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मूवी रिव्यू: मास्साब

नेक कोशिश वाली जो मुट्ठीभर फ़िल्में बनती हैं, उनमें इस फिल्म का नाम लिख लीजिए.

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शिक्षा प्रणाली पर बनी ये फिल्म अपनी छाप छोड़ जाती है. फोटो - ट्रेलर
शिक्षा तंत्र में करप्शन पर कहां और कब बात नहीं होती. देश के फॉल्टी एजुकेशन सिस्टम से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं. न जाने कितनी किताबें लिखी गईं हैं. कितनी ही फिल्में बनी हैं. कुछ गहराई में भी उतरीं, इतनी कि जनता असहज हो जाए. ‘मास्साब’ ऐसी ही फिल्म है. मास्टर और साहब मिले तो बना ‘मास्साब’. लंबे समय से फिल्म फेस्टिवल्स की सैर पर थी. तारीफ़ें बटोर रही थी. अब आखिरकार थिएटर्स पर आई. बीती 29 जनवरी को. जानते हैं कि ‘मास्साब’ अपनी इस कोशिश में सफल हो पाई या नहीं. # Maassab की कहानी क्या है? बुंदेलखंड का ज़िला बांदा. उसका एक छोटा-सा गांव. खुरहण्ड. गांव में एक प्राइमरी सरकारी स्कूल है. अब ज़रा एक मिनट रुककर टिपिकल सरकारी स्कूल अपने दिमाग में इमेजिन कर लीजिए. ठीक वैसा ही है ये स्कूल. महिला टीचर को परवाह नहीं कि बच्चे दो एकम दो का क्या जवाब दे रहे हैं. चिंता है तो ये कि स्वेटर ठीक से बुनी जाए बस. मेल टीचर्स भी कुछ ज़्यादा अलग नहीं. क्लास की अटेंडेंस जैसी बेसिक चीज़ों से भला क्या मतलब! घर से बस एक चीज़ सोचकर निकलते हैं. कि कैंडी क्रश में नया रिकार्ड बनाना है. बच्चे भी ऐसे कि स्कूल की एक ही घंटी से वास्ता रखते हैं. मिड डे मील वाली घंटी से. वो बजी नहीं और सारे बच्चे स्कूल में प्रकट.
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फिल्म पूरी तरह रियल लोकेशन पर शूट की गई है.

ऐसे लैंडस्केप में एंट्री होती है आशीष कुमार की. इन्हें अगर एक शब्द में डिस्क्राइब करना हो तो वो है ‘आदर्शवादी’. अपने आदर्शों पर गर्व महसूस करते हैं. इसी कारण मन में एक ज़िद भी है. हमेशा सही करने की ज़िद. ठान लिया तो कर ही डालेंगे. आशीष गांव के इस प्राइमरी स्कूल के टीचर बनकर आए हैं. अब उनके जैसा टीचर इस स्कूल के साथ क्या करता है और बदले में स्कूल उनके साथ क्या करता है, यही फिल्म की कहानी है. # हमेशा सही होना कितना सही? आशीष का आदर्शवादी स्वभाव देखकर सिनेमा का ऐसा ही एक किरदार याद आता है. 1980 में एक फिल्म आई थी. ‘आक्रोश’. यहां नसीरुद्दीन शाह ने एक वकील का किरदार निभाया था. आदर्शवादी किस्म का. समाज की शक्ल बदलने पर अड़िग. आशीष का मिज़ाज़ भी कुछ ऐसा ही है. लेकिन इन किरदारों के साथ एक समस्या है. इन्हें अपनी ज़िद के सिवा कुछ नहीं दिखता. एक चीज़ ठान ली और लग गए उसे पूरा करने में. उनके बाहर की दुनिया इनके लिए ना होने जैसी है. ‘मास्साब’ के साथ भी कुछ ऐसा ही है. सिर्फ एक बात से मतलब रखते हैं. बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले. उसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े. मिड डे मील में बच्चों को अच्छा खाना नहीं मिल रहा, तो मास्साब ने अपनी ज़ेब से पैसा दिया. स्कूल में कंप्यूटर चाहिए था. अधिकारी नहीं माने. कोई बात नहीं, मास्साब खुद के खर्चे से लैपटॉप ले आए. जुनून था तो बस बच्चों को पढ़ाने का.
एक बार इतिहास का पाठ पढ़ाते हैं. अगले दिन सब से पूछा जाता है. क्लास की हालत ऐसी कि किसी को कुछ याद नहीं. सब रामायण-महाभारत बांचने लगते हैं. आशीष भड़क उठता है. चपरासी से डंडा मंगवाता है. खुद की बाजू ऊपर कर अपने हाथ पर सटासट डंडे बरसाने लगता है. बच्चे देखकर चौंक उठते हैं. उसी रात से पढ़ाई को लेकर सीरियस हो जाते हैं. इस हद तक जुनूनी हैं मास्साब.
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फुल आदर्शवादी आदमी हैं 'मास्साब'.

