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त्रिपुरा को पाकिस्तान में जोड़ने के लिए क्या षड़यंत्र रचा गया?

मुस्लिम लीग के षड्यंत्र को त्रिपुरा की महारानी ने कैसे फेल किया.

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त्रिपुरा की आख़िरी महारानी कंचन प्रभा देवी से 1949 में विलय पत्र में हस्ताक्षर किए और त्रिपुरा का भारत में विलय हो गया (तस्वीर: Wikimedia Commons)
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21 सितंबर 2022 (Updated: 19 सितंबर 2022, 17:29 IST)
Updated: 19 सितंबर 2022 17:29 IST
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1931 की एक सुनहरी दोपहर. ब्रिटिश आर्मी अफसरों के बीच पोलो का मैच चल रहा था. देखने वालों में से एक का नाम था’ सीजर दे ट्रे’. ये जनाब स्विस घड़ियों के शौक़ीन थे. मैच के बीचों बीच घड़ियों की बात चल पड़ी. एक ब्रिटिश अफसर ने कहा, यार, बॉल लगने से घड़ी का कांच टूट जाता है. कोई ऐसी घड़ी है क्या जिसका कांच न टूटे. 

ऐसा पक्का कांच बनाना तो संभव न था. लेकिन सीजर के दिमाग में एक डिज़ाइन का आइडिया आया. उन्होंने येगर लीकोल्टा नाम की स्विस कंपनी से बात की. और ऐसी घड़ी का डिज़ाइन तैयार करवाया जिसका डायल पलटा जा सकता था. यानी खेलने के दौरान डायल के पीछे वाला हिस्सा आगे कर सकते थे और आगे वाला पीछे. इस घड़ी को नाम मिला रिवर्सो. घड़ी लॉन्च हुई और हाथों हाथ बिकने लगी. भारत में स्विस घड़ियों की बड़ी मांग थी. खासकर राजा महाराजाओं के बीच. खास आर्डर से ऐसी घड़ियां भी बनती थी जिनके डायल में तस्वीर लग सकती थी. और जिन्हें तोहफे में देने का चलन था.
 

येगर लीकोल्टा के म्यूजियम में रखी घड़ी (तस्वीर: swissinfo.ch)

कट टू 2004-
येगर लीकोल्टा अपने म्यूजियम के लिए पुरानी घड़ियों को ढूंढ रही थी. इस दौरान एक ऑक्शन में उन्हें एक 1932 मेड रिवर्सो मिली. इस घड़ी में एक भारतीय राजकुमारी का चेहरा बना हुआ था. बहुत खोजबीन हुई. जब ये घड़ी बनी थी तब 520 से ज्यादा रियासतें थीं. इसलिए तमाम एल्बम खंगाले गए. फिर बात जाकर एक रानी पर ठहरी. आज जो किस्सा हम आपको बताने जा रहे हैं, वो इसी रानी से जुड़ा है. रानी जिसने सही घड़ी पर सही कदम न उठाया होता तो भारत का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्ज़े में जा सकता था.

त्रिपुरा के भारत में विलय की घोषणा 

1947 का साल. आजादी से पहले ही रियासतों को लेकर गहमागहमी शुरू हो चुकी थी. उत्तरपूर्व भारत में त्रिपुरा राज्य पर माणिक्य वंश का राज था. राजा थे बीर बिक्रम किशोर देब बर्मन. आज जो त्रिपुरा है अंग्रेज़ उसे हिल टिप्पेरा के नाम से बुलाते थे. साथ ही इसमें टिप्पेरा जिला भी आता था. पहले उदयपुर इसकी राजधानी हुआ करता था. फिर 18 वीं सदी में ओल्ड अगरतला और 19 वीं सदी में एक नए शहर को अगरतला नाम देकर राजधानी बनाया गया. त्रिपुरा के राजा तब आसपास के इलाके जैसे नोआखाली और सिलहट से भी जमींदारी वसूला करते थे. जिसका एक हिस्सा अंग्रेज़ों के पास जाता था. 

हिल टपेरा का नक्शा 1858 (तस्वीर: Wikimedia Commons)

अब देखिए आजादी से ठीक पहले क्या खेल हुआ. रेडक्लिफ ने बंटवारे में टिप्पेरा जिला, नोआखाली समेत काफी हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया गया. इसके अलावा चिटगांव का पहाड़ी इलाका भी पाकिस्तान के हिस्से चला गया. जबकि यहां 97 % जनसंख्या बौद्ध धर्म मानने वालों की थी. और ये लोग भारत से जुड़ना चाहते थे. 

