'गांव वाले न रोकते तो गूगल मैप के चक्कर में हम खाई में गिर जाते'
पढ़िए बिहार-दिल्ली के एक लड़के की पहाड़ यात्रा का ट्रैवलॉग.
Advertisement

फोटो क्रेडिट: अविनाश चंचल

अविनाश चंचल
अविनाश चंचल घुमक्कड़ है. घूमता रहता है. जब नहीं घूम पाता है तो बौराया सा रहता है. इस बौराहट के दौरान जो कोई मिलता है, उससे पूछने लगता है- कहीं घूमने क्यों नहीं चले जाते? अपने मन की ख्वाहिश को वो दूसरों के भीतर बो देता है. खुद के लिए वो कुछ यूं तसल्ली खोज लेता है. अभी कुछ वक्त पहले प्राग होकर आया. वहां जब गया तो बेफिक्र होकर नाचा. कूदा, झूमा.
यूं तो अविनाश उम्र में मुझसे बड़े हैं, पर वो कहता है कि संबोधन के आखिर में 'हैं' नहीं, 'है' कहो. भैया नहीं, सिर्फ अविनाश कहो. मैं नहीं कह पाता हूं. पर जब लिख रहा हूं तो 'हैं' नहीं 'है' कह रहा हूं. आसान लग रहा है. खैर ये हुई अविनाश की बात. अब बात पहाड़ों की. दिल्ली जल रही है. इसलिए अविनाश पहाड़ों पर निकल गए. घूमे, तस्वीरें खेंची और इस पहाड़ यात्रा पर हमें कुछ लिख भेजा. आप भी पढ़िए अविनाश चंचल की ट्रैवल डायरी. - विकास
जून की गर्मी. दिल्ली जल रही है. अपने कुछ साथियों के साथ मैं पहाड़ों की तरफ जा रहा हूं. इस बार नैनीताल को चुना है. वैसे नैनीताल, मसूरी, शिमला में पर्यटकों की बहुत भीड़, बाजार और कोलाहल है, इसलिए नैनीताल से ऊपर जाने का सोचा है. करीब 25 किलोमीटर ऊपर पंघोट और दूसरे गांव हैं, वहीं रुकना तय हुआ है.
हम करीब आठ घंटे की यात्रा के बाद हलद्वानी पहुंचते हैं. हलद्वानी और काठगोदाम के बाद ही पहाड़ों पर चढ़ाई शुरू होती है. मुझे इससे पहले पहाड़ों की यात्रा में लगता रहा था कि मैंने घाटियों पर चढ़ाई-उतराई की कला सीख ली है. लेकिन यहां पहुंचते-पहुंचते घूमरी आने लगी है. चलते टैक्सी से चाहकर भी आंखें घाटी की तरफ फैले सुंदर दृश्यों को नहीं देख पाती हैं. थोड़ी चढ़ाई के बाद हम गूगल मैप्स का सहारा ले एक संकरे रास्ते पर चढ़ने लगते हैं. हमारा टैम्पो-ट्रैवलर किसी चालाक सांप की तरह आड़े-तिरछे चलते हुए उपर की तरफ भागा जा रहा है. मेरे मन में ड्राइवर और गूगल मैप दोनों के लिए तारीफ के भाव हैं. लेकिन तभी दो-तीन गांव वाले हमें रोकते हुए, हमारे पीछे भागते चले आते हैं. पता चलता है आगे रास्ता नहीं, गहरी खाई है.

