'साहेब, बीवी और गैंगस्टर-3' शुरू होती है बाबा यानी कुंवर उदय प्रताप की एंट्री से. जो यूरोप के किसी देश में रशियन रूले नाम का एक खतरनाक खेल खेलकर पैसा कमाते है और फिर उसी शहर में अपना होटल खोल लेता है. एक बार गुस्से में आकर एक कांड कर देते हैं और उसी चक्कर में वापस इंडिया भेज दिए जाते हैं. रशियन रूले को फिल्म की शुरुआत में दिखाने के अलावा कई बार इसका एक्सप्लेनेशन दिया जाता है कि फिल्म में इसका इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है. साथ ही खेलने का नियम भी बताया जाता है. इस खेल के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी क्यों दी जा रही थी ये आपको फिल्म के आखिर में समझ आएगा.

इस गेम में पानी और वोडका में से चुनाव करने के बाद अपने कनपटी पर रखकर बंदूक चलानी पड़ती है.
यहां इंडिया में माधवी देवी यानी माही गिल अपना काम कर रही हैं. इलाके की एमपी हैं. उनका किरदार देखकर लगता है कि वो टीवी सीरियल बहुत देखती हैं. हर समय किसी न किसी के खिलाफ प्लानिंग ही कर रही होती हैं. साहेब यानी जिमी शेरगिल पिछली ही फिल्म में जेल चले गए थे. अब भी वहीं हैं. योगा-मेडिटेशन वगैरह कर के बदन और इगो दुरूस्त रखा है लेकिन बाल सफेद हो गए हैं. कहते हैं-
"ससुर जी बिना खून-खराबा जेल से निकाल दें, हमारे आने के बाद तो खून-खराबा होना ही है."इससे थोड़ी-बहुत उम्मीद बंधती है कि आगे कुछ देखने को मिलेगा. इतना सब होते-होते फिल्म का इंटरवल हो जाता है. इसके बाद फिल्म के कैरेक्टर्स एक ही जगह मिलते हैं. और सारा झोल शुरू होता है. यहां पर एक सीन है. इस सीन में राजस्थान के सारे राजे-महाराजे इकट्ठा होते हैं. सब फोटो खिंचा रहे होते हैं. बस दो लोग बाहर होते हैं. साहेब और गैंगस्टर. एक अपनी गरीबी के कारण और दूसरा इमेज के कारण. यहां संजय दत्त और जिमी शेरगिल की पहली मुलाकात होती है. इसके बाद फिल्म रफ्तार पकड़ लेती है और आखिर तक इसी स्पीड में चलती है. ये फिल्म की सबसे अच्छी चीज़ है. पहला हाफ बिना मतलब के खींचने के बाद आपको कहानी देखने को मिलती है. कहानी कोई बहुत कमाल नहीं है लेकिन जब आप हॉल से बाहर आते हैं, तो एक दम फिल्म वाले फील में होते हैं.

तिग्मांशु की फिल्म थी 'हासिल' जिसके लिए जिमी को बहुत तारीफें मिली थी.
फिल्म के डायलॉग्स थोड़े प्रेडिक्टेबल लगते हैं, लेकिन जबरदस्त हैं. कुछ एक तो बहुत जबर. जैसे-
"आपकी रगों में रजवाड़ों का खून बचा है कि राजनीति करते-करते पानी हो गया?"तिग्मांशु अपने लीड कैरेक्टर यानी साहेब से बहुत इंप्रेस्ड लगते हैं. कोई भी किरदार बना दें, वो उसके बराबर नहीं जाने देते. लेकिन साहेब में कोई सुधार नहीं करते. रौला वगैरह सब ठीक है लेकिन कुछ पोटास भी तो होना चाहिए. फिल्म में प्रीवी पर्स का मुद्दा उठाया गया है. आज़ादी के समय भारत के सभी रजवाड़ों से उनके राज-पाट को लेकर भारत सरकार के अंडर में कर दिया गया था. इसके बदले उन्हें गुज़ारे के लिए पैसे दिए जाते थे. यही होता है प्रीवी पर्स. वो भी कुछ सालों के बाद बंद कर दिया गया.
अब तक साहेब जेल में थे और जनता उन्हें भूलने लगी थी. ऐसे में उन्हें कुछ ऐसा करना था, जिससे वो मीडिया की नज़रों में आ जाएं. इसलिए वो प्रीवी पर्स को पब्लिसिटी स्टंट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. जो बेमतलब साबित होता है. फिल्म में चित्रांगदा सिंह ने काम किया है. उनके कैरेक्टर का नाम सुहानी है, जो एक ट्रेंड डांसर है और अपने आसपास के बच्चियों को ट्रेनिंग देती हैं. जब वो मिलेंगी तो मैं उनसे पर्सनली पूछना चाहूंगा कि ये फिल्म उन्होंने किस प्रेशर में आकर की थी. उस रोल का अपना कुछ नहीं था. रोल भी नहीं. उन्हें तिग्मांशु धूलिया ने रोल बोलकर चिकन रोल पकड़ा दिया. वो फिल्म की बारहवीं खिलाड़ी हैं. उनके मैदान पर आए बगैर मैच खत्म हो जाता है. उनके जिम्मे सिर्फ एक कायदे का डायलॉग है-
"जब नाम के अलावा कुछ बचा न हो, तो नाम को बचा-बचा के चलना चाहिए."

