बिहार विधानसभा चुनाव 2020. एनडीए और महागठबंधन में कांटे की लड़ाई थी. दोनों गठबंधन के बीच महज 15 सीट और 11 हजार 150 वोट का फासला था. कई विधानसभा सीटों पर भी बेहद करीबी मुकाबला हुआ. 11 विधानसभा सीटें ऐसी रहीं जिनमें हार-जीत का अंतर एक हजार वोट से भी कम था. इन सीटों पर 12 वोट से लेकर 951 वोट के अंतर से विजेता चुने गए.
बिहार चुनाव: इन 11 सीटों की चुनावी टक्कर इस बार भी सांस रोक देगी?
साल 2020 के Bihar Vidhansabha election में 11 सीटों पर बेहद कांटे का मुकाबला हुआ था. इन सीटों पर हारने और जीतने वाले उम्मीदवारों के बीच एक हजार से भी कम वोटों का अंतर रहा. इनमें से तीन नेता तो Nitish Kumar की मौजूदा कैबिनेट में शामिल हैं.


इनमें से 6 सीटों पर महागठबंधन के प्रत्याशी मामूली अंतर से चूक गए. वहीं 5 सीटों पर एनडीए के प्रत्याशियों की किस्मत उनसे रूठ गई. हजार से कम अंतर से जीतने वाले तीन नेता तो नीतीश कुमार कैबिनेट की शोभा बढ़ा रहे हैं. शिक्षा मंत्री सुनील कुमार, खेल मंत्री सुरेंद्र मेहता और विज्ञान प्रौद्योगिकी मंत्री सुमित कुमार.
सबसे रोचक मुकाबला रहा नालंदा जिले की हिलसा सीट पर. यहां से राजद के शक्ति यादव 12 वोट से हार गए, जबकि बरबीघा में कांग्रेस के गजानन मुन्ना शाही 113 वोट से पीछे रह गए. अब एक बार फिर से बिहार विधानसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है. चुनाव आयोग सितंबर महीने के अंत तक तारीखों का एलान कर सकता है.
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव वोटर अधिकार यात्रा कर चुके हैं. वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों का सिलसिला भी शुरू हो गया है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि इस बार इन सीटों पर समीकरण बदलेंगे जहां हार-जीत का अंतर बेहद मामूली रहा था. एक-एक कर इन सीटों पर नजर डाल लेते हैं.
हिलसा में 12 वोट का अंतर रहाबिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में आने वाले हिलसा विधानसभा सीट पर पिछली बार सबसे रोचक मुकाबला हुआ था. यहां जदयू के कृष्ण मुरारी शरण उर्फ प्रेम मुखिया ने राजद के अत्री मुनि उर्फ शक्ति सिंह यादव को 12 वोटों के अंतर से हराया. प्रेम मुखिया को कुल 61, 848 वोट मिले, जबकि शक्ति सिंह यादव के खाते में 61, 836 वोट आए.
इस बार की दावेदारी की बात करें तो राजद की ओर से शक्ति यादव का नाम सबसे आगे है. शक्ति यादव अभी पार्टी के प्रवक्ता है. और तेजस्वी यादव के करीबी लोगों में शामिल हैं. शक्ति यादव साल 2015 में इस सीट से विधायक भी रहे हैं. इनके अलावा राजद से महेश यादव और सुनील यादव भी टिकट के दावेदारों में हैं. वहीं जदयू की बात करें तो सीटिंग विधायक प्रेम मुखिया इस बार भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं. वहीं एक नाम नालंदा के वरिष्ठ पत्रकार कमल किशोर प्रसाद का भी है.
इस सीट के सामाजिक समीकरण की बात करें तो यहां कुर्मी जाति की आबादी सबसे ज्यादा है. वहीं यादव मतदाता की संख्या उनसे थोड़ी ही कम है. इसके अलावा मुस्लिम और भूमिहार वोटर भी इस सीट पर निर्णायक संख्या में हैं.
