The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Story of fall of socialist leader George Fernandes who threw Coca-Cola out of India

जॉर्ज फर्नांडिस: भारत का वो नेता, जिसने दोस्ती के चक्कर में सरकार गिरा दी

यह अब आप पर छोड़ा जाता है कि राजनीतिक गलियारों में भुला दिए गए “जैरी” को आप किस तरह से याद रखना चाहते हैं.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
विनय सुल्तान
3 जून 2020 (Updated: 2 जून 2020, 04:50 AM IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
29 जनवरी 2019 को जॉर्ज फर्नांडिस का निधन हो गया था. वो 88 साल के थे. उनकी जीवन यात्रा लोकतंत्र की किताब में एक मुकम्मल पाठ है. हम उसे तीन किस्तों में समेटने की कोशिश कर रहे हैं. ये दूसरी किस्त है. पहली किस्त आप यहां क्लिक करके
 और तीसरी किस्त आप यहां क्लिक करके
 पढ़ सकते हैं.


पिछली कड़ी में
आपने पढ़ा कि किस तरह 1949 में एक बेरोजगार नौजवान की तरह मुंबई पहुंचने वाले जॉर्ज 60 के दशक में बॉम्बे की टैक्सी यूनियन के सबसे बड़े नेता बन कर उभरे. आपने आपातकाल के उस घटनाक्रम के बारे में भी पढ़ा जिसने जॉर्ज को नौजवानों के मन में प्रतिरोध का सबसे बड़ा प्रतीक बना दिया.
इसके बाद मजदूर बस्तियों से अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत करने वाले जॉर्ज का बेड़ा लुटियंस दिल्ली में पहुंचा. कहानी की इस कड़ी में उनकी इस यात्रा और विरोधाभास की पड़ताल की गई है.

कोकाकोला की घर वापसी

1977 में ही मुजफ्फरपुर सर्किट हाउस में एक मीटिंग के दौरान जॉर्ज के सामने काले रंग का एक चरचरा सा पेय पेश किया गया. पूछने पर पता लगा कि इसे कोकाकोला कहा जाता है. जॉर्ज उस समय उद्योग मंत्री हुआ करते थे. उन्होंने इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के बारे में और जानकारी जुटानी शुरू की.
डबल सेवन
डबल सेवन

इंदिरा गांधी की सरकार के समय फेरा नाम का एक कानून बना था. फेरा माने फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट. इस कानून के तहत कोई भी विदेशी कंपनी भारत में लगे किसी भी उद्योग में 40 फीसद से ज्यादा हिस्सेदारी नहीं रख सकती है. जॉर्ज ने इस कानून के तहत कई विदेशी कंपनियों पर कार्रवाही करना शुरू किया. इससे परेशान हो कर दो बड़ी विदेशी कंपनियों आईबीएम और कोकाकोला ने भारत में अपना व्यवसाय बंद कर दिया.
जॉर्ज ने कोकाकोला के जाने के बाद सार्वजनिक क्षेत्र में ऐसा ही शीतल पेय निकलने की कवायद शुरू की. इसे नाम दिया गया डबल सेवन. इसका फॉर्मूला केंद्रीय खाद्य तकनीकी शोध संस्थान मैसूर ने तैयार किया था. भारत सरकार की कंपनी मॉर्डन फूड इंडस्ट्रीज ने तैयार किया. इसे प्रगति मैदान के ट्रेड फेयर में लॉन्च किया गया.
जनता पार्टी सरकार के गिरने के बाद इंदिरा गांधी एक बार फिर सत्ता में आईं. उन्हें ऐसे किसी उत्पाद में दिलचस्पी नहीं थी जो उन्हें उनकी हार की याद दिलाता हो. हालांकि 77 का उत्पादन पूरी तरह से नहीं रोका गया. 2000 में हिंदुस्तान लीवर ने मॉर्डन फूड इंडस्ट्रीज को टेकओवर कर लिया. इस तरह कोकाकोला के खिलाफ खड़ा हुआ उत्पाद कोकाकोला की झोली में जा गिरा.