चित्रांगदा ने पिछले दिनों आई हॉकी प्लेयर संदीप सिंह की बायोपिक 'सूरमा' प्रोड्यूस की थी.
गैंगस्टर यानी संजय दत्त (यहां सिर्फ और सिर्फ फिल्म की बात हो रही है). वो फिल्म में बहुत अच्छा कर रहे थे लेकिन उनके कैरेक्टर में सबस्टंस की कमी थी. क्योंकि तिग्मांशु ने वो सारा साहेब पर खर्च कर दिया और यहां गैंगस्टर सूखा मर रहा है. पिछले दोनों गैंगस्टर्स फिल्म की कहानी में बड़े बदलाव लेकर आते थे. कोई बड़ा प्लान या बदला. यहां संजय दत्त के पास कुछ नहीं है. फिल्म में संजय का कैरेक्टर नहीं होता तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता. जो काम उन्होंने किया है वो किसी भी किरदार से करवाया जा सकता था. उनको कास्ट करने का मकसद सिर्फ फिल्म को बड़ी ऑडियंस तक पहुंचाना था. संजय दत्त फिल्म में बड़े शांत लगते हैं. लेकिन ये भी नहीं कह सकते कि उनका काम बोलता है. हालांकि उन्होंने उस कैरेक्टर को बड़े मन से और नेचुरल तरीके से निभाया है.

संजय और जिमी इससे पहले ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में भी साथ काम कर चुके हैं.
फिल्म में एक सीन है. उदय के भाई विजय यानी दीपक तिजोरी अपने होटल के एक स्टाफ से बात कर रहे होते हैं. इतने में उदय वहां आता है और बात करने के लिए उसके कंधे में हाथ डालकर खींचते हुए लेकर जाता है. ये सीन बहुत बिलकुल बनावटी नहीं लगता. ये फिल्म के उन कुछ सीन्स में से है जो आपको याद रहते हैं. दीपक तिजोरी संजय दत्त के भाई बने हैं. लेकिन उनके करने के लिए कुछ था ही नहीं. साहेब बीवी और गैंगस्टर सीरीज़ को उसके किरदारों के याद रखा जाता है. लेकिन अब किरदारों का वो तिलिस्म गायब होता दिख रहा है. आपको फिल्म से सिर्फ जिमी शेरगिल का कैरेक्टर साहेब याद रहता है. पिछली फिल्मों में बीवी को जीतने की चाह रखने वाले साहेब और गैंगस्टर अंत में खुद ही हार जाते हैं. और जीतती है बीवी. इस फिल्म में वैसा कुछ भी नहीं है.

माही गिल आखिरी बार फिल्म ‘फेमस’ में दिखाई दी थीं. इसमें वो रानी माधवी देवी का किरदार करती दिखाई देंगी.
अगर ज्योति और सुल्तान नूरां का 'जुगनी' छोड़ दें तो फिल्म का म्यूज़िक बहुत ऐवरेज है. एक कानफोड़ू सा आइटम नंबर आता है, जिसका नाम मैं बिलकुल नहीं याद कर पा रहा. संजय दत्त यानी बाबा पर पूरा एक गाना कंपोज़ किया गया है. उसका नाम ही बाबा थीम है. अगर हम 'साहेब बीवी और गैंगस्टर-3' को कन्क्लूड करें, तो हमें कुछ नहीं मिलता है. न तो ये फिल्म किसी सोशली रेलेवेंट मुद्दे पर बात करती है, न हमें किसी तरह का कोई ज्ञान देती है (+ पॉइंट). न ही इसकी कहानी और किरदारों में इतना दम है कि आपको खींचकर सिनेमाघरों तक ला पाएं. बस इतनी बात है कि आप एक फिल्म देखने जाते हैं और बहुत निराश होकर बाहर नहीं निकलते हैं.
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