उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई पार्टियों की पैदाइश जनता पार्टी से हुई है और जनता पार्टी की पैदाइश 23 जनवरी, 1977 को हुई थी. कांग्रेस और बीएसपी को छोड़ दें, तो भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, समाजवादी पार्टी का वजूद जनता पार्टी के विघटन से हुआ है. इनके नेताओं को ही ले लें, तो मुलायम सिंह यादव,राजनाथ सिंह, चौधरी अजीत सिंह जैसे नेता कभी जनता पार्टी के कार्यकर्ता हुआ करते थे.
जनता पार्टी का गठन
इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में इमरजेंसी लगा दी थी, जिसका विरोध उस समय की लगभग सभी विपक्षी पार्टियों ने किया. यहां तक कि कांग्रेस के भी कई नेताओं ने इमरजेंसी की वजह से पार्टी छोड़ दी और इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध करने लगे. सरकार का विरोध करने वाले खेमे का लीड कर रहे थे उस समय के जाने माने सोशलिस्ट नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी).

उस समय कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी. विपक्ष में उसके आस-पास कोई नहीं था. जेपी ने निर्णय लिया कि सभी विपक्षी पार्टियों को मिलकर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस सरीखी पार्टी का गठन कराया जाएगा. इसके लिए उन्होंने सभी पार्टियों से संपर्क किया. सोशलिस्ट, बागी कांग्रेसी धड़ा, दक्षिणपंथी से लेकर वामपंथी तक, सबसे जनता पार्टी के नाम से बन रहे मोर्चे में शामिल होने का अनुरोध किया गया. वामपंथियों ने इस मोर्चे में शामिल होने से मना कर दिया. बाकी सभी विचारधारा के लोग जेपी के ऐलान पर जनता पार्टी में शामिल हो गए.
राष्ट्रीय स्तर की अहम पार्टियों में लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और कांग्रेस(संघठन) का जनता पार्टी में मर्जर हो गया. जनता पार्टी का मकसद कांग्रेस के विरोध में देश को एक विकल्प देना और इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करना था. मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए. जयप्रकाश नारायण जनता पार्टी के चेहरा थे, लेकिन उन्होंने पहले से तय कर लिया था कि वे कोई पद नहीं लेंगे. यही वजह थी कि जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ किसी एक नेता को आगे रखकर चुनाव नहीं लड़ा.

इस कुनबे में खांटी कांग्रेसी मोरारजी देसाई थे, तो मधु लिमये, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस और मधु दंडवते जैसे समाजवादी भी थे. संघ परिवार के अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख थे, तो 1967 में कांग्रेस से बगावत कर लोक दल की नींव रखने वाले चौधरी चरण सिंह भी थे. इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद करने वाले चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत की युवा तुर्कों की चौकड़ी भी थीं. इस जमात में जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे कांग्रेसी भी शामिल थे, जो इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के साथ रहते हुए सत्ता-सुख भोगते रहे थे.
जनता पार्टी की जीत और पहली गैर कांग्रेसी सरकार की स्थापना
चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री पद के 3 दावेदार उभरे- मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह. जनता पार्टी संसदीय दल ने नेता चुनने का अधिकार जेपी और आचार्य जेबी कृपलानी को सौंप दिया. दोनों बुजुर्ग नेताओं ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी के नाम पर मुहर लगाई. चरण सिंह गृहमंत्री बने और जगजीवन जगजीवन राम रक्षामंत्री. 24 मार्च, 1977 को मोरारजी मंत्रिमंडल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी.
कुछ ही दिनों बाद इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच के लिए गठित शाह आयोग की सिफारिशों के आधार पर इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी हो गई, जिसके विरोध में संजय गांधी की ब्रिगेड ने देशभर में तूफान खड़ा कर दिया. पूरे देश में हजारों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने इंदिरा गांधी के समर्थन में अपनी गिरफ्तारियां दीं. इस मुद्दे पर पार्टी के अंदर ही मतभेद हो गए. गृहमंत्री के नाते गिरफ्तारी का आदेश चरण सिंह का था. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई इससे सहमत नहीं थे. और भी मसलों के चलते मतभेद बढ़ते गए.

