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फ़िल्म रिव्यू : मॉम

श्रीदेवी की कम-बैक फ़िल्म.

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"बिना मां के आशीर्वाद और सनग्लासेज़ के तो मैं घर से भी नहीं निकलता."

मॉम. श्रीदेवी की दूसरी कमबैक फ़िल्म. पहली थी इंग्लिश-विन्ग्लिश. साथ में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और अक्षय खन्ना.

एक टीचर मां जिसकी सौतेली बेटी उसे मां कहने से इन्कार करती है. उसका पति और उसकी छोटी बेटी को मिलाकर 4 लोगों का परिवार. श्रीदेवी यानी मां. वो मां जो घर से बाहर पढ़ाती है और घर में अभी का ख्याल रखती है. वो मां जो अपनी ही बेटी की बायोलॉजी टीचर है. वो मां जो अपनी सौतेली बेटी का गुसा झेल रही है. वो मां जो अपनी बेटी की बनाई बाउंड्री को लांघ नहीं पा रही है. और वो मां जो हर रात सोने से पहले पानी की बोतलें भर के रखती है. फिर एक दिन पानी की बोतल में पानी भरता है और मां नल नहीं बंद करती. वो सोच में डूबी हुई थी. उसकी बेटी कहीं खो गई थी. उसे अपनी बेटी को ढूंढना था. पानी बोतल से बाहर बह रहा था.

देवकी यानी श्रीदेवी. श्रीदेवी को देखो तो याद आता है फर्स्ट फ़्लोर का किराये का एक कमरा. जिसके नीचे आधा दर्जन चिल्लर (बच्चे) रहते थे. एक बावर्ची था, कैलेंडर. और मिस्टर इंडिया. गुस्से में श्रीदेवी ने एक दिन बच्चों को बॉल नहीं दी थी. फिर वहां पैरोडी गाई गई थी. "सॉरी दीदी अब हम, नहीं करेंगे शोर. लेकिन बच्चे न खेलें तो हो जाएंगे बोर..."लेकिन यहां श्रीदेवी ने पल्टी मारी है. टीचर बनी हैं और फिर मां बनी हैं और फिर ये भी बताया है कि टीचर और मां जैसी निष्क्रिय समझी जाने वाली औरत क्या कर सकती है. श्रीदेवी का किरदार बताता है कि जब सालों का गुस्सा एक साथ निकलता है तो कैसा निकलता है. अपने साथ सब कुछ बहा कर ले जाता है. देवकी वही बोतल है जो पूरी तरह से भर चुकी है. अब वो पानी बाहर उलट रही है. सब कुछ उसमें बहा देने को.

sridevi with daughetr film mom

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी. डीके. प्राइवेट डिटेक्टिव. दिल्ली का जासूस. सन ग्लासेज़ लगाता है. सभी लेटेस्ट इक्विपमेंट रखने का दावा करने वाला कर्मठ जासूस. बीवी और एक बेटी के साथ जी रहा है. देवकी की मदद करना चाहता है. करता भी है. देवकी समझ नहीं पाती उसपर विश्वास करे या न करे. जुगाड़ू आदमी है.

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अक्षय खन्ना. पुलिस वाला. फ्रांसिस. तेज़ पुलिस वाला है. कोई शूं-शां नहीं. कोई फर्जी का बवाल नहीं. अपने से और अपने केस से मतलब रखने वाला पुलिस वाला. अक्षय खन्ना बहुत दिन बाद किसी फ़िल्म में दिखे लेकिन इसे कहीं से भी इनकी कम-बैक फ़िल्म नहीं कहा जा सकता.

akshay khanna

इसके आगे जो भी पढ़ेंगे, स्पॉइलर कहलायेगा.


फ़िल्म वुमेन-सेंट्रिक है. लेकिन ऐसा इसमें पिंक की तरह चीख-चीख कर नहीं कहा गया है. इसे बगैर जेंडर-इश्यू के देखना शुरू किया तो ये बस एक थ्रिलर बनकर गुज़र जायेगी. लेकिन अगर ध्यान देने की ज़ुर्रत करें तो पाएंगे कि ये फ़िल्म कितनी सारी चीज़ों की ओर ध्यान दिलाती है. एक लड़का जब एक लड़की की 'हां' नहीं पाता है तो उसकी मेल ईगो इस कदर हर्ट होती है कि वो उसे उठा लेता है. एक आदमी जब ये जानता है कि एक औरत उसकी और उसके ग्रुप की लंका लगाने पर तुली हुई है तो वो आग बबूला हो जाता है. उसे गुस्सा आता है इस बात पर कि कैसे एक अदनी सी लेडी टीचर उनकी बैंड बजा रही है. वो एक टीचर ही तो है और जनाब तो मर्द हैं. मेल ईगो फिर आहत होती है. आदमी अपने आस पास की औरतों को अब भी अपनी बपौती समझते हैं. उनके साथ जैसे मर्ज़ी आये, पेश आते हैं. मन करने पर उन्हें 'अश्लील' वीडियो भेज देते हैं या 'एक डांस के लिए ही तो कह रहा हूं' जैसी बेवकूफ़ी से भरी बात कहते हैं.


हमने कितने ही बिल्डिंगों के बगीचे तैयार कर लिए हों, लेकिन  उनमें रहने वाले महा घटिया ही हैं. उनकी सोच वही सड़कछाप है. उनकी पढ़ाई-लिखाई और समाज में उनकी हैसियत का उनकी तमीज और अक्ल से कोई वास्ता नहीं होता. फ़िल्म में जो भी दखता है वो आपको भरोसा दिला देता है कि एवोल्यूशन की थ्योरी ग़लत थी और हम अब भी किसी किस्म के जानवर ही हैं. हमें इंसान शब्द नहीं ही दिया जाना चाहिए था.

एक जगह पर देवकी की बेटी को गाड़ी से नीचे फेंका जाता है. और फिर उसे लात मारके नाले में खिसका दिया जाता है. ये सीन आपको बुरे सपने देगा. महीनों तक.

देवकी एक स्ट्रांग और इंडिपेंडेंट औरत है. बेटी का रेप हो जाता है और उसे मरने के लिए सड़क किनारे छोड़ दिया जाता है. ऐसा करने वालों को वो कच्चा चबा जाने के लिए वो निकल पड़ती है. अकेले. पति बैठा हुआ कोर्ट में अपील करने के फेर में टेलीफोन का बिल बढ़ा रहा होता है लेकिन देवकी प्रैक्टिकल न्याय दिलाने में विश्वास रखती है. बेटी उससे नफ़रत करती रहती है और मां उसका बदला लेती रहती है. मां ऐसा ही करती है.

फ़िल्म देखते देखते या फ़िल्म खतम हो जाने के बाद उसके बारे में सोचते हुए अहसास होता है कि क्रांतियां बस यूं ही सड़क पर उतरने से ही नहीं आतीं. क्रांति कोई भी, कहीं भी ला सकता है. और इस क्रम में टीचर्स वो क्रांतिकारी हैं जिसके बारे में बसे ज़्यादा बात की जाती है. एक बच्चे के दिमाग पर ज़ीरो से काम शुरू करना और उसे शेप देना सबसे बड़ी क्रांति है. यहीं फ़िल्म के 4 चिरकुटों ने देवकी को अंडर-एस्टिमेट कर लिया था.

फ़िल्म बढ़िया है. नवाज़ और श्रीदेवी की ऐक्टिंग के लिए देखि जानी चाहिए.