वो धमाके के अंजाम जानता था

11 मई 1998. दोपहर के 3 बज कर 15 मिनट पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पास एक फोन आता है. दूसरी तरफ से सिर्फ एक संदेश दिया गया, "बुद्धा लाफ्ड अगेन." फोन की दूसरी तरफ डॉ कलाम थे. यह सूचना पोखरण के परमाणु परिक्षण की सफलता के बारे में था. 13 मई को फिर से दो परीक्षण किए गए. चारों तरफ अटल बिहारी वाजपेयी की हिम्मत की चर्चा हो रही थी.
पोखरण दौरे के दौरान
पोखरण दौरे के दौरान

दो दिन बाद वाजपेयी खुद पोखरण के दौरे पर गए. उस समय उनके साथ रक्षा मंत्री के तौर पर जॉर्ज भी थे . उन्होंने लाल चूनड़ी का साफा लगा रखा था. ये वही जॉर्ज थे जिन्होंने अपने दफ्तर में हिरोशिमा में परमाणु धमाके के बाद हुए विध्वंस की तस्वीर टांग रखी है. एक दौर था जब जॉर्ज परमाणु हथियारों को विरोधी हुआ करते थे. वही जॉर्ज परमाणु धमाको के समर्थन में अटल बिहारी वाजपेयी के बगल में खड़े थे.

ऑपरेशन का शिकार हुआ रक्षा मंत्री

बतौर रक्षा मंत्री जॉर्ज का कार्यकाल कई चीजों के लिए याद किया जाएगा. मसलन वो देश के एक मात्र रक्षा मंत्री थे जिन्होंने सियाचिन की 24 यात्राएं करके विश्व रिकॉर्ड कायम किया. कारगिल का ऑपरेशन विजय उनके ही कार्यकाल में हुआ. बराक मिसाइल सौदे में उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा. चीफ ऑफ़ नेवल स्टाफ विष्णु भागवत के साथ उनकी अदावत को भी इसी सूची में शामिल किया जा सकता है. लेकिन एक स्टिंग ऑपरेशन ने जॉर्ज को अपने पद से इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया था.
13 मार्च 2001 को खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर तहलका ने एक स्टिंग वीडियो जारी किया. इसे नाम दिया गया था, "ऑपरेशन वेस्टएंड." दरअसल तहलका ने वेस्ट एंड इंटरनेशनल नाम की लंदन की फर्जी हथियार कंपनी प्लांट की. इसके जरिए वो हथियार सौदे में होने वाले घोटाले को खोलना चाह रहे थे.
जॉर्ज और जया जेटली
जॉर्ज और जया जेटली

ब्यूरोकेसी के निचले स्तर से शुरू हुई पड़ताल सरकार और सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष तक पहुंच गई. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को इसके बाद अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. स्टिंग में जॉर्ज फर्नांडिस की करीबी सहयोगी और समता पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष जया जेटली को दो लाख की रिश्वत लेते हुए दिखाया गया. इसके छींटे जॉर्ज पर भी आए. उनकी पार्टी को ढाई लाख रुपए पहुंचाए गए थे. जॉर्ज को इस मामले में इस्तीफा देना पड़ा था. इस मामले की जांच के लिए जस्टिस फुकन कमिटी बनी. इस कमिटी ने जॉर्ज को क्लीनचिट दे दी थी और वो अपने पद पर लौट आए. हालांकि इसके बाद आई यूपीए-1 सरकार ने इस कमिटी की रिपोर्ट को नकार दिया था. जस्टिस वेंकटस्वामी के नेतृत्व में नई समिति बनी. इस जांच आयोग ने भी जॉर्ज को दोषमुक्त कर दिया.

बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

30 अक्टूबर 2003.लोकसभा चुनाव में एक साल से भी कम समय रह गया था. जनता दल के तीन फिरके फिर से एक मंच पर आए. शरद यादव के नेतृत्व वाला जनता दल, जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व वाली समता पार्टी और लोकशक्ति पार्टी. नया दल बना, जनता दल (यूनाईटेड). यह नया दल एनडीए का हिस्सा था.
2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए चुनाव हार गया. हालांकि जॉर्ज नालंदा सीट जीतने में कामयाब रहे. अगले लोकसभा चुनाव आते-आते स्थितियां बदल गईं. जदयू में पाले खिंच गए. जॉर्ज बूढ़े हो रहे थे. अल्जाइमर अपना मारक असर दिखाना शुरू कर चुका था. शरद यादव और नितीश कुमार एक गुट में थे और जॉर्ज बूढ़े यौद्धा की तरह अकेले रह गए. 2009 के लोकसभा चुनाव में जदयू ने उन्हें टिकट देने से इंकार कर दिया. वजह खराब स्वास्थय गया. जॉर्ज नहीं माने और मुज्जफरपुर लड़ने पहुंच गए. निर्दल प्रत्याशी के तौर पर जॉर्ज महज 22,804 वोट मिले और वो चौथे स्थान पर रहे.
जॉर्ज और नितीश कुमार
जॉर्ज और नितीश कुमार