फोटो क्रेडिट: अविनाश चंचल
अगर ऐसे ही चलते रहते तो खाई के नीचे मिलते. हम डरे. गूगल मैप पर भरोसा कम हुआ. कुछ साथियों की टैम्पो में बैठ नीचे जाने की हिम्मत नहीं हुई. हमने पैदल ही नीचे पहुंचना तय किया. टैम्पो लौट चुका है. नीचे हमारा इंतजार करेगा. दो किलोमीटर की उतराई हमने शुरू की. पहाड़ों पर नीचे उतरना एक ट्रिक है और ज्यादा मुश्किल भी. एक-दो गांव वाले हमें कुछ देर तक छोड़ जाते हैं. इतने सहज कि हमारी चिंता में खुद चिंतित दिखने लगे हैं. थोड़ी सी गपशप, लंबे वॉक और मोबाइल में पहाड़ पर बैठे बादलों की तस्वीर उतारते हुए हम नीचे टैम्पो के पास पहुंचे हैं.सुबह शुरू हुआ सफर रात को खत्म हुआ. सिगड़ी गांव पहुंचने पर. नैनीताल से करीब 30 किलोमीटर ऊपर. एक झोपड़ीनुमा रहने की जगह मिली है. सबलोग जल्दी-जल्दी सोने चले गए हैं. सुबह आंख खुली तो सामने दूर तलक फैले पहाड़, पाइन, ओक और देवदार के जंगल दिखे, जिस रिसॉर्ट में रुके थे वहां कुछ सुंदर फुल, खूबसूरत पत्तों वाले पेड़ दिख रहे हैं. रिसॉर्ट के पास ही वन विभाग और उत्तराखंड पर्यटन विभाग की तरफ से टेंट में रहने का इंतजाम किया गया है. सस्ता और खूब सुंदर. सुबह-सुबह देखा कुछ जोड़े टेंट के भीतर से पहाड़ों और बादलों को झांक रहे हैं.

फोटो क्रेडिट: अविनाश चंचल
सिगड़ी पहाड़ों की गोद में बसा एक बच्चा सा गांव है. प्यारा और खूबसूरत. जंगलों और पर्वतों से घिरा. यहां कई पहाड़ी नदी हैं. स्थानीय लोग उसे सोता बोलते हैं. गांव भर के पीने का पानी इसी सोते से आता है. हम जिस झोपड़ीनुमा कमरे में रुके हैं वहां अंदर टीवी लगे हैं. प्रकृति के इतने पास आकर भी कोई टीवी ऑन कर सकता है- कल्पना से परे है. यहां सिगड़ी गांव में, जहां हम रुके हैं इसी गांव के भुवन जी हैं- गाइड और केयरटेक. पहाड़ों में अब यह सामान्य हो चला है. दिल्ली और पंजाब के पैसे वाले लोग यहां रिसॉर्ट बनाते हैं और जमीन मालिक को केयर-टेकर जैसी छोटी-मोटी नौकरी दे दी जाती है.

फोटो क्रेडिट: अविनाश चंचल
दोपहर में पहाड़ घूमने निकला. चलते-चलते शाम हो गयी. पाइन, देवदार, सिल्वर ओक और न जाने कौन-कौन से पेड़ दिखे. गर्मी में सूख चुके जल सोतों पर जमी काई को छूआ. एक साथी ने ठीक ही कहा, इन पहाड़ों, पेड़ों से गुजरते हुए एक टाइमलेसनेस का एहसास होता है. हजारों सालों से ये पेड़, पहाड़ यहीं एक जगह जड़ हैं. अपने भीतर एक अनकहा इतिहास समेटे. मन प्रकृति के इस विशालता के लिये अतिरिक्त आदर से भर जाता है.
मन अजीब-अजीब ख्याल ला रहा है. पर्वत, पेड़, नदी सब एकदूसरे से सटे हैं. शायद आपस में उनकी मौन बातें होती होंगी. बाहरी आदमियों को देख क्या सोचते होंगे? क्या उन्हें भान भी होगा कि कितने दूर-दूर से लोग सिर्फ उनसे मिलने चले आ रहे हैं- उनके समीप बैठने, दुनियावी पीड़ा से पलभर को फुरसत पाने, भागते शहर से छुट्टी पा दमभर सुस्ताने. प्रकृति का यह आकर्षण किसी से कोई भेद नहीं करता. इसलिए शायद वह चिरंजीवी है- सदा के लिये.
इस विशाल पहाड़, जंगल के बीचों-बीच खड़े हो हाथ फैला प्रकृति के सामने सरेंडर करने का मन होता है. इन बहती हवाओं को भीतर समेटता हूं. इस संसार में अपने होने का भाव पता चलता है- जो कुछ भी नहीं है.