बच्चों को पढ़ाने के लिए आशीष ने IAS की पोस्ट छोड़ दी. सुनने में अज़ीब लगे. किसी को शायद हंसी भी आए. फिल्म में जब आशीष ये बात बताता है, तो एक किरदार को हंसी आती भी है. आशीष अकेला ही रहता है. ज़िंदगी में भी शायद अकेला ही है. क्यूंकि फिल्म में कहीं भी उसकी फ़ैमिली के बारे में बात नहीं की गई. इसी वजह से आशीष एक चीज़ में बड़ा कच्चा है. रिश्ते बनाने और निभाने में. बच्चों की शिक्षा के लिए सब कुछ करने के चक्कर में उसे कभी ये बात खलती नहीं. लेकिन एक पॉइंट पर इसका एहसास होता है. अब उस समय तक देर हो चुकी होती है या नहीं, ये आपको फिल्म ही बताएगी. # मन का मैल कैसे धोएं? फिल्म की धुरी एजुकेशन सिस्टम के इर्द-गिर्द ही घूमती है. उसकी जंग खाई हुई मशीनरी और कैसे एजुकेशन माफिया इसे अपने फ़ायदे के हिसाब से तोड़-मरोड़ रहा है. फिल्म का ज़्यादातर हिस्सा एजुकेशन पर बात करता है. फिर भी पूरी फिल्म सिर्फ इसी पर नहीं है. समाज के ढांचे को जंग लगाने वाली एक और कुरीति पर यहां बात होती है. जातिवाद पर. स्कूल में आशीष का पहला दिन है. हेडमास्टर उसे स्कूल दिखाते हैं. बाकी टीचर्स से मिलवाते हैं. एक टीचर आशीष से उनका नाम पूछ लेता है. जवाब देते हैं, ‘आशीष कुमार’. अगला कहता है कि कुमार-वुमार छोड़िए, पूरा नाम बताइए. सरनेम के साथ. जैसे मानो सरनेम सुनकर अपने दिमाग में आशीष का इम्प्रेशन बनाएगा. आशीष झेंप जाते हैं. होंठ हल्के से कांपते हैं. मुंह से निकलने वाले शब्द अपना रास्ता भटक चुके हैं. शायद पहले भी उन्हें अपने सरनेम के आधार पर जज किया गया हो. फिर भी बोलते हैं. बताते हैं कि वो दलित वर्ग से हैं. ये सुनकर सामने वाला टीचर ऑकवर्ड हो जाता है.
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फिल्म ने ज़मीनी वास्तविकता को जैसे है वैसे दिखाया है.

अब बारी आती है आशीष की. अपनी क्लास के बच्चों से नाम पूछने की. लेकिन वो एक चीज़ पहले ही क्लियर कर देता है. सब सिर्फ अपना नाम बताएंगे. किसी का सरनेम जानने में उसे कोई रुचि नहीं है. # देसी मोहन भार्गव आशीष पढ़ाना शुरू करते हैं. पाते हैं कि क्लास के आधे बच्चे हमेशा गायब ही रहते हैं. फिर समझ आता है कि बच्चों के लिए स्कूल एक प्राथमिकता नहीं, बल्कि एक ऑप्शन है. घर-घर जाते हैं. बच्चों के माता-पिता से रिक्वेस्ट करने. कि भाई, अपने बच्चों को स्कूल भेजें. ऐसे ही एक घर जाते हैं. घर का मुखिया कहता है कि उसके बेटे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं. रही बात बेटियों की, तो उन्हें पढ़ने की क्या जरूरत. बेटियां दीवार के एक कोने के पीछे से टकटकी लगाए देख रही होती है. कुछ ऐसा ही सीन ‘स्वदेस’ में भी था. जब शाहरुख का किरदार मोहन भार्गव गांव में घर-घर जाता है. रिक्वेस्ट करने कि अपने बच्चों को सरकारी स्कूल भेजें. सरपंच साहब के घर भी पहुंचता है. जो कहते हैं कि उनके पोते पहले से सरकारी स्कूल जाते हैं. बची उनकी पोतियां, तो वो स्कूल जाकर करेंगी भी क्या. इस पॉइंट पर दोनों पोतियां पर्दे के पीछे से झांककर देख रही होती हैं.
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अच्छा काम करने लगो तो अड़चन तो आएगी ही. यहां ये हैं अड़चन.

‘मास्साब’ की तरह काफी सारी फिल्में एजुकेशन सिस्टम पर बनी हैं. फिर भी ‘मास्साब’ अपनी अलग जगह बनाने में सक्षम है. इसके अनेकों कारण हैं. एक तो फिल्म का ग्राउंड रियलिटी से कनेक्शन. वो जिस सब्जेक्ट पर बात कर रही है, उसके बारे में पूरी तरह जागरूक है. एक और प्लस पॉइंट कि सेट बनाकर फिल्म शूट नहीं की. गांव गए और पूरी फिल्म वहीं बनाई. जिस दौर में मुंबई में ही पंजाब बन सकता हो, वहां असली गांव में सब कुछ घटता देखना रिफ्रेशिंग था.
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फिल्म में बच्चों की मासूमियत दर्शाते सीन तो निकाल-निकाल कर देखने चाहिए.

फिल्म के टेक्निकल पॉइंट्स की कितनी भी बात कर ली जाए. एक चीज़ है जो इसे सबसे खास बनाती है. वो है इसकी नीयत. सेंसिटिविटी से सब्जेक्ट को चुना गया और उतनी ही ईमानदारी के साथ इसे पेश किया गया. एक ही सब्जेक्ट पर कई फिल्में बनने का चलन कोई नया नहीं. लेकिन फिर भी हमें एक ही कहानी पर बनी वो सारी फिल्में याद नहीं रहती. याद रह जाती हैं तो बस वो मुट्ठीभर फिल्में जिनकी कोशिश नेक थी. वो शायद आज नज़रअंदाज़ हो जाएं, पर कल अपना मैसेज दे ही देंगी. ऐसी ही फिल्म है ‘मास्साब’. 29 जनवरी को थिएटर्स पर आ चुकी है. मेनस्ट्रीम फिल्मों से ब्रेक लेकर ज़रा इस फिल्म को मौका दीजिए.

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