आखिरकार चरण सिंह ने सरकार से इस्तीफा दे दिया. कुछ ही दिनों बाद चरण सिंह ने अपनी ताकत दिखाने के लिए दिल्ली के बोट क्लब पर एक विशाल किसान रैली की. माना जाता है कि चरण सिंह ने ये रैली मोरारजी सरकार को अपनी ताकत से वाकिफ करने के लिए किया था. चरण सिंह को दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया. इस बार उन्हें उपप्रधानमंत्री और वित्त मंत्री का पद दिया गया. और पार्टी के अंदर के मतभेद को खत्म करने के लिए बाबू जगजीवन राम को भी उपप्रधानमंत्री बनाया गया. यह पहला मौका था, जब देश में एकसाथ दो उपप्रधानमंत्री बनाए गए.
इसी बीच जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर बवंडर मच गया. जनता पार्टी के नेता मधु लिमये ने जनता पार्टी के उन नेताओं का विरोध किया जो जनता पार्टी में रहते हुए भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे. पार्टी में दूसरे समाजवादी नेताओं ने भी इसका विरोध किया. विरोधी नेताओं का कहना था कि एक साथ ही कोई नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते हैं. इसी दोहरी सदस्यता की वजह से मोरारजी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री राजनारायण को इस्तीफा देना पड़ा. और उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव, बिहार में कर्पूरी ठाकुर और हरियाणा में चौधरी देवीलाल को मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया गया. ये तीनो ही नेता पहले सोशलिस्ट पार्टी और लोकदल के सदस्य रहे थे. माना गया कि मोरारजी देसाई ने संघ के नेताओं के साथ मिलकर चरण सिंह को कमजोर करने के लिए ये कदम उठाए थे.
जनता पार्टी का पतन
जुलाई 1979 में चरण सिंह ने बगावत कर दी. उनके खेमे के करीब 90 सांसदों ने मोरारजी देसाई सरकार से समर्थन वापस लेकर अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया. चरण सिंह को इसके लिए संजय गांधी और इंदिरा गांधी का भी समर्थन मिला. राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे पुराने समाजवादी चरण सिंह के साथ हो गए. चरण सिंह के लीडरशिप में जनता पार्टी (सेकुलर) के नाम से नई पार्टी बनाई गई. जिसका नाम कुछ ही दिनों बाद लोकदल रख दिया गया.
20 अगस्त 1979 को चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए. पर इंदिरा गांधी के समर्थन वापस लेने की वजह से चरण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा. और राष्ट्रपति ने 22 अगस्त 1979 को लोकसभा भंग कर दी. चौधरी चरण सिंह ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने कभी संसद का सामना नहीं किया. चरण सिंह और उनके साथ ज्यादातर समाजवादीयों ने लोक दल जॉइन कर लिया. टूट के बाद अलग-थलग हो चुकी जनता पार्टी ने 1980 के लोक सभा चुनाव में जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़ा. पर उनकी करारी हार हुई. इस चुनाव में कांग्रेस ने दो-तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की. इंदिरा गांधी फिर देश की प्रधानमंत्री बनीं.
चुनाव के बाद जनसंघ ने भी जनता पार्टी से नाता तोड़कर अपने नेताओं के साथ मिल कर नई पार्टी भारतीय जनता पार्टी. बना ली. लोक दल का 1989 में जनता दल में मर्जर हुआ. वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवीलाल जैसे नेताओं की लीडरशिप में. पर इस मोर्चे का भी 1991 की लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद विघटन हो गया. मुलायम सिंह यादव ने अपनी अलग समाजवादी पार्टी बना ली. और चौधरी अजीत सिंह ने राष्ट्रीय लोक दल का निर्माण किया. कुल मिलकर हम देखें तो जनता पार्टी ने 77 के बाद की राजनीतिक गणित को बदल दिया. जनता पार्टी के ही क्षत्रपों ने मंडल से कमंडल तक को राजनीतिक मुद्दा बनाया. यूपी चुनाव में भी इसकी झलक देखने को मिल सकती है.

ये स्टोरी आदित्य प्रकाश ने की है
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