इस बात की दिल्ली वालों को शायद खबर नहीं लेकिन बाहर वालों को, खास तौर पर मुंबई के फिल्म मेकर्स को यकीन है कि दिल्ली में दो दिल्ली बसते हैं. एक नई दिल्ली, जहां सब कुछ फ़ास्ट पेस है, इंटरनेट स्पीड से लेकर एस्कलेटर तक. और एक पुरानी दिल्ली जिसे दिल्ली राज्य का सबसे बड़ा गांव कहा जा सकता है. उसी, नॉस्टेल्जिक पुरानी दिल्ली, चांदनी चौक की कहानी है ‘राजमा चावल’. मूवी नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है.
मूवी रिव्यू: राजमा चावल
राज माथुर को देखते-देखते आप ऋषि कपूर भूल जाते हैं!

पत्नी की मौत हो जाने के बाद राज माथुर अपने लड़के कबीर के साथ नई दिल्ली से पुरानी दिल्ली शिफ्ट हो जाता है. बाप-बेटे के बीच कम्यूनिकेशन गैप है जिसे पाटने के लिए बाप सोशल मीडिया का सहारा लेता है, लेकिन इसी के चलते कन्फ्यूज़न और सेहर की एंट्री होती है. सेहर कई लोगों के छोटे-मोटे कर्ज़ में डूबी मेट्रो सिटी गर्ल है जिसका एक बुरा पास्ट है. इन तीनों के साथ-साथ 'राजमा चावल' में पुरानी दिल्ली और वहां के ढेरों किरदार देखने को मिलते हैं.

फिल्म की डायरेक्टर लीना यादव को हम उनकी पिछली फिल्म पार्च्ड के चलते जानते हैं. ये फिल्म टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर की गई थी. लेकिन उनके निर्देशन की जो धार पार्च्ड में देखने को मिली थी वो यहां पर मिसिंग लगती है.
एक तो कहानी के बैकड्रॉप में पुरानी दिल्ली को वैसे ही रोमेंटिसाइज़ किया गया है जैसा हम ‘आंखों देखी’, ‘दिल्ली 6’, ‘विक्की डोनर’,’कभी ख़ुशी कभी ग़म’ और ‘चांदनी चौक टू चाइना’ जैसी हिट-फ्लॉप फिल्मों में देख-देख कर पक चुके हैं. दूसरा कहानी में सोशल मीडिया और यू ट्यूब जैसी चीज़ें कहानी की थीम होने के बावज़ूद आउट ऑफ़ फोकस लगती हैं.होने को लीना अपने कॉलेज के दिनों में वो दिल्ली में रह चुकी हैं इसलिए कई जगह पर मूवी में दिल्ली को ‘एज़ इट इज़’ दिखाने में काफी हद तक सफल रही हैं जैसे जामा मस्ज़िद या फिर पुरानी दिल्ली के घरों की वो छतें जो एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं.

ऋषि कपूर इस मूवी का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट बनकर उभरे हैं. उनकी एक्टिंग, एक्सप्रेशन और गेटअप कमाल के हैं. उनका अभिनय इतना एफर्टलेस है कि आपको कहीं भी नहीं लगता कि ये वो ऋषि कपूर हैं, वो तो दरअसल राज माथुर ही हैं.
कबीर के रोल में अनिरुद्ध तंवर और सेहर के रोल में अमायरा दस्तूर के अभिनय में बेशक कहीं कोई झोल नहीं है लेकिन फिर भी लंबे समय तक याद रह जाने वाली न इन लीड एक्टर्स की एक्टिंग है न किरदार. शीबा चड्ढा आजकल ऑनलाइन कंटेंट में काफी देखी जा रही हैं, इसमें भी उनका छोटा सा रोल है और उन्होंने पुरानी दिल्ली की ‘आंटी नेक्ट्स डोर’ का किरदार काफी अच्छे से जिया है. बाकी कलाकार जैसे अपारशक्ति खुराना, हरीश खन्ना और मनुऋषि चड्ढा भी अपने छोटे-छोटे रोल के साथ न्याय कर पाने में सफल रहे हैं.
राजमा चावल चम्मच से नहीं हाथ से खाया जाता है, ये कबीर को पुरानी दिल्ली आकर पता चलता है.
सेहर के सर में ढेर सारा छोटा-मोटा क़र्ज़ है, जिसके चलते उसको वो सब करना पड़ता है, जो नॉर्मस नहीं है.
तो निष्कर्ष ये कि यदि आपके पास नेटफ्लिक्स का सब्सक्रिप्शन और दो ढाई घंटे का समय है तो 'अंत भला, सो भला' का परचम लहराती इस फिल्म को मूड बदलने के लिए देखा जा सकता है.
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कबीर का पैशन और प्रोफेशन दोनों ही म्यूज़िक है. इसके चलते फिल्म के इस डिपार्टमेंट में बहुत ज़्यादा ध्यान दिया गया है. हितेश सोनिक की कम्पोज़िशन तो ओके-ओके ही हैं लेकिन कहीं-कहीं इरशाद कामिल की लिरिक्स उसे बेहतरीन बना देती हैं -
जनरल डिब्बे में होते हैं जैसे पैसेंजर‘ओ फ़रेबी’ गीत, जो रॉक स्टाइल में है, आपको कहीं-कहीं ‘साड्डा हक़’ की याद दिलाता लगता है. होने को उस क्लास को छू पाने में सफल नहीं होता है. सारेगामापा 2007 के फाइनलिस्ट राजा हसन का इस मूवी में एक छोटा सा कैमियो टाइप रोल एक म्यूज़िक बैंड के चलते ही है.
सारे मर्ज़ी के मालिक, मर्ज़ी के मैनेजर.

तो निष्कर्ष ये कि यदि आपके पास नेटफ्लिक्स का सब्सक्रिप्शन और दो ढाई घंटे का समय है तो 'अंत भला, सो भला' का परचम लहराती इस फिल्म को मूड बदलने के लिए देखा जा सकता है.
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