The Lallantop

मूवी रिव्यू: गुडबाय

फिल्म किसी की डेथ से ह्यूमर नहीं निकालती. बल्कि उसके इर्द-गिर्द होने वाली चीज़ों में अपना ह्यूमर तलाशती है.

Advertisement
post-main-image
मृत्यु को इस्तेमाल किया है एक परिवार की बॉन्डिंग दर्शाने के लिए.

एक शिशु और उसके पिता के बीच हुई बातचीत पर आधारित कहानी. विकास बहल की लिखी और डायरेक्ट की फिल्म ‘गुडबाय’ इसी लाइन से खुलती है. अमिताभ बच्चन, नीना गुप्ता, रश्मिका मंदाना और पावेल गुलाटी जैसे एक्टर्स इस फिल्म का हिस्सा हैं.  

Add Lallantop as a Trusted Sourcegoogle-icon
Advertisement

फिल्म की शुरुआत होती है एक परिवार में होने वाली डेथ से. अमिताभ बच्चन के किरदार हरीश की बीवी का निधन हो जाता है. ऐसे मुश्किल समय में वो खुद से दूर रहने वाले बच्चों को एक छत के नीचे लाना चाहते हैं. बच्चे आते हैं लेकिन अपने-अपने मसलों के साथ. वो मसले, जिनकी वजह से वो अलग-अलग रह रहे थे. ये वक्त उनके परिवार की बॉन्डिंग पर क्या असर डालता है, ये फिल्म की मोटा-माटी कहानी है. लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है.  

rashmika mandanna
रश्मिका मंदाना का हिंदी सिनेमा में डेब्यू.   

कहते हैं कि ह्यूमर हर परिस्थिति में मिलता है. चाहे वो कितनी ही विषम या ट्रैजिक हो. सामान्य धारणा में किसी की मृत्यु से ज़्यादा ट्रैजिक क्या ही होगा. नीना गुप्ता के किरदार गायत्री की डेथ के बाद भी ऐसा देखने को मिलता है. गायत्री अपने घर का केंद्र थीं. हर चीज़ मैनेज करने वाली. सबसे बनाकर चलने वाली. एक दिन अचानक वो चली गईं. हरीश को नहीं पता कि अब करना क्या है. किसी के अंतिम संस्कार की क्या परंपराएं होती हैं. गायत्री का शव घर के बरामदे में रखा है. किसी ने कहा कि इसे तो उत्तर दिशा में होना चाहिए. सब मिलकर फिर उसे उत्तर में मोड़ने लगते हैं. फिर कोई बीच में शंका का बीज बो देता है कि उत्तर तो ये नहीं वो है. फिर से घुमाना चालू.  

Advertisement

आस-पड़ोस की महिलायें आती हैं. जिनका ध्यान इस बात पर है कि कुर्सी कब खाली होंगी. ज़मीन पर बैठे-बैठे पैर जो सो गया है. मॉर्निंग वॉक की बातें कर रही हैं. गायत्री के जाने के बाद अपने महिला मंडल के नए व्हाट्सऐप ग्रुप का नया नाम सोच रही हैं. ये पूरी तरह नॉर्मल चीज़ें हैं. हम अपने आसपास होते देखते हैं. ऐसा नहीं कि दुख की हालत में ज़बरदस्ती ह्यूमर निकालने की कोशिश की जा रही हो. फिल्म ऐसी सिचुएशन लगातार आपके सामने लाती रहती है. लेकिन यहां नोट करने लायक एक पॉइंट है. कि ये किसी भी तरह गायत्री की मौत के असर को हल्की रोशनी में नहीं दिखाती. किसी इंसान के यूं अचानक जाने से उसके करीबी लोगों पर क्या असर पड़ता है, पूरी फिल्म में निशान देखने को मिलते हैं.  

sunil grover goodbye
फिल्म की लिखाई में कुछ खामियां हैं लेकिन फिर भी ये इमोशनल फ्रंट पर मज़बूत है.  

