महात्मा गांधी ने क्यों कहा था- "आवारा कुत्तों को मार देना चाहिए..."
Supreme Court आवारा कुत्तों पर सख़्ती से पेश आ रही है. लेकिन कुत्तों और इंसानों के इतिहास में ये पहली मर्तबा नहीं है. Mahatma Gandhi भी यही मानते थे कि आवारा कुत्ते समाज के लिए खतरा हैं.
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"बिना मालिक के घूमने वाला कुत्ता समाज के लिए खतरा है और उनका झुंड उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा है... अगर हम शहरों या गांवों में कुत्तों को सभ्य तरीके से रखना चाहते हैं, तो किसी भी कुत्ते को भटकने नहीं देना चाहिए. क्या हम इन आवारा कुत्तों की व्यक्तिगत देखभाल कर सकते हैं? क्या हम उनके लिए पिंजरापोल बना सकते हैं? अगर ये दोनों ही चीज़ें असंभव हैं, तो मुझे लगता है कि उन्हें मार डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.”
ये शब्द हैं मोहनदास करमचंद गांधी के. आज सुप्रीम कोर्ट आवारा कुत्तों पर सख़्ती से पेश आ रही है. लेकिन कुत्ते और इंसान के म्यूच्यूअल इतिहास में ये पहली मर्तबा नहीं है. गांधी के इस विचार से कुछ लोग सहमत होंगे, कुछ असहमत. इतिहास में ऐसे विचारों पर, वाकयों पर बात करेंगे.
‘हजारों’ साल पुराने वफादार साथीसबसे पहले आज आपको अलास्का ले चलते हैं. अमेरिका का वो उत्तरी हिस्सा जो साल भर बर्फ से लदा रहता है. वैसे तो, इस पूरे एरिया में आज भी जीवन कठिन है, लेकिन आज से हजारों साल पहले ये मुश्किलें और भी ज्यादा हुआ करती थी. तो बात है स्टोन ऐज की, जब इंसान सीधा चलने लगा था. धारदार और छोटे पत्थर के औजार शिकार करना बेहतर हो गया था. परेशानियां और भी थीं. ऐसे में इंसान को चाहिए था एक वफादार साथी. इंसान जब एक साथ रहना शुरू हुए तो उन्होंने अपने साथ कुछ जानवरों को भी जोड़ा. इस हिस्से में सबसे पहले आए कैनिड्स. भेड़िये, सियार और कुत्ते इसी समूह के प्राणी हैं. दरअसल ये वो समूह है जो इंसान के साथ-साथ चलता गया. जहां भी इंसानी पैर पड़े, वही कुत्तों के पंजे भी छपते चले गए. ‘बॉन ओबेरकास्सेल डॉग’ के अवशेषों के आधार पर भी ह्यूमन-डॉग रिलेशन को क़रीब 14 हजार साल से ज्यादाहो चुके हैं.
BBC से बातचीत में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के ग्रेगर लार्सन ने बताया,
कुत्ते हमारे सबसे पुराने और करीबी पशु साथी हैं. प्राचीन कुत्तों के DNA का उपयोग हमें यह दिखा रहा है कि हमारा साझा इतिहास कितना पुराना है और अंततः यह समझने में हमारी मदद करेगा कि यह गहरा रिश्ता कब और कहां शुरू हुआ.
एरिज़ोना विश्वविद्यालय और अलास्का फेयरबैंक्स विश्वविद्यालय के अध्ययन में आंतरिक अलास्का के पुरातात्विक स्थलों से कैनिड्स के जुड़े ऐतिहासिक खुलासे हुए. ‘डाउन टू अर्थ’ में छपी खबर गौर करने लायक है,
अलास्का के पुरातात्विक स्थलों से कैनिड्स के जो प्राचीन और एडवांस्ड जीवाश्म अवशेष मिले है, उनसे DNA, खानपान और स्केल्टन संबंधी साक्ष्य की जांच की गई. निष्कर्ष ये मिला कि इंसान और कुत्तों के संबंध 12 हज़ार साल पुराने हैं.
