गैंग्स ऑफ़ वासेपुर. फैज़ल खान ने अभी अभी अपने बाप के हत्यारे को सिर मुंडवा करके मारा है. उसने मुखबिर को इस इनफॉर्मेशन के बदले एक बकरा देने का वादा किया था. वापस आते वक़्त उसकी जीप में बकरा भी था. वो जीप रोकता है. बकरे को गोद में लेता है और जीप के दरवाज़े को बकरे के मुंह से बंद करता है. यहीं पर फैज़ल खान की असलियत सामने आ गई थी. वो एक नम्बर का वही दिखाई दे रहा था जो हम कह नहीं सकते. (हैरी पॉटर वाले ज़्यादा कनेक्ट करेंगे. गाइडलाइनों में बंध कर काम करने वाले और ज़्यादा. लोल.) बाबूमोशाय बन्दूकबाज़ में नवाज़ुद्दीन उतना वो नहीं है जो हम कह नहीं सकते जितना वो गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में था. ये कम्पेयर इसलिए किया जा रहा है क्यूंकि खुद नवाज़ ने अपने श्रीमुख से कहा था कि वो फैज़ल खान से ज़्यादा वही है जो हम कह नहीं सकते. बहरहाल. कहानी है उत्तर प्रदेश के एक बहुत ही छोटे से गांवनुमा शहर की. एक शूटर है. दिलों का शूटर नहीं है. और न ही उसके पास कोई स्कूटर है. मगर हां, शूटर जानदार है. नाम - बाबू. पॉलिटिकल मर्डर करता है. चुनाव इसकी बन्दूक से निकली गोलियों के दम पर लड़े जाते हैं. इसको कॉन्ट्रैक्ट मिलता है और उधर धांय-धांय! बीच में पुलिस का कमीशन. 15-5 का खेला है. प्यार करता है फुलवा से. शादी कर लिया है उससे. घर-परिवार सब सेट है. इसी बीच आ जाता है एक नए ज़माने का शूटर. बांके बिहारी. बाबू को अपना गुरु माना है. लेकिन गुड़ रुपी गुरु के सामने चेला शक्कर हो जाना चाहता है. कहानी इसी चाह की है. मज़ेदार है. फ़िल्म में हिंसा बहुत है. देसी एकदम. तमंचे और कट्टे खूब दिखाई देते हैं. गाली भी हैं. पेल के. सेंसर बोर्ड को बड़ी आपत्ति थी. न जाने कितने तो कट लगाने को कहे थे. लौकी भी उससे कम कट में पूरी कट जाती है. सिर्फ गाली-गलौज और हिंसा ही नहीं था. सेक्स भी था. बाबू बहुत वो था. वो जो हम कह नहीं सकते. सेक्स-वेक्स भी करता था. आम इन्सान करते हैं. पिक्चर में दिखाया जाए तो कट लगवा दिया जाता है. बाबू को सेक्स करते दिखाने की कोशिश की गई तो कई कट लगवाए गए. सेक्स सीन छोटे किये गए.
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी ऐक्टिंग में झंडे गाड़ ही चुके हैं. इस फ़िल्म में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. एक-दो फ़िल्मों को छोड़ दें तो सभी फिल्मों में उन्हें ऐसे ही वॉयलेंस से भरे, गंदे कपड़े और गन्दी शकल वाले रोल मिले हैं. इनमें पारंगत हो गए हैं. कॉमेडी भी कर लेते हैं. टाइमिंग बढ़िया है ही. नाम होने के लिए इतना टाइम जिसने इंतज़ार किया हो, उसकी टाइमिंग दुरुस्त हो ही जाती है. भौकाल इस फ़िल्म में मेन्टेन है. नेता-वेता की आंख में आंख डाल के उनको बर्बाद करने की धमकी देने टाइप का रोल है. मज़ा आता है.
जिसने देखी है उसमें से कुछ लोग कह रहे हैं कि ये बड़ी मर्दाना फ़िल्म है. उन्हें ध्यान से ये फ़िल्म दोबारा देखनी चाहिए. पहली फ़िल्म करने वाली
बिदिता बेग, जो बाबू की पत्नी फुलवा का रोल निभाती दिख रही हैं, ने ही इस फ़िल्म की कहानी को चुटिया (वही लिखे हैं जो आप पढ़ रहे हैं. हम बाबू नहीं हूं.) पकड़कर घुमा दिया था. और फ़िल्म में बना बांके बिहारी यानी
जतिन गोस्वामी भी मजा दिया है. साइड से धनुष लगता है. कुंदन याद आ जाता है. बाबू से मुकाबला करता है. बाबू इसको कच्छा में दौड़ाता है. बीच बजार.

इसके अलावा
दिव्या दत्ता भी बढ़िया रोल में हैं. मुंहबोली बहन बनी हैं बाबू की. ट्विस्ट दी हैं कहानी को. पॉवरफुल महिला का रोल है. जगत जिज्जी. फ़िल्म मज़ेदार हैं. वो लोग जिन्हें द्विअर्थी वाक्यों में कुछ ज़्यादा ही मज़ा आता है उन्हें ये फ़िल्म बहुत रास आएगी. संस्कारी लोग इससे कोस भर दूर रहें. कम से कम. विस्फ़ोटक फ़िल्म है. 8 कट के बावजूद विस्फ़ोट भर का मसाला मौजूद है. डायलॉगबाजी बढ़िया है. स्कूली लौंडई याद आयेगी. एक चुटकुला याद रहा जाता है: "एक भूत दूसरे भूत से मिला तो क्या कहा?"
"का कहा?"
"अबे तुम आज कल दिखाई नहीं देते हो." फ़िल्म देखी जाए. साथ में कौन जा रहा है, इसका ध्यान रखा जाए. वरना लेने के देने पड़ जाएंगे. ऐसी कोई समस्या नहीं है तो कोई गम हैय्ये नहीं.
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