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आततायियों को सदा यह यकीन दिलाते रहो कि तुम अब भी मूलतः कवि हो

एक कविता रोज़ में आज अविनाश मिश्र की कविता

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23 मई 2018 (Updated: 23 मई 2018, 02:11 PM IST) कॉमेंट्स
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अविनाश मिश्रा वो लेखक, कवि और आलोचक हैं जिनकी किताब के इंतजार में लोग उलाहना देने लगे थे. फेसबुक पर कई जगह टैग और मैसेज करके लोग तगादे करते थे कि भैया अविनाश, और कित्ता तरसाओगे? क्या लेकर मानोगे? लेकिन अविनाश तगादे पर काम करने वाले आदमी नहीं हैं. वो तभी बोलते या लिखते हैं जब मन की गिरह खोलनी होती है. वो लालमिर्च टाइप की आलोचना करने के लिए फेमस हैं. माने कोई फिल्म या किताब आए और सब दौड़कर उसके आगे बिछ जाएं, बलैयां लेने लगें तो लोगों को अविनाश के कमेंट का इंतजार होता है. क्योंकि ये आदमी महज 'दोस्ती बनी रहे' इसके लिए किसी एवरेज काम को आउटस्टैंडिंग कैटेगरी और फाइव स्टार नहीं देता. दिलदार आदमी हैं, साथ मिलिए बैठिए तो साहित्यिक मेल मिलापों के इतने किस्से सुनाते हैं कि अपना लिटरेचर वाला खांचा एकदम ऊपर तक भरा हुआ महसूस होता है. साहित्य अकादमी से उनकी कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं. पढ़िए उनकी कुछ कविताएं-  कविताओं से पहले असद ज़ैदी की भूमिका पढ़िए, फिर आगे बढ़िए.