इस लोकसभा चुनाव में शरद यादव मधेपुरा सीट से चुनाव जीत कर आए थे. उन्होंने अपनी राज्यसभा की सीट खाली कर दी. इसके ठीक ढाई महीने बाद 30 जुलाई 2009 को जॉर्ज ने राज्यसभा के मध्यावधि चुनाव में अपना पर्चा दाखिल किया. जदयू ने इस चुनाव में अपना कोई उम्मीदवार नहीं उतारा और जॉर्ज निर्विरोध राज्यसभा पहुंच गए. जॉर्ज की सियासी पारी के इस अंत पर वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं-
"एक जमाने में नितीश लालू के मुकाबले कहीं नहीं टिकते थे. जॉर्ज पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने नितीश में मुख्यमंत्री बनने की कुव्वत देखी. नितीश जो भी बने, उनको गढ़ने में जॉर्ज का हाथ था. नितीश यह बात कभी भूले नहीं. 2009 के राज्यसभा चुनाव में अपना कोई भी प्रत्याशी ना उतार कर उन्होंने जॉर्ज के प्रति अपना सम्मान दिखाया.
मीडिया में जॉर्ज और नितीश के बीच जो भी खींचतान की खबर चलती रही वो पूरी तरह सही नहीं है. यह दरअसल जॉर्ज प्रतिनिधियों और नितीश कुमार के बीच की खींचतान थी. जॉर्ज के प्रति नितीश ने किसी भी सार्वजानिक मंच पर कभी कोई असम्मान दिखाया हो ऐसा याद करना मुश्किल है."
यह मान भी लिया जाए कि यह जॉर्ज की सम्मानपूर्ण विदाई थी, फिर भी जॉर्ज से जुड़े कई ऐसे सवाल हैं जो अक्सर अनुत्तरित रह जाते हैं. दरअसल जॉर्ज का पूरा जीवन ही विरोधाभासी रंगों से रंगा हुआ है.
वो बदल गया..
साल 1979, केंद्र में मोरारजी देसाई सरकार को बने हुए है सवा दो साल का समय हो चुका था. इस बीच भानुमति के इस कुनबे में दरार तेज हो गई थीं. मानसून सत्र की शुरूवात अविश्वास प्रस्ताव से हुई. अपनी तेज तर्रार भाषण शैली के लिए पहचान बना चुके जॉर्ज मोरारजी मंत्रीमंडल में बतौर उद्योग मंत्री शामिल थे. लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ जबरदस्त भाषण दिया. दो घंटे से ज्यादा लंबा यह भाषण लोकसभा में किसी भी नेता के सबसे यादगार भाषणों में से एक था.
मधु लिमये
मधु लिमये

इसके प्रस्ताव पर दो दिन बाद वोटिंग होने वाली थी. 27 जुलाई को जॉर्ज ने उद्योग मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और मोरारजी भाई का साथ छोड़ कर चरण सिंह के खेमे जा मिले. जॉर्ज इस तरीके से पाला बदल लेंगे यह किसी ने सोचा भी नहीं था. आखिर ऐसा क्या हुआ कि जॉर्ज ने वफादारी बदल ली. शिवानंद तिवारी इस घटना को याद करते हुए कहते हैं-
" इस घटना के कुछ दिन बाद मैं जॉर्ज से मिला था. मैंने उनको पूछा भी था कि आखिर ऐसा आपने क्यों किया? यह आपके राजनीतिक जीवन का काला धब्बा है. जॉर्ज ने बताया कि लोकसभा से भाषण दे कर जब वो घर लौटे तो उस दिन रात को मधु लिमये उनके पास आए थे. वो दोनों रात भर इस बारे में बहस करते रहे. जॉर्ज मधु के तर्कों से सहमत नहीं हुए. इस रतजगे के बाद जब मधु सुबह जाने को हुए तो उन्होंने जॉर्ज को पुराने दिनों का वास्ता दिया. मसलन जॉर्ज तुम्हें याद है कि कैसे पूरे दिन के थके हुए हम शाम को साथ में बैठ कर चिनिया बादाम खाया करते थे. इसके बाद मधु भावुक हो गए. जॉर्ज अपने इस पुराने दोस्त को मना नहीं कर पाए.”
इसका नतीजा यह हुआ कि मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई. चरण सिंह प्रधानमंत्री बने लेकिन संसद नहीं पहुंच पाए. इंदिरा की वापसी हुई. जनता पार्टी का प्रयोग असफल हो गया.