फोटो क्रेडिट: अविनाश चंचल
दूसरे दिन की सुबह ज्यादा खुली है. धूप खिली है. जून में सर्दियों वाली धूप को देखना ही कितना सुखद है! इतनी सुन्दर सुबह पिछले दिन कब देखी थी, याद नहीं. पहाड़ों पर लोग जल्दी जगते हैं. बिस्तर पर लेटे-लेटे सामने पहाड़ की चोटी पर चढ़ा सूरज दिख रहा है. उसके धूप में सामने के पेड़ सफेद से दिख रहे हैं. कमरे की खिड़की पर बारबार कुछ चिड़ियां आकर बैठती हैं और फिर चहचहाते हुए निकल जाती हैं. यहां बहुत सारी चिड़ियों की प्रजातियां हैं. गौरेया, लाफिंग थ्रस्ट, लंबी पूंछ वाली मैकेपी, बंसुरिया, मछलियों की तरह पूंछ वाले ब्लैक डोंगे, पट-पट आवाज करने वाली छोटी चिड़ियां पुटपुट, नीलकंठ तावा, हथेली भर की रॉस्टेड मईबर्ड, जिसके घोंसले को हर पहाड़ी अपने घर के लिये सौभाग्यशाली मानते हैं.
दोपहर में कैंप के लॉन में धूप बिखरी हुई है. हम सबने अपना-अपना कोना चुन लिया है. कोई ईयरफोन पर गाना सुन रहे हैं, कुछ चटाई बिछा रीडिंग में व्यस्त हैं. लंच और देर तक बातचीत के बाद यह ऐसा क्षण है जब हम सब अपने में खोना चाहते हैं. कुछ वक्त के लिये खुद में मग्न होना चाहते हैं. प्रकृति के इतने करीब बैठ मन ज्यादा एकाकीपन खोजता है शायद-खुद से बात करना, मौन में बात करना ज्यादा सुहाता है.
हमारा कैंप ऊंचाई पर है. नीचे कुछ घर दिख रहे हैं. कुछ महिलाएं खेत में काम कर रही हैं, कुछ बच्चे खेलने में मग्न हैं. मैं पानी बोतल लेकर नीचे उतरना तय करता हूं. थोड़ा नीचे आने पर पहाड़ और जंगल का लैंडस्केप ज्यादा चौड़ा दिख रहा है. धीरे-धीरे उतरते हुए एक घर के पास रुकता हूं- अलगनी पर कुछ कपड़े सूख रहे हैं- घर बंद हैं- लेकिन दरवाजे पर ताला नहीं लगा है.
मैं थोड़ा और नीचे उतरता हूं. खेलने वाले बच्चे रुककर देखते हैं. उनसे बात होती है. उनमें से एक का नाम राधा है. वो बताती है स्कूल में गर्मी की छूट्टी है. गांव में ही एक प्राइमरी स्कूल है. राधा वहीं छठी में पढ़ती है. इंटर तक पढ़ाई के लिये बगल के गांव में जाना होता है. फिर उससे आगे के लिये नैनीताल में कुमाउं विश्वविद्यालय है. मुझे बच्चों से बात करता देख वहां एक आदमी चला आता है- उनका नाम विपिनचन्द है. यहीं सिगड़ी गांव के रहने वाले हैं. फिर उनसे बात होने लगती है. बातचीत के बीच विपिन चाय ऑफर करते हैं. अब हम उनके घर पर हैं. विपिन उत्तराखंड के बारे में, गांव के बारे में, जीवन की दूसरी दिक्कतों के बारे में बताते जा रहे हैं. इस बीच एक लड़की चाय लेकर आ जाती है. चाय बेहद अच्छी बनी है. हमारी बातचीत जारी है. गांव के कोने पर ही एक छोटा सा अस्पताल है. डॉक्टर साहब सुबह 10 से 3 बजे तक बैठते हैं. इमरजेंसी केस में नैनीताल भागना पड़ता है. अब तो जीप की सुविधा है, सड़क भी अच्छी है. विपिन बताते हैं पहले खाट पर ही मरीज को लेकर 25 किलोमीटर नीचे उतरना पड़ता था. कई जान तो इसी चढ़ाई-उतराई में चली जाती थी. लेकिन अब राहत है. बहुत इमरजेंसी होने पर सरकारी एंबुलेंस भी चली आती है.
गांव के ज्यादातर लोग आर्मी, पुलिस में भर्ती हो जाते हैं या फिर होटलों में लग जाते हैं. खेती के नाम पर आलू, प्याज, राजमा, गोभी, मटरबीन, धनिया उगायी जाती है. सब्जियों की खेती में रसायन का इस्तेमाल नहीं किया जाता. चावल-गेंहू जैसी चीजें नैनीताल से खरीदनी पड़ती है. यहां सेब के पेड़ भी काफी हैं. सेब बेचकर आमदनी थोड़ी-बहुत हो जाती है. लेकिन बिचौलिये की वजह से कभी सही कीमत नहीं मिलती.
सिगड़ी गांव छोटा सा है. कुछ 50 परिवार रहते हैं. ज्यादातर खेती पर ही निर्भर. पलायन न के बराबर. खुद विपिनचन्द सिर्फ दो बार दिल्ली गए हैं- वो भी प्रगति मैदान में लगे ट्रेड फेयर में. हल्द्वानी-देहरादून भी जाने की जरूरत नहीं पड़ती.
कई सारे डिटेल्स समेट विपिनचन्द और उनके परिवार से विदा लेता हूं. लगता नहीं है कि अभी दो घंटे पहले यह परिवार मेरे लिये अजनबी था. एक तस्वीर ली है. हमने आपस में नंबर एक्सचेंज किया है. फोन पर बात करने के वायदे और रात के खाने का ऑफर प्यार से ठुकराते हुए मैं वहां से निकल आता हूं. मुझे याद नहीं, शहर में रहते हुए कब किसी अजनबी से इतने स्नेह से मिला हूं. कब किसी जाते को रोक उसे चाय ऑफर किया है. शायद कभी नहीं. ये कितनी छोटी-छोटी बातें हैं. लेकिन बड़े शहरों में रहते हुए, बड़े जीवन, बड़े सुख की तलाश में हमने छोटी-छोटी बातों में सुख तलाशना छोड़ दिया है. मन होता है दिल्ली पहुंचते ही किसी अजनबी के लिये खाना बनाऊं, किसी को रोक चाय के लिए पूंछ लूं. बहुत मुश्किल तो नहीं है ना?

