फिल्म- मेट्रो… इन दिनों
डायरेक्टर- अनुराग बासु
एक्टर्स- अनुपम खेर, नीना गुप्ता, कोंकणा सेन शर्मा, पंकज त्रिपाठी, आदित्य रॉय कपूर, सारा अली खान, अली फज़ल, फातिमा सना शेख
रेटिंग- 3.5 स्टार्स
फिल्म रिव्यू- मेट्रो... इन दिनों
18 साल बाद आया 'लाइफ... इन अ मेट्रो' का सीक्वल 'मेट्रो... इन दिनों' कैसा है, जानने के लिए पढ़ें ये रिव्यू.

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2007 में एक फिल्म आई थी 'लाइफ... इन अ मेट्रो'. इस फिल्म की कहानी मुंबई में रहने वाले कुछ लोगों की थी, जो अपनी-अपनी ज़िंदगियों में उलझे हुए हैं. करना कुछ चाहते हैं, होता कुछ है. हाइपरलिंक सिनेमा था. यानी कई अलग कहानियां, जो किसी न किसी मोड़ पर एक दूसरे से टकराती हैं. उस टकराव से जो घर्षण पैदा होता है, वो उनकी सबकी ज़िंदगियों को प्रभावित करता है. कुछ नहीं करता है, तो दुनिया को देखने-समझने का नया नज़रिया देता है. अनुराग बासु के डायरेक्शन में बनी इस फिल्म को नया, प्रयोगधर्मी सिनेमा माना गया. एक ऐसा प्रयोग जो सफल रहा. भारत में आगे चलकर फिल्ममेकिंग की ये विधा एंथोलॉजी सिनेमा में टूटी. पैंडेमिक के दौरान हमें इस तरह की बहुत सारी फिल्में देखने को मिलीं. मगर त्यागराजन कुमारराजा की 'सुपर डीलक्स' वो वाहिद फिल्म रही, जो अपने जॉनर और फिल्ममेकिंग स्टाइल के साथ पूरी तरह से न्याय कर पाई.
मगर अनुराग ने इस विधा का साथ नहीं छोड़ा. उन्होंने 'लूडो' बनाई. जिसे ठीक-ठाक रिस्पॉन्स मिला. और अब वो 'लाइफ... इन अ मेट्रो' के 18 साल बाद इसका सीक्वल 'मेट्रो... इन दिनों' लेकर आए हैं. जैसा कि दिग्गज स्क्रीनराइटर और फिल्ममेकर आरॉन सॉर्किन का मानना है, किसी भी कहानी के दो स्तंभ होते हैं. इंटेशन और ऑब्स्टेकल. यानी मंशा और बाधा. एक इंसान कुछ महसूस करना चाहता है. मगर वो कर नहीं पा रहा. सामाजिक और मानसिक बंधनों की वजह से. 'मेट्रो- इन दिनों' ऐसे ही पांच कपल्स की कहानी है. जो रियल कनेक्शन ढूंढ रहे हैं. इसमें क्या अड़चन आ रही है? उनकी आंतरिक दुविधाएं. उनकी अना, उनक स्वार्थ, उनका कंफ्यूज़न. इन सबसे पार जाकर वो सुखांत तक कैसे पहुंचेंगे, यही इस फिल्म की कहानी है.
'मेट्रो... इन दिनों' के बारे में ये नहीं कहा जा सकता है कि ये फ्रेश कहानी है. या बिल्कुल नए तरीके से कही गई है. क्योंकि हम, आप और हमारे आसपास के लोग यही ज़िंदगियां जी रहे हैं. बस अनुराग ने उसको स्क्रीन पर लाना चुना. पिछले कई सालों में अनुराग ने जीवन और क्राफ्ट में जो कुछ नया सीखा, 'मेट्रो... इन दिनों' उसका सार है. शिबानी और संजीव एक उम्रदराज कपल हैं. उनकी शादी कई दशक पुरानी है. मगर शिबानी को लगता है कि उसने इस शादी की वजह से लाइफ में बहुत सारी चीज़ें मिस कर दीं. एक्टर बनने का अपना सबसे बड़ा सपना छोड़ दिया. वो इस मलाल के साथ जी रही है. वो अपने कॉलेज रीयूनियन में जाना चाहती है. मगर उसका पति उसे मना कर रहा है. वो अपने कॉलेज दोबारा जाकर अपने पूर्व प्रेमी परिमल से मिलना चाहती है. परिमल का परिवार बिखर चुका है. वो अपनी बहू के साथ रहता है. चाहता है कि उस लड़की का घर दोबारा बस जाए.
