'आशिक़ तेरा, रुसवा तेरा, शायर तेरा, 'इंशा' तेरा'
इब्न-ए-इंशा के जन्मदिन पर उन्हें पढ़िए 'एक कविता रोज' में.

80-90 के दशक के बीच पैदा हुए और उसी दौर में बड़े हो रहे, इश्क़ में पड़े ज़्यादातर नौजवानों को ग़ज़लों से प्यार करना, सुनना और आहिस्ता-आहिस्ता समझने की भी कोशिश करना जगजीत सिंह ने सिखाया. फिर गुलाम अली ने. तमाम ग़ज़लों के साथ एक सबसे पसंदीदा जो ग़ज़ल हुआ करती थी, वो थी- 'कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा/ कुछ ने कहा ये चांद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा.' यक़ीनन ये सुनकर सबको अपने सपनों का चांद दिख जाता होगा. ख्यालों में ही सही. ये प्यारी सी बात और ये खूबसूरत ग़ज़ल थी- इब्न-ए-इंशा की. हिन्दुस्तान के जालंधर की पैदाइश और बंटवारे के बाद कराची जा बसे इब्न-ए-इंशा पर जितना हक़ पाकिस्तान का था, बराबर हक़ हिन्दुस्तान का भी था. इंशा को गुलाम अली ने भी खूब गाया और जगजीत सिंह ने भी. बाद में आबिदा परवीन की सूफ़ी आवाज़ ने इंशा की ग़ज़लों को पूरी दुनिया तक पहुंचाया. सिर्फ़ सुना और गाया ही नहीं, पढ़ने वालों ने इंशा को खूब पढ़ा भी. दुनियावी इश्क़ से लेकर आध्यात्मिक इश्क़ तक को अपने शब्दों में ढालने वाले इंशा घोर रियलिस्ट भी थे. उनके पैने व्यंग्य इसका नमूना हैं. खासकर 'उर्दू की आखिरी किताब’. तो एक कविता रोज़ में आज पढ़िए इंशा जी की कविताओं के कुछ हिस्से-