समाजवाद और हिंदुत्ववादी राजनीति गठजोड़

सन 1976 में जॉर्ज जब तीस हजारी कोर्ट में पेश किए जा रहे थे तब बाहर खड़े छात्र “जेल के दरवाजे तोड़ दो, जॉर्ज फर्नांडिस को छोड़ दो” के अलावा एक और नारा लगा रहे थे. यह नारा था, “कॉमरेड जॉर्ज को लाल सलाम.” लाल सलाम वो शब्द है जिन्हें समाजवादी या कम्युनिस्ट एक-दूसरे से अभिवादन के तौर पर इस्तमाल करते हैं. वही जॉर्ज बीजेपी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार में रक्षा मंत्री बने. आखिर समाजवाद की पाठशाला से निकले जॉर्ज के लिए भारत में दक्षिणपंथी मानी जाने वाली बीजेपी के खांचों में फिट होना कितना आसान रहा होगा. राजनीतिक विश्लेषक आनंद प्रधान कहते हैं-
“दरअसल इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प भी नहीं था. जनता पार्टी और राष्ट्रीय मोर्चा का हश्र वो देख चुके थे. 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने लेफ्ट पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. इससे कोई सफलता हासिल नहीं हुई. ये उनके स्वाभाविक साथी थे लेकिन यहां जॉर्ज को कुछ ख़ास संभावना नजर नहीं आई.
भारत के समाजवादी आंदोलन के साथ यह दिक्कत रही भी है कि वो मौके-बेमौके दक्षिणपंथी पाले में बैठ जाता है. 1992 से पहले कांग्रेस विरोध एक वैचारिक धूरी हुआ करता था. उस समय तक बीजेपी के दामन में बाबरी के दाग भी नहीं थे. 1992 के बाद सेकुलर राजनीति करने वाले दलों के लिए अछूत हो गई. ऐसे में बीजेपी भी ऐसे लोगों का हाथ खोल कर स्वागत करने को तैयार थी जिससे उसकी सांप्रदायिक छवि टूट सके."
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय जॉर्ज के बीजेपी के करीब जाने के घटनाक्रम को याद करते हुए कहते हैं-
“ 1995 में मुंबई में 11 से 13 नवंबर के बीच बीजेपी का महाअधिवेशन हुआ. इस अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाना था. एक मुलकात में जॉर्ज में मुझे खुद बताया कि उन्होंने जया जेटली और नितीश कुमार को इस महाधिवेशन में बतौर बाहरी परिवेक्षक भेजा था. इसे आप बीजेपी और जॉर्ज के बीच करीबी की शुरुआत मान सकते हैं. आगे के लोकसभा चुनाव बाकी की कहानी कह देते हैं.”
जॉर्ज को तमाम लोग अपने-अपने तरीके से दिमाग में नत्थी किए हुए हैं. इस बीच उनके हिस्से की कहानी हमारे पास नहीं है. 1995 में खुद के कपड़े धोने के दौरान बाथरूम में गिरने से दिमाग में लगी छोटी सी चोट काफी बड़ी साबित हुई है. वो अल्जाइमर से पीड़ित रहे. उनकी याददाश्त ने उन्हें उम्र के इस पड़ाव पर धोखा दे दिया था. यह अब आप पर छोड़ा जाता है कि राजनीतिक गलियारों में भुला दिए गए “जैरी” को आप किस तरह से याद रखना चाहते हैं.


वीडियो- पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की ज़िंदगी के किस्से

Advertisement