शिबानी की दो बेटियां हैं चुमकी और काजोल. काजोल शादीशुदा है. मगर पति के साथ उसका रिश्ता बोरिंग हो गया है. इसलिए उसका पति मॉन्टी चीट करने की कोशिश कर रहा है. चुमकी अपने जीवन के हर पहलू में कंफ्यूज़्ड है. वो एक कॉर्पोरेट जॉब करती है. उसका बॉस उसे हैरस करता है. मगर उसका मंगेतर उसे चुप रहने को कहता है. एक दिन चुमकी गलती से पार्थ नाम के ट्रैवल व्लॉगर से मिलती है. जिससे वो अपनी शादी बचाने में मदद लेती है. पार्थ के दो दोस्त हैं, आकाश और श्रुति. ये दोनों शादीशुदा हैं. मगर आकाश म्यूज़िशियन बनना चाहता है. प्लस कमिटमेंटफोबिक भी है. अब ये सब लोग अपनी लाइफ को सॉर्ट करने की कोशिश कर रहे हैं. वो कर पाते हैं कि नहीं, अगर ये भी बता देंगे, तो आप पिक्चर देखने क्यों जाएंगे!
'मेट्रो... इन दिनों' प्यारी फिल्म है. क्योंकि उसको जो कहना है, वो बड़ी सरलता से कहती है. उसकी बात आप तक पहुंचती है. आप उससे सहमत-असहमत हो सकते हैं. मुझे ये फिल्म तीन पिताओं की कहानी लगी. जो अलग-अलग उम्र वर्ग के हैं. जिन्होंने अपने हिस्से की गलतियां कीं. और अब उसे सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. मगर उन्हें सुधारने से पहले उन्हें अपनी गलतियां स्वीकार करनी पड़ती हैं. उन गलतियों को स्वीकार करने के बाद उन्हें उसकी सज़ा नहीं, बल्कि माफी मिल जाती है. ये जानते हुए कि ये गलती उन्होंने एक से ज़्यादा बार की है. ये बात मुझे कुछ समझ नहीं आई.
'मेट्रो... इन दिनों' मुझे परफेक्ट टाइप की पिक्चर लगी. सबकुछ प्रिम-ट्रिम है. पहली फिल्म में जो खुरदरापन था, उसकी कमी महसूस होती है. पहली 'मेट्रो' मुंबई में सेट थी. उस फिल्म में शहर भी एक किरदार था. मगर इस बार कहानी दिल्ली, बेंगलुरु, कोलकाता, पुणे, गोवा और मुंबई में घटती है. मगर इस बार शहर कहानी में कुछ जोड़ते नहीं हैं. न ही वो दिखने में एक-दूसरे से अलग लग पा रहे हैं.
'मेट्रो... इन दिनों' का म्यूज़िक फिल्म का अभिन्न हिस्सा है. सुंदर गाने हैं फिल्म में. इस फ्रैंचाइज़ की पिछली फिल्म की तरह प्रीतम, पापॉन और राघव चैतन्य की तिकड़ी चलती फिल्म में अलग-अलग जगहों पर गाने गाती नज़र आती है. मगर वो चीज़ पहली फिल्म जितनी सहज नहीं है. कई मौकों पर ऐसा लगता है कि उन गानों की वजह से फिल्म बाधित हो रही है. दूसरी चीज़ ये कि वो गाने फिल्म से इतर सुनने पर ज़्यादा समझ नहीं आएंगे. क्योंकि पूरी तरह सिचुएशनल हैं. 'ज़माना लगे' शायद इकलौता गाना है, जिसे अलग से सुना जा सकता है.
ख़ैर, 'मेट्रो... इन दिनों' ऊपर-ऊपर से एक प्रॉपर रोमैंटिक कॉमेडी फिल्म है. मगर डीप डाउन वो एक साथ कई गंभीर मसलों से डील कर रही है. इतने सारे किरदार और कहानियां होने के बावजूद ये फिल्म कभी मेस्सी या कंफ्यूज़िंग नहीं होती. क्योंकि फिल्म की लिखाई सरल और सहज है. इस पूरी कहानी में कॉमेडी यूं घुली हुई है, जो आपको बोर नहीं होने देती. हालांकि फिल्म कुछ मौकों पर प्रॉब्लमैटिक चीज़ें करती है. जिससे आप रिलेट नहीं कर पाते. मसलन, चीटिंग को नॉर्मलाइज़ करना. क्योंकि ये सब लोग करते हैं. या फिर ये कहना कि ज़िंदगी चाहे कितनी भी जटिल हो, एक दिन सब ठीक हो जाता है. वास्तविकता के करीब होने के बावजूद ये ऐसी कुछ फिल्मी चीज़ें करती है, जो खटकती हैं. मगर शायद ये इतनी बड़ी दिक्कतें नहीं हैं, जो आपको इस फिल्म को देखने जाने से रोकें.
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