दलितों के खिलाफ हिंसा के 3 मामले जो बताते हैं 'कास्ट-फ्री इंडिया' कितना बड़ा झूठ है
हरियाणा में दलितों के खिलाफ हिंसा का एक पैटर्न है जो बार-बार खुद को दोहराता है.
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अक्टूबर 2015 में फरीदाबाद में दो दलित बच्चे घर में लगी आग से मर गए थे. दलितों का कहना था कि ये आग अगड़ी जाति के लोगों की लगाई थी. (फोटोःरीडिफ)
आपका कोई न कोई ऐसा दोस्त ज़रूर होगा, जो आपसे कहता होगा कि ये कास्ट-वास्ट सब बीते दिनों की बातें हैं. पहले होता था, अब नहीं होता. अब जो मेहनत करता है, आगे बढ़ जाता है. मेरिट का ज़माना है. हमारा सुझाव है कि अपने उन दोस्तों को आप मिर्चपुर कांड की पूरी कहानी सुना सकते हैं. ये कहानी आपको इस लिंक पर मिल जाएगी. इसमें आपको उन सारी बातों का ज़िक्र मिलेगा जो अपके दोस्त को लगता होगा कि पुराने किसी युग में होती होंगी. मसलन ''ऊंची'' जाति वाले मर्दों का उन औरतों को छेड़ना, जिन्हें वो ''छोटी'' जाति का मानते हैं. या फिर कुत्ते के भौंकने जितनी छोटी बात पर पूरी प्लानिंग के साथ अगड़ी जाति के लोगों की भीड़ का दलितों की बस्ती को आग लगा देना. ये जानते हुए कि एक घर में पोलियो ग्रसित लड़की और उसके पिता बंद हैं.
अगर आपका (या आपकी) दोस्त कहे कि ये एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है. लेकिन एक एक्सेप्शन है, तो आप उसे हरियाणा के ही तीन बड़े कांड बता सकते हैं. सारे दलितों के खिलाफ हिंसा के. और सभी कमोबेश एक ही पैटर्न पर.
दुलीना कांड
15 अक्टूबर 2002 को दशहरे की शाम झज्जर में कुछ लोगों को सड़क पर मरी गायें नज़र आईं. इन लोगों ने 5 दलित लड़कों को पकड़ा और दुलीना पुलिस पोस्ट ले गए. इनमें से तीन लड़के चमड़े का काम करते थे. लड़कों को पुलिस के पास ले जाने वाले लोगों का कहना था कि ये लड़के गुड़गांव - झज्जर रोड पर गोकशी करते पकड़े गए थे. अभी शाम के सवा छह बज रहे थे.

मिर्चपुर कांड के बाद दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे दलित गुट (फोटोःपीटीआई)
गोकशी की बात सुनते ही दुलीना पुलिस पोस्ट के बाहर लोग जुटने लगे. नारेबाज़ी करने लगे. कुछ लोग भीड़ को उकसा रहे थे और तनाव बढ़ रहा था. लेकिन पुलिस ने भीड़ पर काबू करने में गज़ब की लापरवाही दिखाई. रात 8 बजकर 43 मिनिट पर जाकर झज्जर पुलिस लाइन्स से अतिरिक्त पुलिस मांगी गई. हर बीतते पल के साथ भीड़ में गुस्सा बढ़ रहा था. रात 9 बजकर 45 मिनिट पर भीड़ काबू के बाहर हो गई और इन लड़कों को पुलिस पोस्ट से बाहर निकाल लिया गया.
पुलिस प्रशासन की आंखों के सामने भीड़ इन लड़कों को पीटने लगी. उतने में किसी ने इन लड़कों की गाड़ी में आग लगा दी. पास के एक झोंपड़े को भी आग ने अपनी चपेट में ले लिया. दो दलितों को पीटकर इसी आग में फेंक दिया गया. बाकी तीन को भी इतना पीटा गया कि उनकी जान चली गई. रात सवा दस तक सभी पांच दलित लड़के मारे जा चुके थे. इसके बाद जाकर पुलिस लाइन से अतिरिक्त बल दुलीना पुलिस पोस्ट पहुंचा.
पुलिस ने भीड़ के खिलाफ तो मामला दर्ज किया, मरने वाले दलितों पर भी गोकशी की धाराएं लगा दीं. इंक्वायरी कमीशन के सामने इस पूरी घटना के चश्मदीद पुलिसवालों ने बयान दिया कि भीड़ को भड़काने में झज्जर गौशाला के चेयरमैन का हाथ था. लेकिन उनका नाम एफआईआर में लिखा ही नहीं गया. न उन 14 लोगों का नाम एफआईआर में आया जो लड़कों को पकड़कर पुलिस पोस्ट लाए थे और लिंचिंग के दौरान मौजूद थे.
9 अग्सत 2010 को मामले के 7 आरोपियों को उम्रकैद की सज़ा हुई. 19 आरोपी छूट गए. फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सभी आरोपी बेल पर हैं.