बरबीघा सीट पर 113 वोट का अंतर2020 विधानसभा चुनाव में हिलसा के बाद सबसे करीबी मुकाबला बरबीघा विधानसभा सीट पर हुआ. यहां जदयू के सुदर्शन कुमार ने कांग्रेस के गजानन शाही 'मुन्ना' को 113 वोट से हराया. सुदर्शन कुमार को 39,878 वोट मिले, जबकि गजानन शाही को 39,765 वोट आए. बरबीघा विधानसभा सीट पर भूमिहार जाति के वोटर्स सबसे ज्यादा हैं. इसके अलावा कुर्मी, पासवान और यादवों की संख्या भी अच्छी खासी है.
बरबीघा काफी हाई प्रोफाइल सीट है. जदयू के कद्दावर मंत्री अशोक चौधरी और उनके पिता महावीर चौधरी भी यहां से विधायक रह चुके हैं. और इस बार भी उनकी नजर इस सीट पर है. चौधरी अपने दामाद सायन कुणाल के लिए जदयू कोटे से ये सीट चाहते हैं. लेकिन उनका काम आसान नहीं है. क्योंकि वर्तमान विधायक सुदर्शन को राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का वरदहस्त प्राप्त है.
इस साल की शुरुआत में बरबीघा सीट को लेकर सीएम नीतीश के घर ललन सिंह और अशोक चौधरी के बीच कहासुनी हुई थी. मामला ये था कि अशोक चौधरी बार-बार बरबीघा के दौरे पर चले जाते थे. ये बात ललन सिंह को रास नहीं आई, क्योंकि इस सीट से ललन सिंह के करीबी सुदर्शन सिंह विधायक हैं.
सुदर्शन अपने समय के बड़े भूमिहार चेहरे रहे राजो सिंह के पोते हैं. साल 2005 में उनकी हत्या कर दी गई थी. अशोक चौधरी पर भी आरोप लगे थे लेकिन इसमें कुछ ठोस नहीं निकला और फिर उनकी सुदर्शन से सुलह भी हो गई.
जदयू से जहां सुदर्शन एक बार फिर से इस सीट से सबसे बड़े दावेदार हैं. वहीं अशोक चौधरी अपने दामाद को टिकट दिलाने की कोशिश में हैं. कांग्रेस की बात करें तो गजानन शाही 'मुन्ना' फिर से टिकट की दावेदारी कर रहे हैं. वहीं बरबीघा की स्थानीय राजनीति में मजबूत पकड़ रखने वाले त्रिशूलधारी सिंह भी कांग्रेस में टिकट के लिए हाजिरी लगा रहे हैं. इनके अलावा इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ सहजानंद सिंह अपने बेटे डॉ ऋषभ के लिए टिकट के जुगाड़ में हैं. हालांकि उनके लिए पार्टी की बंदिश नहीं है. यानी जहां से मौका मिल जाए ठीक.
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रामगढ़ में सुधाकर सिंह भी राम-राम से जीतबक्सर के मौजूदा राजद सांसद सुधाकर सिंह कैमूर जिले के रामगढ़ विधानसभा सीट से 189 वोट से जीते थे. उन्होंने बसपा के अंबिका सिंह यादव को हराया था. तीसरे नंबर पर रहे बीजेपी प्रत्याशी अशोक कुमार सिंह भी ज्यादा पीछे नहीं रहे थे.
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में सुधाकर सिंह बक्सर से सांसदी जीत गए. उनकी जगह राजद ने उनके भाई अजीत सिंह को टिकट दिया. लेकिन इस बार बाजी पलट गई. अजीत सिंह तीसरे नंबर पर चले गए. बाजी हाथ लगी पिछली बार तीसरे नंबर पर रहे अशोक कुमार सिंह को. उन्होंने बसपा के सतीश कुमार यादव को 1,362 वोटों से हराया.
यह सीट सुधाकर सिंह की पारिवारिक सीट रही है. उनके पिता और राजद के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह इस सीट से 1985 से 2005 तक लगातार विधायक चुने जाते रहे हैं. साल 2009 में बक्सर से सांसद बनने के बाद जगदानंद सिंह ने ये सीट खाली की. उनके सीट छोड़ने के बाद हुए उपचुनाव में राजद से अंबिका यादव जीते. इसके बाद 2010 विधानसभा चुनाव में राजद उनके बेटे सुधाकर सिंह को टिकट देना चाहती थी. लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध किया. मगर सुधाकर सिंह को यह बात रास नहीं आई. उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने का एलान कर दिया.
