रम को कभी पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी. अपनी कामयाबी को सिर्फ बॉक्स ऑफिस तक सीमित नहीं रखा. बेस्ट फीचर फिल्म इन तमिल का नैशनल अवॉर्ड भी अपने नाम किया. फिल्म का खुमार ऐसा चढ़ा कि विक्रम ने अपने नाम के आगे ‘चियान’ को टाइटल स्वरूप जोड़ लिया. ‘सेतु’ के कई भाषाओं में रीमेक भी बने. 2003 में आई सलमान खान की फिल्म ‘तेरे नाम’ इसका हिंदी रीमेक ही थी.
# खूब मशक्कत के बाद मणि रत्नम की फिल्म मिली
मणि रत्नम. तमिल सिनेमा के कद्दावर डायरेक्टर. हर इंडियन एक्टर का सपना होता है उनके साथ काम करने का. विक्रम का भी था. 1993 में उनका ये सपना हकीकत भी होने वाला था. दरअसल, उस समय मणि रत्नम अपनी टेररिज़्म ट्रिलजी की दूसरी फिल्म पर काम कर रहे थे. फिल्म थी ‘बॉम्बे’. इससे पहले ‘नायकन’ और ‘रोजा’ जैसी फिल्में देकर इंडस्ट्री में अपनी धाक जमा चुके थे. वहीं, विक्रम की फिल्मोग्राफी में सिवा फ्लॉप फिल्मों के कुछ और ना था. मणिरत्नम ने विक्रम को ‘बॉम्बे’ ऑफर की. फौरन ही विक्रम तैयार हो गए. यहां तक कि फिल्म की फीमेल लीड मनीषा कोइराला के साथ शुरुआती फोटोशूट भी कर लिए. लेकिन यहां एक अड़चन पैदा हो गई. उस समय विक्रम दूसरी फिल्म पर भी काम कर रहे थे. जिसमें अपने रोल के लिए उन्हें लंबी दाढ़ी रखनी थी. मणि रत्नम ने एक बात साफ कर दी. ‘बॉम्बे’ के लिए दाढ़ी कटवानी पड़ेगी. विक्रम धर्मसंकट में फंस गए. मणि रत्नम के साथ काम भी करना चाहते थे. पर दूसरी फिल्म को लेकर अपनी कमिटमेंट भी नहीं तोड़ सकते थे. ना चाहते हुए भी भारी मन से मणि रत्नम को ना कहना पड़ा.

ये बात आई-गई हुई. मणि रत्नम के साथ काम करने का फिर मौका आया. लगभग सात साल बाद. फिल्म थी 2000 में आई आर माधवन स्टारर ‘अलैपयुते’. लेकिन विक्रम को लीड रोल नहीं ऑफर हुआ था. ऑफर हुआ था तो एक सपोर्टिंग किरदार. इस पॉइंट तक विक्रम असंख्य सपोर्टिंग किरदार निभा चुके थे. साइड रोल्स से पूरी तरह खप चुके थे. तो इस बार मज़बूरी में नहीं बल्कि जानबूझकर मना करना पड़ा. फिर आया तीसरा मौका. जहां विक्रम की ‘द मणि रत्नम फिल्म’ करने की तमन्ना पूरी हुई. फिल्म थी ‘रावणन’. आपको ये नाम सुनकर अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय वाली ‘रावण’ याद आई होगी. दरअसल, ये दोनों ही मणि रत्नम की फिल्में हैं. जिनकी शूटिंग साथ ही हुई. कास्ट में ऐश्वर्या और विक्रम का नाम आपको दोनों फिल्मों में मिलेगा. दोनों जगह ऐश्वर्या का किरदार सेम था. वहीं, विक्रम अलग-अलग रोल में दिखे. जो कि किसी चैलेंज से कम नहीं था. तमिल वर्ज़न में इन्होंने आदिवासी लीडर का किरदार निभाया, जो ऐश्वर्या के किरदार को किडनैप कर लेता है. हिंदी वर्ज़न में वो पुलिसवाले बने, जिसकी बीवी बनी ऐश्वर्या को किडनैप किया जा चुका है. और अब वो उसे ढूंढने निकला है.