कमनीय लगने की इच्छा से रहितअसद ज़ैदी

  'अज्ञातवास की कविताएं' अविनाश मिश्र का पहला कविता-संग्रह साहित्य अकादेमी की नवोदय योजना के अंतर्गत प्रकाशित है. यह निश्चय ही समकालीन हिंदी कविता की एक उपलब्धि है. यह उन्हें अपनी पीढ़ी के बेहतर कवि और नुमाइंदा शख्सियत के रूप में सामने लाता है. अविनाश की कविता में एक ऐसे युवक की आत्मा रहती है, जो अपनी अस्मिता और अपनी आजादी के महत्व को जानता है, और जो अपने किरदार को मजबूती से संभाले अपनी जगह पर डटा हुआ है. जो अपने मुफस्सिल और अपने शहर दोनों को बराबर से जानता है, जो नॉस्टेल्जिया से भरे, शहर के विरुद्ध गांव की तरफदारी वाली वैचारिक रूढ़ि या स्टैंडर्ड टैंपलेट की शरण में नहीं जाता, उसके संशय और विचलन, उसका विद्रोह और समर्पण, उसकी ताकत और वेध्यता, उसकी वैचारिक और संवेदनात्मक दुनिया सबमें उसके इसी आग्रह का विस्तार दिखाई देता है. वह बहुत कम -- गिनती के -- औजारों से, बड़ी सधी हुई भाषा में कुछ बुनियादी से सिद्धांतों में गहरी आस्था के बल से कविताएं लिख रहे हैं. पढ़ते हुए यह चाहत मन में जागती है कि उपरोक्त तीनों चीजें, जो कि उनकी खूबियां हैं, देर और दूर तक साथ दें. अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत के तीव्र बोध के अलावा उनमें आत्मविश्वास है-- और ऐसा अंत:करण भी जो काले-सफेद के आत्यंतिक विभाजन की वैधता पर बार-बार बल देता है. अविनाश अपनी उम्र की सीमाएं लांघे बिना लिखते हैं, उनकी कविताएं अपने समय के भीतर रहती ऐसी कविताएं हैं जो न बहुत आगे देखती हैं, न बहुत पीछे. वे अपने अगल-बगल और सामने से सरोकार रखती हैं, अतीत से यहां मतलब निकट अतीत, खुद अपने पे गुजरा हुआ कुछ है, तब भी इनका खरापन और सदाकत ऐसी है जो तमाम कड़वाहट और अप्रसन्नता को एक खूबी में बदल देती है. ये पहली नजर में ही बता देती हैं कि वे असली धातु की बनी हैं। इनकी रोचकता और रूक्षता पाठकीय अभिरुचि और अपेक्षाओं से परे कहीं अपना जीवन जीती है. इसलिए दस-पंद्रह साल बाद भी इनसे वही ध्वनि निकलेगी जैसी आज निकलती है. वह वर्तमान के कवि हैं, कोई 'उम्मीद जगाने वाले' कवि नहीं. उनकी कविता विकासमान नहीं है, यानी वह भविष्य का रियाज नहीं है. इन कविताओं को इस अपेक्षा से पढ़ना कि इनसे कवि की संभावनाओं का, भावी दिशा का पता चलेगा, इनके प्रति गफलत दिखाना होगा. जिस तरह की कविता वह लिख रहे हैं, अपने में काफी और मुकम्मल है-- मेधा और तकनीक के स्तर पर उसमें रैखिक, ऊर्ध्वगामी 'विकास' एक सीमा तक ही संभव है. इस कवि को लेकर यह कामना करना बेहतर होगा कि उसके काव्य का क्षैतिज विस्तार होता रहे, कि उसकी उपलब्ध अभिरुचि और सहानुभूति का घेरा बढ़े, वह उन इलाकों में भी जाए जहां जाने का उसे मौका नहीं मिला. हो सकता है कि कवि स्वयं आगे ऐसी कविता न लिखे, वह अपना कवि-स्वभाव बदल दे. पर उसका यह दौर जो इन कविताओं में कैद है, ऐसा ही रहेगा. लिहाजा इन्हें इनके 'अभी' से घिरकर, इनकी तात्कालिकता और अर्जेंसी में, और इनकी दस्तावेजी उपलब्धि को समझते हुए, पढ़ना ही इनका अच्छी तरह साथ निभाना है. अविनाश मिश्र की कविता जहां से भी आती हो, सीधे पाठक की तरफ आती है. कुछ ही कविताएं पढ़कर पता चल जाता है कि वह एक अच्छे और टिकने वाले कवि हैं. कमनीय लगने की इच्छा से रहित. इनकी गढ़न और बर्ताव में एक गांधीवादी किस्म की सफाई भी है. वह तिरछी निगाह से नहीं देखते, भाषिक सादगी और किफायतशुआरी से काम लेते हैं, नेपथ्य में मौजूद आवाजों का इस्तेमाल नहीं करते. कविता के एक कारीगर के बतौर वह स्वर-बहुलता और भाषिक वैभव के उपलब्ध संसाधनों की खोज भी नहीं करते. सच तो यह है कि अपनी तेज-तर्रारी, सहज उम्दगी और आत्मविश्वास के बावजूद यह बहुत कम बोलने वाली और बहुत कम दावा पेश करने वाली कविता है. यह अपनी खामोश तबीअत को ढकने के लिए कहीं-कहीं वाचालता का भ्रम पैदा करती है. कभी आक्रामक भी लगती है, गौर से देखिए तो सोग मना रही होती है. पर इसमें भी यह हर कदम पर अपनी पारदर्शिता और ईमानदारी को साबित करती चलती है. कुल मिलाकर अविनाश की कविता एक कठिन प्रतिज्ञा और अर्जन की कविता है. *** Agyatwas ki kavitain

अज्ञातवास की कविताओं के बारे में अविनाश मिश्र

इन कविताओं के बारे में क्या कहूं, लेकिन कुछ कहना ही हो तब बस इतना ही कह सकता हूं कि इनका होना उन वर्षों के दरमियान हुआ… जब साहित्यिक दोस्तियों, पड़ोस और वातावरण से मैं बहुत दूर था. यह 2004 से 2012 के बीच का वक्त है. इस होने का आशय इस कविता-संग्रह के शीर्षक से भी बहुत खुलता है-- 'अज्ञातवास की कविताएं'. 18 की उम्र से लेकर 26 की उम्र तक का यह उस युवा का कविता-संसार है जिसकी उम्र आज 31 बरस है और जिसके पास पर्याप्त साहित्यिक मित्रताएं, पड़ोस और वातावरण है. इस बीच हुई कई कविताएं इस संग्रह में आने से रह भी गई हैं. वे खो गईं और खो भी दी गईं, वे कमजोर थीं और कमजोर मान भी ली गईं. वे अब जहां और जैसी भी हैं, 'डार से बिछुड़ी' हुई और बेघर हैं. कोई बुकमार्क उनके बीच कभी नहीं फंसेगा. समादृत कवि असद ज़ैदी ने प्रस्तुत पुस्तक की जो भूमिका लिखी है, वह मेरे लिए सबक की तरह है और रहेगी. विचलनों से बचने के लिए इसे वक्त-वक्त पर पढ़ते रहना होगा. और अंत में इस प्रसंग में यह और कहना है कि यह संग्रह किसी को समर्पित नहीं है, अर्थात सबको समर्पित है. ***