बीजेपी ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए सुधाकर सिंह को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बना डाला. लेकिन बगावत पर उतरे सुधाकर को अपने पिता का साथ नहीं मिला. जगदानंद सिंह ने अपने बेटे के खिलाफ राजद उम्मीदवार अंबिका यादव का प्रचार किया. नतीजा हुआ कि सुधाकर सिंह हार गए. और राजद उम्मीदवार की जीत हुई. इसके बाद 2015 विधानसभा चुनाव में बीजेपी के अशोक कुमार सिंह ने अंबिका यादव को हरा दिया.
रामगढ़ के जातीय समीकरण की बात करें तो आबादी के हिसाब से राजपूत जाति के वोटर सबसे ज्यादा हैं. वहीं दूसरे नंबर पर मुस्लिम वोटर हैं. इसके अलावा यादव और दलित वोटर्स की संख्या भी निर्णायक है.
राजद की ओर से इस बार भी अजीत सिंह को ही टिकट मिलने की उम्मीद है. वहीं बीजेपी अपने सीटिंग विधायक अशोक कुमार सिंह के साथ ही जाती दिख रही है. इस सीट पर राजद और बीजेपी का खेल बिगाड़ने वाली बसपा इस बार किस उम्मीदवार पर भरोसा जताती है ये देखना दिलचस्प होगा.
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मटिहानी में 333 वोटों से जीते राजकुमार सिंहसाल 2020 में चिराग पासवान ने एनडीए से बगावत करके अकेले 137 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इसमें से उनको सिर्फ मटिहानी विधानसभा सीट पर सफलता मिली थी. इस सीट से लोजपा के प्रत्याशी राजकुमार सिंह ने जदयू के नरेंद्र कुमार सिंह उर्फ बोगो सिंह को 333 वोट से हराया था. तीसरे नंबर पर रहे CPI (M) कैंडिडेट राजेंद्र कुमार सिंह भी मात्र 765 वोट से ही पीछे रहे. लोजपा के टिकट पर चुनाव जीते राजकुमार सिंह ने चुनावों के तुरंत बाद पाला बदलकर जदयू की सदस्यता ले ली.
मटिहानी विधानसभा सीट की स्थापना साल 1977 में हुई. यह बेगूसराय लोकसभा सीट का हिस्सा है. शुरुआती दौर पर यहां कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) का प्रभाव था. CPI ने पहले सात में से पांच चुनाव जीते. बाकी दो बार कांग्रेस का कब्जा रहा. इसके बाद नरेंद्र कुमार सिंह उर्फ बोगो सिंह ने चार बार लगातार इस सीट से जीत हासिल की. जिसमें दो बार उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी (2005 में दोनों बार) के तौर पर और दो बार जदयू (2010 और 2015) के टिकट पर चुनाव लड़ा.
मौजूदा विधायक राजकुमार सिंह के पिता कामदेव सिंह भी बेगूसराय की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं. उन पर कांग्रेस के लिए बूथ लूटने के आरोप लगते रहे हैं. कामदेव सिंह पर गांजे के तस्करी के आरोप भी लगे थे. साल 1980 में पुलिस एनकाउंटर में उनकी मौत हो गई.
मटिहानी विधानसभा सीट के जातीय समीकरण की बात करें तो इस सीट पर भूमिहार वोटर्स की संख्या सबसे ज्यादा है. इसके बाद अनुसूचित जाति और मुस्लिम वोटर्स भी अच्छी संख्या में हैं. वहीं पासवान, यादव और कोइरी वोट भी इस सीट पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं.