(सांकेतिक तस्वीर) दलितों के खिलाफ हिंसा में उनके घरों में लूटपाट और फिर आगज़नी सबसे आम घटनाएं हैं. (फोटोःपीटीआई)
गोहाना कांड
27 अगस्त, 2005 को सोनीपत के गोहाना में वाल्मीकि लड़कों से मारपीट में एक जाट लड़के की मौत हो गई. इसी दिन पुलिस ने 7 वाल्मीकि लड़कों पर मामला दर्ज कर 4 को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन गुस्से से भरे जाटों ने 28 अगस्त को एक महापंचायत करके पुलिस को धमकी दे दी कि अगर 48 घंटों में सभी वाल्मीकि आरोपी गरफ्तार नहीं हुए तो वाल्मीकि बस्ती में आग लगा दी जाएगी. 29 अगस्त से वाल्मीकियों ने अपने घर छोड़ने शुरू कर दिए. इल्ज़ाम है कि पुलिस भी वाल्मीकियों को घर छोड़ने को कह रही थी. 30 तारीख तक तकरीबन 2000 वाल्मीकि घर छोड़ चुके थे.
नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स की आउटलुक मैगज़ीन में 5 सितंबर, 2005 को छपी रिपोर्ट के मुताबिक 31 अगस्त, 2005 को जाटों की एक और महापंचायत हुई. इसके बाद 1500 जाटों की एक भीड़ वाल्मीकि बस्ती की ओर बढ़ी. इनके पास पेट्रोल, केरोसीन और लाठी-डंडे थे.
इस भीड़ ने तकरीबन 200 पुलिस वालों की मौजूदगी में 4 घंटे तक उत्पात मचाया. पुलिस ने 12 राउंड हवाई फायर किए. लेकिन 50-60 वाल्मीकि घर आग में जलकर खाक हो गए. 2012 में इस मामले की सुनवाई करते हुए पंचकूला की सीबीआई अदालत ने सभी 11 आरोपियों को बरी कर दिया था. इस मामले में सोनीपत से भाजपा सांसद रहे किशन सिंह सांगवान का बेटा भी आरोपी था. फैसला आने से पहले 3 आरोपियों की मौत हो गई थी.

दलितों के खिलाफ हिंसा में संपत्ती को नुकसान पहुंचाना महज़ हुड़दंग के लिए नहीं होता. वो उनके 'उपर' उठने की निशानियों को तबाह करने की कोशिश होता है. (सांकेतिक तस्वीरःपीटीआई)
सालवन कांड
करनाल के पास पड़ता है सालवन. 26 फरवरी, 2007 को दो लड़के जानवर चराने निकले. जानवर एक खेत में जा घुसे. खेत का मालिक जब पहुंचा तो लड़कों और मालिक में विवाद हो गया. मारपीट भी हुई. जानवर चराने वाले लड़के प्रदीप और लीलू वाल्मीकि थे और खेत मालिक महिपाल था राजपूत. प्रदीप और लीलू वापस चले आए और अपने साथ और लोगों को लेकर दोबारा महिपाल के पास पहुंचे. इन्होंने महिपाल को इतना पीटा कि उसकी जान चली गई.
अगले दिन महिपाल के अंतिम संस्कार के बाद राजपूतों ने बड़ी चौपाल पर एक मीटिंग रखी. मीटिंग के बाद वाल्मीकि बस्ती को लूटपाट के बाद आग लगा दी गई. 25 वाल्मीकि घायल हुए जिनमें एक गंभीर था. 2 मार्च को एक वाल्मीकि लड़के की मौत हो गई. ये महिपाल को मारने के आरोपियों में से एक का रिश्तेदार था.
एक पैटर्न पर होती है हिंसा
ये हरियाणा के तीन बड़े मामले हैं जिनमें दलितों के खिलाफ अत्याचार हुए. और इनका एक पैटर्न है. पहले दलितों और अगड़ी जातियों के बीच एक छोटा विवाद होता है. इसके बाद अगड़ी जातियों के लोग इकट्ठा होकर दलित बस्तियों पर पूरी प्लानिंग के साथ हमला करते हैं. इन तीन बड़े मामलों के अलावा हरियाणा में नियमित अंतराल पर दलियों और अगड़ी जातियों के बीच संघर्ष होता आया है. और इस संघर्ष के बाद दलित कुछ समय के लिए या फिर मिर्चपुर की तरह हमेशा के लिए विस्थापित हो जाते हैं.

मिर्चपुर कांड के बाद सुनवाई करता अनुसूचित जाति आयोग का दल. (फोटोःपीटीआई)
अपने दोस्त को ये भी बताएं कि हरियाणा कोई पिछड़ा राज्य नहीं है. ये वही राज्य है जहां से खेलों में सबसे ज़्यादा मेडल आते हैं और ग्रोथ रेट (जिसमें 'मेरिट' भी बहुत काम आती है) के मामले में हरियाणा देश के औसत से कहीं आगे है. आप चाहें तो अपने दोस्त को ये भी बता सकते हैं कि हिंदुस्तान में हर 18 मिनिट में एक दलित के खिलाफ हिंसा होती है और दिन बीतते तक 2 दलितों की जान जा चुकी होती है.
इनते पर भी आपका दोस्त न माने तो आप हार मान लीजिएगा. किसी और को पकड़कर ये कहानियां सुनाइएगा. आप दो लोगों को हमारे मुल्क की असल स्थिति का अंदाज़ा दिला पाए तो काम बन जाएगा.
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