मणि रत्नम की इस अप्रोच से विक्रम थोड़ा झिझक रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि एक ही साथ दो ऐसे विपरीत किरदार कैसे निभाएंगे. लेकिन शूट करते समय ये सारे डर हवा हो गए. विक्रम अपने रंग में आ गए. 45 मिनट. सिर्फ 45 मिनट. इतना ही टाइम लगा विक्रम को आदिवासी लीडर वीरैया से इंस्पेक्टर देव बनने में. फिल्म के दोनों वर्ज़न रिलीज़ हुए. तमिल वर्ज़न हिट साबित हुआ. वहीं, हिंदी वर्ज़न को एवरेज रिव्यू मिले. देश दुनिया में जनता ने विक्रम की तारीफ़ों के पुल बांध दिए. इसे मणि रत्नम का ‘मास्टर स्ट्रोक’ बताया गया.
विक्रम और मणि रत्नम ने अपनी पार्टनरशिप को सिर्फ यहीं तक नहीं रोका. अगले साल भी दोनों की बड़े बजट की फिल्म आ रही है. नाम है ‘पोनियिन सेलवन’.
# रुकना मना है टाइप करियर
विक्रम की लाइफ स्टोरी में आपको दो शब्द बार-बार आते दिखेंगे. ‘लेकिन’ और ‘पर’. बावजूद इनके विक्रम ने कभी अपने करियर पर इन्हें अंकुश नहीं लगाने दिया. दस साल धक्के खाकर अपनी पहली सफलता का स्वाद चखा. 1990 से शुरू हुए अपने करियर में अब तक करीब 60 फिल्में दे चुके हैं. और जिस रफ्तार पर चल रहे हैं, उसे देखकर ये नहीं कहा जा सकता कि उनके नाम के आगे हाल-फलहाल में ‘बीते ज़माने का एक्टर’ लिखा जाएगा. उनके इसी कमाल के करियर में से हमने कुछ टाइमलेस परफॉरमेंसेज़ निकाली हैं. आइए जानते हैं.
#1. पिथामगन (2003)
विक्रम और बाला की जोड़ी एक बार फिर लौटी. ‘पिथामगन’ कहानी है चित्तन की. एक कब्र खोदने वाला. जिसकी सारी ज़िंदगी बस कब्रिस्तान और मुर्दों के इर्द-गिर्द ही निकली है. बाहर की दुनिया और उसके तौर तरीकों से वो पूरी तरह अनजान है. चित्तन की तैयारी के लिए विक्रम ने अपने बाल रंगे. दांतों को मैला किया. नाखून बढ़ाए. उन्हें गंदा किया. फटे-पुराने कपड़े पहने. फिल्म में विक्रम का कोई डायलॉग नहीं था. अपने किरदार का सारा भार उनकी बॉडी लैंग्वेज पर था. जो कि उन्होंने बखूबी उठाया भी. इस परफॉरमेंस के लिए उन्हें अपने करियर का पहला बेस्ट एक्टर का नैशनल अवॉर्ड मिला था.

#2. कासी (2001)
2001. वो वक्त जब अक्सर तमिल हीरो दो ही चीज़ें करते थे. हीरोइन का पीछा या विलेन से मुक्का-लात. विक्रम ने दिखाया कि हीरो की पहचान सिर्फ इन दो कामों से ही नहीं. ऑफ बीट फिल्में की. उन्हीं में से एक थी ‘कासी’. जहां विक्रम ने गांव के एक अंधे गायक का किरदार निभाया. अपने किरदार के जैसा दिखने के लिए विक्रम ने खुद को धूप में तपाया. मतलब लिटरली. इसी वजह से उन्हें चक्कर भी आने लगते थे. ये सारी मेहनत रंग लाई. ऑडियंस ने फिल्म में उनके काम को खूब पसंद किया. यहां तक कि बेस्ट एक्टर के फिल्मफेयर अवॉर्ड से भी नवाज़े गए.

#3. धिल (2001)
‘सेतु’ के बाद विक्रम के पास बेशुमार फिल्म ऑफर्स आए. लेकिन वो दुविधा में थे. कि कहीं गलत फिल्म साइन करके इतने सालों की मेहनत ना खराब कर बैठें. इसलिए अगले दो महीनों तक किसी फिल्म को हां नहीं किया. फिर आखिरकार एक फिल्म साइन की. ‘धिल’. आगे जाकर विक्रम की पहली सफल मसाला फिल्म बनी. इस फिल्म की कामयाबी से दिखा दिया कि जो कमाल ‘सेतु’ में किया, वो कोई तुक्का नहीं था. फिल्म के तेलुगु, कन्नड, हिंदी और बांग्ला रीमेक भी बने. 2003 में आई विवेक ओबेरॉय की फिल्म ‘दम’ इसका हिंदी रीमेक थी.

#4. अन्नियन (2005)
‘अन्नियन’. वो फिल्म जिसने तमिलनाडु के स्टार विक्रम को राजस्थान तक पॉपुलर कर दिया. ये बात अलग है कि नॉर्थ बेल्ट की जनता इसे ‘अपरिचित’ के नाम से जानती है. कहानी है अम्बी की. एक भोला-भाला वकील जो मल्टीपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर से जूझ रहा है. अपने आसपास होता भ्रष्टाचार उससे देखा नहीं जाता. इसलिए दोषियों को सज़ा देने के लिए अम्बी ‘अन्नियन’ बन जाता है. फिल्म के डायरेक्टर थे एस शंकर. जो अपनी ‘लार्जर दैन लाइफ’ फिल्मों के लिए मशहूर हैं. ‘अन्नियन’ का भी बजट करीब 25 करोड़ रुपए था. जो उस समय की फिल्मों के हिसाब से काफी ज़्यादा था.

#5. आई (2015)
विक्रम ने अपने एक पुराने इंटरव्यू में कहा था. कि बस मणि रत्नम और शंकर के साथ एक-एक फिल्म करने का मौका मिल जाए, उसके बाद रिटायर भी होना पड़े तो कोई गम नहीं. शंकर के साथ उनकी ये इच्छा दो बार पूरी हुई. पहले ‘अन्नियन’ में और फिर ‘आई’ में. फिल्म में विक्रम दो अवतारों में दिखे. पहला, बॉडी बिल्डर लिंगेसन का. दूसरा, दुबले-पतले कुबड़े इंसान का.

अपने रोल के लिए विक्रम ने अपना सिर मुंड़वाया. वजन घटाया. इतना कि एक पॉइंट पर फिल्म क्रू तक के लोग इन्हें पहचान नहीं पाते थे. फिल्म को एवरेज रिव्यू मिले. लेकिन सब ने विक्रम की अपने काम के प्रति उनकी डेडिकेशन की जमकर तारीफ की. अपने इस रोल के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला था.