मटिहानी सीट से मौजूदा विधायक राजकुमार सिंह जदयू से टिकट के प्रबल दावेदार हैं. उनके प्रतिद्वंद्वी बोगो सिंह ने इसी अंदेशा के चलते पार्टी बदल ली है. अब राजद में आ गए हैं. बोगो सिंह के राजद के साथ जाने से इस सीट को लेकर राजद और CPI (M) में खींचातानी हो सकती है. उनके प्रत्याशी राजेंद्र प्रसाद सिंह भले ही तीसरे नंबर पर रहे थे. लेकिन उनकी हार का अंतर मात्र 765 वोट था. सीपीएम अपनी मजबूत पकड़ वाली सीट पर दावेदारी शायद ही छोड़े. ऐसे में हो सकता है कि राजद बोगो सिंह को किसी दूसरी सीट पर समायोजित करे.
शिक्षा मंत्री सुनील सिंह भोरे से 462 वोट से जीतेभोरे विधानसभा सीट गोपालगंज जिले में आती है. यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. इस सीट से जदयू के सुनील सिंह ने सीपीआई एमएल के जितेंद्र पासवान को 462 वोटों से हराया. इस सीट पर तीसरे नंबर पर नोटा ने कब्जा जमाया था, जबकि चिराग पासवान की पार्टी की उम्मीदवार पुष्पा देवी चौथे स्थान पर रहीं.
भोरे विधानसभा का गठन साल 1957 में हुआ था. साल 1977 में इसे अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित घोषित किया गया. इसके बाद से यहां अब तक 16 बार चुनाव हो चुके हैं. इनमें कांग्रेस ने आठ बार जीत दर्ज की है. जबकि जनता दल, बीजेपी और राजद दो-दो बार इस सीट से जीत चुकी है. वहीं जनता पार्टी और जदयू एक-एक बार यहां जीत का स्वाद ले चुकी है.
भोरे विधानसभा के जातिगत समीकरण की बात करें तो यहां रविदास (चमार) और कोइरी जाति के वोटर्स की संख्या सबसे ज्यादा है. इसके अलावा मुस्लिम और यादव वोटर्स की संख्या भी अच्छी खासी है.
शिक्षा मंत्री सुनील कुमार नौकरशाही बैकग्राउंड से आते हैं. वो भारतीय पुलिस सेवा (IPS) अधिकारी रहे हैं. अगस्त 2020 में रिटायरमेंट के सिर्फ 29 दिन बाद उन्होंने जदयू जॉइन कर राजनीति में कदम रखा. और कड़े मुकाबले में जितेंद्र पासवान को हराया. सुनील कुमार पहले उत्पाद एवं मद्य निषेध मंत्री बने और फिर मार्च 2024 में शिक्षा मंत्री बनाए गए.
सुनील कुमार के भाई अनिल कुमार साल 1985, 2005 और 2015 में भोरे (सुरक्षित) सीट से विधायक रहे. लेकिन साल 2020 में भाई के जदयू में शामिल होने पर उन्होंने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया. अनिल कुमार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे. सुनील कुमार के पिता चंद्रिका राम इस विधानसभा क्षेत्र के पहले विधायक थे. कांग्रेस की सरकार में उनको कृषि मंत्री भी बनाया गया था.
भोरे सीट पर इस बार किसी बदलाव की कम ही उम्मीद है. एनडीए की ओर से जदयू सुनील कुमार के साथ ही जाती दिख रही है. वहीं सीपीआई एमएल भी थोड़े वोटों से चूक गए जितेंद्र पासवान पर ही भरोसा जताती दिख रही है.
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इन सीटों पर भी था हजार से कम अंतररोहतास जिले के डेहरी विधानसभा सीट से राजद के फतेह बहादुर सिंह ने बीजेपी के सत्यनारायण सिंह को महज 464 वोटों से हराया था.वहीं बेगूसराय के बछवाड़ा विधानसभा सीट से बीजेपी के सुरेंद्र मेहता ने CPI के अवधेश राय को 484 वोटों से हराया. सुरेंद्र मेहता मौजूदा सरकार में खेल मंत्री हैं. वहीं अवधेश राय ने लोकसभा चुनाव 2024 में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को चुनौती दी थी.