मुस्लिम लीग 1947 की शुरुआत से ही इसको लेकर प्रयासरत थी. दंगो का माहौल बना तो इन इलाकों से लोग भागकर त्रिपुरा और आसपास के राज्यों में शरण लेने पहुंचे. 1947 के अप्रैल महीने तक राजा बीर बिक्रम को अंदेशा हो चुका था कि भारत पाकिस्तान बंटवारे की घोषणा होते ही सिचुएशन और ख़राब हो जाएगी. 28 अप्रैल 1947 के रोज़ राजा बीर बिक्रम से घोषणा की कि त्रिपुरा भारत का हिस्सा बनेगा. इस बाबत उन्होंने संविधान सभा के सचिव को एक टेलीग्राम भेजकर खबर भी कर दी.

महाराजा की मौत 

इसके कुछ दिनों बाद 17 मई को अचानक महाराजा की मौत हो गई. युवराज किरीट बिक्रम किशोर माणिक्य अभी छोटे थे. इसलिए एक रीजेंसी काउंसिल बनाकर राजकाज का काम सौंप लिया महारानी ने. इनका नाम था कंचनप्रभा देवी. 1914 में पैदा हुई कंचनप्रभा पन्ना के महाराज की सबसे बड़ी बेटी थीं. और 17 साल की उम्र में उनका महाराजा से विवाह हुआ था. महाराजा की मौत से सारी जिम्मेदारी उन पर आ गई थी. और बाहरी और भीतरी शक्तियों से लगातार खतरा बना हुआ था. ऐसे में राजभवन के भीतर से शुरुआत हुई एक षड्यंत्र की.

महाराजा बीर बिक्रम और महारानी कंचन प्रभा देवी (तस्वीर: tripura-infoway)

राजा बीर बिक्रम के एक सौतेले भाई हुआ करते थे. नाम था दुर्जय किशोर. इनकी खुद राजा बनने की तमन्ना थी. दुर्जय किशोर ने अब्दुल बारिक उर्फ़ गेड़ू मियां से हाथ मिला लिया. जो तब उस इलाके के सबसे रईस लोगों में से एक थे. और अंजुमन-इ इस्लामिया नाम के एक संगठन के लीडर हुआ करते थे. इस संगठन को मुस्लिम लीग का समर्थन था, जिसके हौंसले, चिटगांव और टिप्पेरा को पाकिस्तान को दिए जाने से पहले से ही बढ़े हुए थे. बारिक और दुर्जय चाहते थे कि त्रिपुरा को पाकिस्तान में मिला लिया जाए. जिसके बाद सत्ता दुर्जय के हाथ में आ जाती. लेकिन इनके सामने दिक्कत थी. 

11 जून को त्रिपुरा काउंसिल ने एक नोटिफिकेशन निकाला और सारी जनता को सूचित कर दिया कि महाराजा बीर बिक्रम पहले ही भारत में मिलने का निर्णय ले चुके हैं. इसके अलावा उन्होंने त्रिपुरा की तरफ से संविधान सभा में अपना रेप्रेज़ेंटेटिव भी नामजद कर दिया था. माहौल भड़काने के लिए अंजुमन-इ इस्लामिया ने स्थानीय समर्थन जुटाना शुरू किया. और लोगों को भारत के खिलाफ भड़काने के लिए दुष्प्रचार करने लगे. 

मुस्लिम लीग का षड़यंत्र 

जैसे ही महारानी को इसकी खबर लगी, उन्होंने कुछ सख्त कदम उठाए. परिषद में कई मंत्री दुर्जय का समर्थन करते थे. ऐसे मंत्रियों का इस्तीफ़ा लेकर कइयों को राज्य से बाहर भेज दिया गया. और उनके राज्य में घुसने पर पर रोक लगा दी. महारानी जानती थी. सरदार पटेल को इसकी खबर मिलना जरूरी है. वो अपने पिता के साथ पहले भी पटेल से मिल चुकी थीं.

त्रिपुरा का राजमहल उजयन्ता (तस्वीर: इंडिया टुडे) 

अक्टूबर महीने में उन्होंने बंगाल कांग्रेस कमिटी के जरिए सरदार पटेल को एक संदेश भिजवाया. पटेल तुरंत हरकत में आए और उन्होंने आसाम के गवर्नर अकबर हैदरी को खत लिखकर त्रिपुरा और मणिपुर के हालत पर नज़र रखने को कहा. महारानी को कुछ समय तक सुरक्षा के लिए शिलॉन्ग में रखा गया. और कुछ ही दिनों बाद एयर फ़ोर्स की एक टुकड़ी को त्रिपुरा के लिए रवाना हो गईं. 