फोटो क्रेडिट: अविनाश चंचल
मैं अपने कैंप की तरफ लौट आया हूं. रास्ते में स्थानीय जिला परिषद सदस्य मिल जाते हैं. एक राष्ट्रीय पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं. उनकी नयी इमारत को देखता हूं. थोड़ी बातचीत के बाद मुझसे पूछते हैं- हिन्दू हो न?
धर्म ने हमारी राजनीति को ही नहीं समाज को भी गहरे तक विषैला बना दिया है. शहर और गांव कोई इस जहरीली राजनीति में पीछे नहीं रहना चाहता.मन थोड़ा उखड़ जाता है. चुपचाप कैंप लौट आया हूं. लॉन के एक कोने में चुपचाप बैठा हूं. सारे अपने याद आते हैं. छूट चुके लोगों को याद करता हूं. पहाड़, गांव, ठंडक, बादल, पेड़, सब एक-एक कर दिल में भरने लगे हैं. यहां से लौटने का मन नहीं होता. लेकिन लौटना सच है. लौटते हुए कुछ बचा लेने के मोह में ली गयी ढेर सारी तस्वीरों की एक फाइल है और कुछ ठंडी यादें, जो शहर की गर्मी में राहत देंगी.
पढ़िए अविनाश चंचल की प्राग डायरी: चंचल मन-1