इसी वजह से ऐसा नहीं कि सिर्फ ह्यूमर में लपेटकर कहानी पेश कर दी हो. फिल्म इमोशनल फ्रंट पर भी मज़बूत है. कुछ हिस्से ऐसे हैं, जो आकर सीधा पसलियों में लगते हैं. कुछ महसूस करने का मन नहीं करता. सिवाय आंख में तैरते पानी के. सिनेमाघर की शांति के बीच खुद की सांस की आवाज़ का भी आभास नहीं होता. कोई हमारे बीच है. हम उसके साथ हंसते हैं, लड़ते हैं, यादें बनाते हैं. इस बात से लापरवाह होकर कि एक दिन ये कारवां हमेशा के लिए रुक जाएगा. ऐसे इंसान हमारी आदत बन जाते हैं. और अक्सर आदतें जल्दी से नहीं छूटती. न ही उन्हें छोड़ने के लिए कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती करनी चाहिए. फिल्म में इसी आदत पर एक सीन है. जहां पावेल का किरदार अपनी मां गायत्री को आवाज़ देता है. एक बार. दो बार. फिर उसे अचानक से हिट करता है कि मां पुकारने पर सामने से कोई जवाब नहीं आने वाला. कभी नहीं आने वाला. रुकता है कुछ क्षण. फिर पुकारने लगता है. शायद अपने अंदर बसने वाली मां की यादों को.

डेथ हमारे लिए आज भी असहज कर देने वाला टॉपिक है. घर पर इसका ज़िक्र छेड़ने पर मां टोक देगी. कि शुभ-शुभ बोलो. हम इंसान के जीवन में यकीन रखते हैं. उसे सेलिब्रेट करते हैं. धूम-धाम से. लेकिन मौत को नहीं. जीवन के रुक जाने को हम सफर के रुक जाने से जोड़कर देखते हैं. ये फिल्म उस सोच से अलग होकर देखना चाहती है. कि कैसे यादों से, या जिस तरह उस इंसान ने हमें महसूस करवाया, उन तरीकों से वो जाने के बाद भी हमारे बीच ज़िंदा रह सकता है. मेनस्ट्रीम सिनेमा में ऐसे टॉपिक पर बनी ये एक अच्छी कोशिश है. ऐसा भी नहीं है कि फिल्म की लिखाई में सब चंगा सी. फिल्म अपने कुछ अहम किरदारों को बैकग्राउंड देना भूल जाती है. साथ ही भूल जाती है कि उनके साथ अब क्या करना है. कैसे वो नेरेटिव को आगे लेकर जाएं.  

Advertisement
goodbye movie review
अमिताभ बच्चन और नीना गुप्ता का काम यहां हाइलाइट है. 

एक्टिंग फ्रंट पर बाते करें तो किसी का भी काम यहां नुक्स निकालने वाला नहीं. बच्चों के किरदारों में रश्मिका का किरदार तारा और पावेल के किरदार करण को सबसे ज़्यादा फुटेज मिलती है. एक घर का बड़ा बेटा. दूसरी घर की बेटी, जो पितृसत्ता से उपजी हर प्रथा में लॉजिक तलाशती है. इस वजह से कुछ को मुंहफट भी लगती है. दोनों ही एक्टर्स का काम यहां सराहनीय है. लेकिन अगर कोई हाइलाइट हैं तो वो हैं अमिताभ बच्चन और नीना गुप्ता. गायत्री पूरे घर का सेंटर क्यों है, वो आपको नीना गुप्ता की प्रेज़ेंस से समझ आ जाएगा. बाकी अमिताभ का किरदार हरीश कई बार ज़िद्दी है. कई बार चिढ़ जाता है, तो कई बार प्यार भी जताता है. और अमिताभ हर रंग में उसे जस्टीफाई करते हैं.  

‘गुडबाय’ यानी अलविदा. कई बार हमें अपनों को ये कहने का आखिरी मौका नहीं मिलता. फिर रह जाता है तो बस रिग्रेट. कि काश उस वक्त ऐसा कर लिया होता. फिल्म किसी अपने को वो आखिरी गुडबाय देने के बारे में ही है. कुछ खामियां हैं लेकिन फिर भी मैं यही कहूंगा कि देखी जानी चाहिए.  

वीडियो: मूवी रिव्यू - धोखा

Advertisement