जब एक कुत्ते ने बचाई सैकड़ो लोगों की जान
अलास्का से जुड़ी एक और कहानी सुनिए. नोम, अलास्का के पैसिफिक छोर का एक कस्बा हुआ करता था. रहने वालों में एक तिहाई लोकल्स और दो तिहाई जनता यूरोपियन. 1925 की बात है. बर्फ की चादर ओढ़े रहने वाला ये इलाका डिप्थीरिया बीमारी की चपेट में आ गया. इस जानलेवा बीमारी भयावहता भी ज्यादा थी क्योंकि बच्चे इसकी चपेट में सबसे पहले आते थे. दवाई अलास्का के दूसरे छोर और नोम कस्बे से करीब हजार किलोमीटर दूर थी. इलाका ऐसा कि बर्फ ही बर्फ.
तब इस इलाके में कुत्तों से खींची जाने वाली स्लेज चलती थी. इनकी रेस भी होती थी. टोगो नाम का एक साइबेरियन हस्की ऐसे ही एक स्लेज डॉग टीम का लीड हुआ करता था. उसने अपने मालिक को तीन बार स्लेज रेस भी जिताई थी. लेकिन डिप्थीरिया की दवाई लाने वाला काम लगभग नामुमकिन काम था. इस सफर में अमूमन वक्त ज्यादा लगता था लेकिन दवाई हफ्ते से ज्यादा ऐसे सफर में रहती तो खराब हो जाती. ऐसे में एक कोऑर्डिनेटेड टास्क बनाया गया. स्लेज डॉग्स की टीम तैयार हुई जो रिले रेस की तरह एक दूसरे से जुडी. जहां और स्लेज टीमों ने पचास किमी औसत दवाई पहुंचाई वही टोगो और उसके आठ साथियों ने अकेले 400 से ज्यादा किमी का सफर तय किया.
टोगो ने तूफान झेला, -60 डिग्री से कम का टेम्प्रेचर झेला, पर उसने इस नामुमकिन काम को पूरा करके ही दम ली. ये कुत्तों की इंसानी दोस्ती का ही नतीजा था और इसके लिए टोगो के साथ हकदार थे - लेयोनहार्ड सेप्पाला. नोम से डिप्थीरिया तो मिट गया लेकिन इस सफर के बाद टोगो बीमार पड़ा और कुछ दिन के बाद टोगो सिर्फ कहानियों में जिंदा रहा. गे सेलिस्बरी की किताब ‘द क्रुएलेस्ट माइल्स’ और ‘टोगो’ नाम की फिल्म इसी सच्ची घटना पर आधारित है.
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गांधी जी ने कुत्तों की हत्या को सही क्यों ठहराया?
इसी 1925 के दौर में भारत में भी कुत्तों का नाम अखबारों में उछला था. लेकिन इस बार वजह कुछ और थी. अहमदाबाद के एक मिल मालिक थे अम्बालाल साराभाई. साराभाई ने अपनी मिल के हाते में मौज़ूद 50 से ज्यादा आवारा कुत्तों को मरवा दिया. पछतावा हुआ तो वे गांधी जी के पास पहुंचे. तबतक गांधी जी असहयोग आंदोलन के चलते देश के सबसे पहली पंक्ति के नेता हो चुके थे. गांधी जी पूरे देश में सत्य और अहिंसा के अग्रदूत माने जाने लगे थे. ऐसे में, जब गांधी जी ने साराभाई के किए धरे को सही ठहराया तो जगह-जगह हो-हल्ला मचने लगा.
गांधी को कुछ मानवाधिकार संस्थाओं और नामचीनों से आलोचना भरे सन्देश आने लगे. ऐसे में गांधी जी ने सब को अलग-अलग जवाब देने से बेहतर इस मुद्दे जो अपने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ के लेख के जरिये साझा किया. गांधी ने जो कहा था उसका एक हिस्सा हमने आपको शुरु में बताया था. पूरी कहानी अब सुनिए.
इसी क्रम में गांधी जी को कई जवाबी और सवाली पत्र पहुंचे. ResQ के हवाले से ऐसा ही एक सवालिया पत्र मिलता है,
आप हमसे कहते हैं कि आवारा कुत्तों को खाना न खिलाएं, लेकिन हम उन्हें बुलाते नहीं. वे यूं ही चले आते हैं. उन्हें कैसे वापस भेजा जाए... हम सब पापी हैं, तो हम जो थोड़ी-बहुत दयालुता कर सकते हैं, वह क्यों न करें?