जमुई जिले के चकाई सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लड़ रहे सुमित सिंह ने राजद के सावित्री देवी को 581 वोटों से हराया. सुमित सिंह के पिता नरेंद्र सिंह जदयू के कद्दावर नेता और बिहार सरकार में मंत्री रहे हैं. नरेंद्र सिंह नीतीश कुमार के करीबी मित्रों में से थे. सुमित सिंह ने निर्दलीय जीतने के बाद जदयू को अपना समर्थन दिया. और बदले में नीतीश कुमार ने उनको विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री की जिम्मेदारी दी. सुमित कुमार के इस बार जदयू से चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है.
मुजफ्फरपुर जिले के कुढ़नी सीट से राजद के अनिल कुमार सहनी ने बीजेपी के केदार प्रसाद गुप्ता को 712 वोटों से हराया. बाद में इस सीट से चुनाव जीत कर केदार गुप्ता पंचायती राज मंत्री बन गए. इस बार भी उनको टिकट मिलने की पूरी संभावना है. महागठबंधन में इस सीट को लेकर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है. अगर मुकेश सहनी विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनते हैं तो ये सीट उनके खाते में जा सकती है.
बेगूसराय का बखरी विधानसभा अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित है. इस सीट से CPI के सूर्यकांत पासवान ने बीजेपी के रामशंकर पासवान को 777 वोटों से हराया. इस बार भी दोनों पार्टियां अपने पुराने उम्मीदवारों के सहारे चुनावी मैदान में जाने की तैयारी में है.
खगड़िया से सम्राट चौधरी चुनाव लड़ सकते हैंखगड़िया जिले में आने वाले परबत्ता विधानसभा सीट से जदयू के डॉ. संजीव कुमार ने राजद के दिगंबर तिवारी को 951 वोट से हराया. डॉ. संजीव कुमार नीतीश कुमार के पाला बदलने के बाद हुए बहुमत परीक्षण के दौरान चर्चा में आए थे. उस दौरान वो सदन से गायब रहे थे. बाद में आर्थिक अपराध इकाई (EOU) ने उनके खिलाफ केस भी दर्ज किया. EOU का नोटिस मिलने के बाद से संजीव कुमार ने बगावत का सुर तेज कर दिया है.
अपनी जाति का समर्थन हासिल करने के लिए उन्होंने पिछले महीने पटना में ब्रहर्षि स्वाभिमान सम्मेलन कराया था. संजीव भूमिहार जाति से आते हैं. इस बार जदयू से उनका टिकट कटना लगभग तय माना जा रहा है. संजीव कुमार के पिता आरएन सिंह परबत्ता से चार बार विधायक रहे हैं. इसी साल उनका निधन हो गया. उनके पिता की मृत्यु के बाद तेजस्वी यादव भी शोक जताने पहुंचे थे. वहीं जदयू का कोई बड़ा नेता उनके यहां नहीं पहुंचा.
परबत्ता सीट के सामाजिक समीकरण की बात करें तो इस सीट पर भूमिहार, कुशवाहा और मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में है. परबत्ता सीट से विधायक रहे सतीश कुमार सिंह साल 1968 में पांच दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे. इसके अलावा बीजेपी के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी इस सीट से साल 2000 में राजद के टिकट पर विधायक बने थे. इसके बाद साल 2005 में हुए दोनों चुनाव में उनको हार मिली. फिर साल 2010 में सम्राट चौधरी ने फिर से जीत दर्ज की थी.
जदयू से इस बार डॉ. संजीव का टिकट कटना तय माना जा रहा है. संजीव के भाई राजीव कुमार बेगूसराय से कांग्रेस के टिकट पर एमएलसी हैं. माना जा रहा है कि संजीव कुमार भी इस बार कांग्रेस से चुनाव लड़ सकते हैं. उनकी जगह जदयू पूर्व मुख्यमंत्री सतीश कुमार सिंह के बेटे सुशील कुमार सिंह को टिकट दे सकती है. सुशील सिंह कुशवाहा जाति से आते हैं. वहीं एक चर्चा इस सीट से डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी के भी चुनाव लड़ने की है. इसके अलावा बीजेपी से सरला सिंह भी टिकट की दावेदार हैं.
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