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मूवी रिव्यू: फॉरेंसिक

'फॉरेंसिक' एक क्राइम थ्रिलर फ़िल्म है. Zee5 पर स्ट्रीम हो रही है. इसमें ऐसी तमाम बातें हैं जिन पर मुंह से निकलता है 'पिच्चर चल रही है या मज़ाक'.

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रिस्क तो है गुरु

फ़िल्म बनाना एक कला है. वैसे ही फ़िल्म देखना भी एक कला है. माने हम हुए कलाकार. चलिए बताते हैं कि आज हमने क्या कलाकारी की है!

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'फॉरेंसिक'(Forensic) एक क्राइम थ्रिलर फ़िल्म है.  Zee5 पर स्ट्रीम हो रही है. फ़िल्म मसूरी और कुछ अन्य पहाड़ी जगहों पर सेट है. अच्छे कैमरावर्क के ज़रिए ख़ूब सारी सुंदर-सुंदर लोकेशन्स देखने को मिलेंगी. कहानी ऐसी है कि मसूरी में कुछ बच्चियों के ख़ून हो रहे हैं. इंस्पेक्टर मेघा और फॉरेंसिक एक्सपर्ट जॉनी सीरियल किलर को ढूंढ रहे हैं. इसी बीच में कई सारे उतार-चढ़ाव, कॉन्फ्लिक्ट और मोड़ आते रहते हैं. 

फॉरेंसिक के एक सीन में मेघा बनी राधिका आप्टे 

जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है. सब बड़ा अनरियल लगता है. कई बेमतलब के चेज़ सीक्वेंस नज़र आते हैं. जिन्हें देखकर लगता है कि दो ईंटो के गैप को भरने के लिए ये जबरदस्ती मसाला ठूंसा गया है, कि ईंटों के बीच दरार ख़त्म होगी और दीवार में मज़बूती आएगी. पर जब मसाला ही खराब हो तो क्या किया जा सकता है. ठीक ऐसा ही कुछ बेमतलब घुसेड़े गए सीक्वेंसेज के साथ है. जब मेघा और जॉनी का इंस्पेक्टर वेद कार से पीछा करता है. या फिर जब मेघा एक सस्पेक्ट चार्ली पिंटो को पकड़ने जाती है. संभव है देखने वाले को, ये एक सेपरेट सीक्वेंस के तौर पर ठीक लग सकते हैं. पर फ़िल्म में फिट नहीं बैठते. मतलब कुछ भी हो रहा है. इंस्पेक्टर मेघा का जानने वाला सस्पेक्ट निकल आता है तो मेघा को बिना बात के संस्पेंड कर दिया जाता है. कई जगहों पर प्राची देसाई के कपड़ों और शरीर पर लगा ख़ून फेक लगता है. जैसे बोतल में लाल रंग घोलके लगा दिया गया हो. पुरुष बनाने के लिए प्राची को थोड़ी देर के लिए दाढ़ी लगाई गई है. हालांकि लगाई क्या गई है, जैसे नौटंकी में दाढ़ी लगा देते हैं वैसे ही बस चिपका दी गई है. पुरुष दिखाने के लिए कम से कम ढंग का मेकअप ही लगा देते. ऐसी ही तमाम बातें हैं, जिन पर मुंह से निकलता है 'पिच्चर चल रही है या मज़ाक'. ख़ैर मेकर्स मज़ाक भी तो ढंग से नहीं कर पाए.

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फॉरेंसिक एक्सपर्ट जॉनी खन्ना के रोल में विक्रांत 

कहानी का कोई ओर-छोर ही नहीं है. ऐसा लगता है किसी कागज़ के टुकड़े को पहले फाड़ दिया गया. बाद में उसे आड़े-टेढ़े तरीके से जोड़ने की कोशिश की गई है. स्क्रीनप्ले के तो क्या कहने! कहीं से सीन को उठाया और कहीं जाकर पटक दिया, अद्भुत. स्क्रीनप्ले में कुछ नया नहीं, सब वही घिसा पिटा. क्राइम थ्रिलर वो होती है जिसमें दर्शक आगे की घटनाओं को जानना चाहे. पर इस फ़िल्म को देखते हुए एक समय के बाद ऊब पैदा हो जाती है. शुरूआत में एक सीन है, जहां एक बाप, अपने बेटे को मार रहा है. साफ दिखता है कि उसे रबड़ के डंडे से पीटा जा रहा है या फिर पीटने का बहुत भद्दा अभिनय किया जा रहा है. क्राइम के नाम पर कॉमेडी. क्या बात है! हां, पर नाम के अनुरूप फॉरेंसिक पर ज्ञान तगड़ा दिया गया है. नई-नई टेक्नोलॉजी के बारे में पता चलेगा, नए टर्म्स सुनने को मिलेंगे. जैसे डायरेक्टर और राइटर्स ने पूरी मेहनत बस फ़िल्म के नाम को जस्टिफाई करने में लगा दी हो. विशाल फुरिया का डायरेक्शन भी औसत है. स्क्रीनप्ले इतना कमजोर है कि डायरेक्टर कर भी क्या सकता था! एक काम ज़रूर कर सकता था कि राइटर्स को स्क्रीनप्ले का एक और ड्राफ्ट लिखने को कहता. अधीर भट, अजीत जगपत और विशाल कपूर ने मिलकर इसे लिखा है. कम से कम तीन लोग एक साथ बैठकर किसी चीज़ पर ब्रेनस्टॉर्मिंग कर रहे हैं, तो थोड़ा बहुत बेहतर की उम्मीद तो की ही जा सकती है.

रोहन के रोल में निखिल और डॉक्टर रंजना के रोल में प्राची देसाई

ख़ैर उम्मीद तो राधिका आप्टे से भी थी. पर वो निराश करती हैं. मेघा के रोल में वो बहुत लाउड हैं. बिना बात के चौंकती रहती हैं. कहीं थोड़ी-सी बात पता चलती है, चेहरे के भाव भयंकर उछाल मारते हैं. जैसे मेघा ने इससे पहले पुलिस इंस्पेक्टर के तौर पर कुछ देखा ही नहीं है, राधिका कई जगह बेमतलब का चीखती हैं. डॉक्टर रंजना के रोल में प्राची देसाई ने भी औसत काम किया है. एक समय वो सधा हुआ अभिनय कर रही होती हैं. पर जहां ऐक्शन और इमोशन आते हैं, उनके अभिनय की कलई खुल जाती है. रोहित रॉय भी इमोशनल सीन्स में बनावटी लगे हैं. विक्रांत मेसी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है. वो औसत फ़िल्म के दलदल में कमल बनकर खिले हैं. सुब्रत दत्ता ने राधिका के सीनियर के रोल में बढ़िया काम किया है. विंदू सिंह ने भी ठीक ऐक्टिंग की है. आन्या और रोहन के रोल में जेसिका और निखिल भी बढ़िया लगे हैं.

जहां तक 'फॉरेंसिक' देखने का सवाल है, रिस्क तो है गुरु. पर अपने अंदर मौजूद रिस्क टेकिंग एबिलिटी का अभ्यास करना हो तो ज़रूर देख डालिए. योरऑनर, आई रेस्ट माय केस.

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