इसके जवाब में गांधी का लिखा ध्यान से सुनने लायक है,
अगर किसी व्यक्ति के लिए भिखारियों को खाना खिलाना पाप है, तो आवारा कुत्तों को खाना खिलाना भी उससे कम पाप नहीं है. यह करुणा का झूठा भाव है. भूखे कुत्ते पर एक टुकड़ा फेंकना उसका अपमान है. आवारा कुत्ते समाज में करुणा और सभ्यता का प्रतीक नहीं हैं; बल्कि वे समाज के सदस्यों की अज्ञानता और आलस का परिचय देते हैं.
गांधी का मानना था की अगर कोई सचमुच मानवतावादी है, तो उन्हें इन कुत्तों को पालने के लिए एक संस्था को वित्तीय सहायता देनी चाहिए. गांधी की ये दो टूक बातें आज डॉग लवर्स और डॉग हेटर्स और इनके बीच मौजूद ज्यादातर लोगों को सही लगेगी.
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चूहों को खत्म करने के लिए पालने पड़े कुत्ते
आज अगर कुछ मीजर्स सरकार ले रही है तो कुत्तों से जुड़ा एक और ऐतिहासिक किस्सा सबक के तौर पर जानना यहां मुनासिब होगा. ये किस्सा यूरोप के फ्रांस का है. 1789 में फ्रांसिसी क्रांति के बाद फ्रांस में नई शासन व्यवस्था लागू हुई. 1880 के दशक में पेरिस बैरन हॉसमान की अगुवाई में बड़े पैमाने पर शहरी नवीनीकरण से गुज़र रहा था. सफाई और पब्लिक हेल्थ दो बड़े मुद्दे थे.
लेकिन तब के आंकड़े बताते हैं कि रेबीज के मामले कुछ दशक पहले फैली हैजा की महामारी से कहीं कम थे. इसलिए इसे किसी सुधार से ज्यादासनक माना जा रहा था. हालांकि फ्रांस में 1855 में डॉग टैक्स लागू हुआ था. लोगों को अपने कुत्ते साल में एक बार टाउन हाल ले जाने पड़ते थे और वहां टैक्स भी देना होता था. 1867 में यूजीन गयोट नाम के फ्रेंच एग्रिकल्चरिस्ट ने सरकार के कामों पर चुटकी लेते हुए कहा था कि कुत्तों का पाचन तंत्र पब्लिक हाइजीन के लिए सरकारी नियमों से भी ज्यादाप्रभावी है. इन सबके बावजूद, ‘स्ट्रे डॉग्स एंड द मेकिंग ऑफ़ मॉडर्न पेरिस’ शोध पत्र में क्रिस पियर्सन बताते हैं,
22 जून 1882 को एक सरकारी आदेश में कहा गया था कि अगर कोई कुत्ता बिना पट्टे के सड़क पर मिलेगा तो उसे पकड़कर कांजी हाउस भेज दिया जाएगा. फिर उस कुत्ते का कोई मालिक नहीं मिला तो उसे मार दिया जाएगा. इसके बाद सड़क से कुत्ते तो कम हो गए लेकिन पेरिस शहर ने फिर चूहों का आतंक देखा. थक हार के कुत्ते वापिस पेरिस में पाले गए.
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कुत्ते कभी टोगो तो कभी हाचिकू की तरह इंसान के साथ जुड़े रहे हैं. रिन टिन टिन नाम के कुत्ते को तो हॉलीवुड वाक ऑफ फेम में भी जगह मिली. यहां तक कि दुनियाभर की फौज में कुत्ते एक स्पेशल यूनिट के तौर पर भी रखे जाते हैं. ये एक ऐसी प्रजाति है जिसने इंसान को सबसे करीब से जाना है. ये भी सच है कि आवारा कुत्तों को ऐसे खुला नहीं रखा जा सकता. लेकिन जो इंसानी भाषा बोल नहीं सकते, उनका हक भी रखा जाना चाहिए.
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