एक लड़का है. बचपन से ही उसे हॉकी खेलने का कोई ज़्यादा शौक नहीं रहा है. इसके पीछे का कारण है उसका कोच. जो अपना काम एकदम कड़ाई से करता है. इस दौरान कई बार हिंसा का भी सहारा ले लेता है. लेकिन एक लड़की हरप्रीत (तापसी पन्नू) के प्रेम में पड़कर वो हॉकी खेलने लगता है. उसका बड़ा भाई, जो खुद एक हॉकी प्लेयर है लेकिन नेशनल टीम सेलेक्ट नहीं हो पाया. वो उसे एक दिन हॉकी से चिड़े उड़ाते देखकर उसके ड्रैग फ्लिक से इंप्रेस हो जाता है. वो उसे ट्रेनिंग के लिए नेशनल कोच के पास ले जाता है और संदीप की हॉकी प्लेयर बनने की जर्नी शुरू होती है. कुछ ही दिन में वो इंडियन टीम में सेलेक्ट हो जाता है. फिल्म का फर्स्ट हाफ यहां तक की कहानी दिखाता है और इंटरवल से पहले से एक किकर देकर जाता है. ये किकर एक मेजर एक्सीडेंट होता है. जिन्हें संदीप सिंह की कहानी नहीं पता उनके लिए ये स्पॉयलर हो जाएगा.
इस एक्सीडेंट से संदीप कैसे उबरकर टीम में वापसी करते हैं, ये वाला हिस्सा फिल्म के दूसरे पार्ट में दिखता है. लेकिन इसमें एक कमाल की चीज़ होती है. संदीप और हरप्रीत की लव स्टोरी. पीछे हमें 'सुल्तान' में ऐसा कुछ देखने को मिला था कि लड़का, किसी लड़की के प्यार में पड़कर कोई स्पोर्ट खेलना शुरू करता है और उसकी ऊंचाई तक पहुंच जाता है. लेकिन इसमें वो चीज़ थोड़ी अलग है. हरप्रीत नहीं चाहती कि संदीप सिर्फ उसके लिए खेले. वो चाहती है कि वो हॉकी के लिए खेले. देश के लिए खेले.

इसके बाद तापसी अमिताभ बच्चन स्टारर फिल्म 'बदला' में दिखाई देंगी.
फिल्म का एक सीन है, जिसमें संदीप के एक्सीडेंट के बाद हरप्रीत उससे मिलने के लिए विदेश से अपना टूर्नामेंट बीच में छोड़कर आ जाती है. लेकिन संदीप से मिलने के बाद वो बहुत निराश होती है और वापस लौट जाती है. क्योंकि संदीप को हॉकी नहीं हरप्रीत चाहिए.
फिल्म की ये चीज़ सबसे खास है. यहां हीरो-हीरोइन के लिए या पुरुष महिला के लिए नहीं है. वो अपने लिए हैं. लेकिन उससे भी अच्छी बात ये है कि इसे स्टोरी में फोर्स नहीं किया गया. वो नैचुरली आया है. हरप्रीत एक रियल कैरेक्टर है, जो हमें बताती है कि महिलाएं जैसी फिल्मों में दिखाई जाती हैं, असल में वैसी होती नहीं है. इसलिए हमें उनके चित्रण में भी बदलाव लाना चाहिए. किरदार बस सशक्त कह भर देने से सशक्त नहीं हो जाते. तापसी पन्नू ने एक नेशनल टीम में खेलने वाली हॉकी प्लेयर का रोल किया है. लेकिन जितना मौका और स्पेस दिलजीत को दिया गया है, उन्हें नहीं मिला है. बावजूद इसके उनका किरदार आपको सोचने पर मजबूर करता है.

दिलजीत इससे पहले फिल्म 'उड़ता पंजाब' में भी काम कर चुके हैं.
'सूरमा' एक बायोपिक है. बावजूद इसमें एक अलग तरह की मॉडेस्टी दिखाई देती है. किसी भी किरदार या घटना को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने से बचा गया है. किरदारों से ज़्यादा उनके इमोशनल वाले पहलू को एक्सप्लोर किया गया, जिससे फिल्म कनेक्टिंग बन जाती है. जनता का किरदारों से एक अलग तरह का जुड़ाव हो जाता है. जैसे विक्रम और संदीप के रिलेशन को देखकर आपको अपना बड़ा भाई याद आ जाएगा. अगर है तो!

अभी हाल ही में अंगद बेदी ने एक्ट्रेस नेहा धूपिया से शादी की थी. शादी के बाद ये उनकी पहली फिल्म है.
पेस फिल्म का प्लस पॉइंट है. आपको चलती फिल्म में अपने सीट पर एडजस्ट होना भी याद नहीं रहता. क्लाइमैक्स सीक्वेंस इतना क्रिस्प है कि आपको विश्वास ही नहीं होता कि फिल्म खत्म हो गई है. बावजूद इसके आप खुश और संतुष्ट सिनेमाहॉल से बाहर निकलते हैं.
यूं तो पूरी फिल्म में स्टीरियोटाइप्स से बचा गया है, लेकिन किसी दूसरी स्पोर्ट्स बेस्ड फिल्मों की तरह इंडिया-पाकिस्तान का यहां भी इस्तेमाल किया गया है. इंडिया-पाकिस्तान के बीच कुछ भी हो, थ्रिलिंग होता है. लेकिन इतनी बार देख चुकने के बाद पुराना वाला एड्रेनेलिन रश खत्म हो गया है. ऊपर से पाकिस्तान भी हमसे हार-हारकर बोर हो गया है, इसलिए अब हमें कोई दूसरा देश ढूंढ़ लेना चाहिए.
फिल्म का म्यूज़िक रेगुलर है. एक रोमैंटिक गाना, एक डांसिंग-पेप्पी नंबर, एक इंस्पायरिंग सा ट्रैक और एक सैड सॉन्ग. आप पिछली कोई स्पोर्ट्स फिल्म उठाकर देख लीजिए म्यूज़िक का यही फॉर्मेट मिलेगा. लेकिन एक चीज़ ऐसी है जिससे आपके कानों को प्यार हो जाता है. बैकग्राउंड स्कोर. जितनी दफा स्क्रीन पर दिलजीत और तापसी आते हैं, नेपथ्य में 'इश्क दी बाजियां' गाने की पियानो वाली धुन बज रही होती है. एक दम डिम साउंड में. आप उनकी बात भी सुनते हैं और वो धुन भी.
'सूरमा' में दिलजीत, तापसी के अलावा अंगद बेदी, सतीश कौशिक, विजय राज और कुलभूषण खरबंदा भी हैं. या सारे मंझे हुए कलाकार हैं, बावजूद इसके इन्हें देखने के बाद आपको इनका किरदार याद नहीं रहेगा. दिमाग में अटकता है बस एक आदमी विजय राज. उन्होंने नेशनल कोच हैरी का रोल किया है.

विजय राज नेशनल हॉकी कोच के रोल में और कुलभूषण खरबंदा हॉकी फेडरेशन के चेयरमैन के रोल में हैं.
अपने आइडिया या कॉन्सेप्ट से ये फिल्म आपको शॉक तो नहीं करती लेकिन इतना जरूर परोसती है कि आप अपने परिवार और बच्चों के साथ बेठकर देख सकें. हफ्ते को एंटरटेनिंग, रोमैंटिक और इंस्पायरिग एंड पर खत्म करने के लिए 'सूरमा' एक परफेक्ट फिल्म है.
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