भारत सरकार की सलाह से 12 जनवरी 1948 को महारानी ने रीजेंसी काउंसिल भंग कर दी. और भारत सरकार से नेगोशिएट करने किए लिए स्वयं प्रतिनिधि बन गई. इसके एक साल बाद तक स्थिति यथावत बनी रही. महारानी ने त्रिपुरा में किसी भी तरह का कोई विद्रोह होने से बचाए रखा. वहीं पटेल ने सुनिश्चित किया कि त्रिपुरा में पाकिस्तान कश्मीर जैसी कोई हरकत न कर पाए. 9 सितंबर 1949 को त्रिपुरा मर्जर डॉक्यूमेंट पर दस्तखत हुए. और 15 अक्टूबर 1949 को त्रिपुरा आधिकारिक तौर पर भारत में विलय हो गया. 1956 में त्रिपुरा को यूनियन टेरिटरी का दर्ज़ा मिला. और 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिल गया. 

60 लाख की घड़ी 

उस घड़ी का क्या हुआ जो 2004 में मिली थी?
येगर लीकोल्टा कंपनी ऑक्शन में 50 लाख रूपये देकर इस घड़ी को खरीदा था. स्विजट्रलैंड में एक जगह है. जिसका नाम है वैले डी ज्यू. इसी घाटी में आज से 200 साल पहले स्विस होरोलॉजी की शुरुआत हुई थी. होरोलॉजी यानी घड़ी बनाने की कला. फेमस स्विस घड़ियों के ब्रांड्स में से कई के ऑफिस आपको यहां मिल जाएंगे. येगर लीकोल्टा ने यहां अपने म्यूजियम में इस घड़ी को रखा. 

ज़ुबैदा बेगम (तस्वीर: Wikimedia Commons)

घड़ी के बारे में सिर्फ इतनी जानकारी मिल पाई थी कि साल 1990 के आसपास इसे लुफ्तांसा फ्लाइट्स के एक पायलट ने मुंबई की किसी दुकान से खरीदा था. इसके अलावा उनके पास थी सिर्फ वो तस्वीर जो घड़ी के डायल पर बनी थी. सैकड़ों एल्बम खंगालने के बाद आखिर में तस्वीर मिली त्रिपुरा की आख़िरी महारानी महारानी कंचन प्रभा देवी की. जिनका चेहरा तस्वीर से काफी मिलता था. साल 2015 में महारानी कंचनप्रभा के पोते ने इस बात की तस्कीद भी कर दी कि घड़ी में उन्ही की दादी की तस्वीर है. कहानी यहां खत्म नहीं हुई. अक्टूबर 2016 में एक और दावेदार सामने आया. मुम्बई के रहने वाले निखिल धनराजगीर ने स्विसवॉच.इंफो नाम की वेबसाइट से बात करते हुए दावा किया कि घड़ी में लगी तस्वीर उनकी दादी की है. नाम-ज़ुबेदा बेगम धनराजगीर. ये कौन हैं? 

GK का वो सवाल याद होगा आपको कि भारत की पहली आवाज वाली फिल्म कौन सी थी? जवाब है आलम आरा. तो इस फिल्म में आलम आरा का किरदार इन्हीं ज़ुबेदा बेगम ने निभाया था. ज़ुबैदा ने 1937 में आई देवदास सहित करीब 60 से अधिक फिल्मों में काम किया था. इसके अलावा उनकी एक पहचान ये भी थी कि वो सूरत की एक रियासत सचीन के नवाब इब्राहिम मुहम्मद याकूत खान की बेटी थीं. उनके पोते निखिल के अनुसार ज़ुबैदा को उनकी शादी पर ये घड़ी तोहफे में मिली थी. 

इन दो मुख्य दावेदारों के बीच कम्पनी ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेन्स की मदद से तस्वीरों के मिलान के कोशिश की. लेकिन फिर भी पक्का नहीं हो पाया कि ये तस्वीर किसकी है. घड़ी आज भी येगर लीकोल्टा के म्यूजियम में रखी हुई है. और उसके नीचे लिखा हुआ है, द इंडियन ब्यूटी.

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