'अज्ञातवास की कविताएं' से चार कविताएं

मूलतः कवि

आततायियों को सदा यह यकीन दिलाते रहो कि तुम अब भी मूलतः कवि हो भले ही वक्त के थपेड़ों ने तुम्हें कविता में नालायक बनाकर छोड़ दिया है बावजूद इसके तुम्हारा यह कहना कि तुम अब भी कभी-कभी कविताएं लिखते हो उन्हें कुछ कमजोर करेगा *

कविताबाज

जैसाकि वह चाहता था अपने एक कविता-संग्रह के प्रकाशन के बाद कि उसे पढ़ा और समझा जाए जबकि पढ़ने और समझने लायक साढ़े चार लाख से ऊपर किताबें थीं नगर के बीचों-बीच स्थित उस लाइब्रेरी में जहां वह हर रोज तीन बसें बदलकर पहुंचता था। यह गौरतलब है कि कभी भी उसे बस में सीट नहीं मिली थी। वह ग्यारह सालों से खड़ा हुआ था खुद को कभी पर्वत कभी पेड़ कभी लैंपपोस्ट समझता हुआ। वह उस बनावट से बहुत दूर था आग्रह को जो आवश्यक समझती है। वह ग्यारह सालों से रोज तीन बसें बदलकर खड़े-खड़े नगर के बीचों-बीच स्थित उस लाइब्रेरी में जहां साढ़े चार लाख से ऊपर किताबें हैं केवल यह जानने के लिए आ रहा है कि उसका कविता-संग्रह अब तक किसी ने इश्यू कराया या नहीं। लाइब्रेरियन कहता है कि वह मर गया लेकिन वह अब भी आ रहा है पूर्ववत... *

प्रूफरीडर्स

वे ऐनक लगाकर सोते हैं गलतियों के स्वप्नवाही, सर्वव्यापी और अमित विस्तार में वे साहित्यकारों की तरह लगते हैं महाकाव्यों की गलतियां जांचते हुए इस संसार की असमाप्त दैनिकता के असंख्य पाटों के बीच वे सतत एक त्रासदी में हैं वे सब पुस्तकें वे पढ़ चुके हैं जो मैं पढूंगा वे सब जगहें वे सुधारकर रख देंगे एक दिन जो मैंने बिगाड़कर रख दी हैं वे एक साथ मेरे पूर्वज एक साथ मेरे वंशज हैं *

मुफलिसी में मुगालते

एक नितांत महानगरीय जीवन था और एक खोने-पाने-बचाने का रूढ़ क्रम एक अस्तित्व था और एक प्रक्रिया कई आदर्श और उदाहरण थे संबल और प्रेरणास्रोत बनने के लिए लोग थे जाने कहां-कहां से आकर अपना विरोध दर्ज कराते हुए उपेक्षाएं थीं आत्महीनताएं थीं और मैं था भारतीय राजधानी के कोने लाल करता हुआ इसकी दीवारों को नम करता हुआ यातायात संबंधी नियमों को ध्वस्त करता हुआ बेवजह लड़ता-झगड़ता और बहस करता हुआ एक अव्यावहारिक और अवांछित व्यक्तित्व समाज बदलने के ठेके नहीं उठाए मैंने और यकीन जानिए यह सब लिखते हुए मेरी आंखों में आंसू हैं
कुछ और कविताएं यहां पढ़िए:

‘पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं’

‘ठोकर दे कह युग – चलता चल, युग के सर चढ़ तू चलता चल’

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!'

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख'

‘दबा रहूंगा किसी रजिस्टर में, अपने स्थायी पते के अक्षरों के नीचे’


Video देखें:

एक कविता रोज़: 'प्रेम में बचकानापन बचा रहे'

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