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जिस तरकीब से मोदी सरकार खुद को चमकाने वाली थी, उससे मनमोहन सरकार ज्यादा कैसे चमक गई

आंकड़ों की बाजीगरी करके सरकार खुद फंस गई है.

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मोदी सरकार की तुलना में मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश की जीडीपी ज्यादा थी.
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अविनाश
20 अगस्त 2018 (Updated: 20 अगस्त 2018, 12:12 PM IST)
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15 अगस्त 2018. देश का 72वां स्वतंत्रता दिवस. इस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से भाषण दे रहे थे. इस भाषण के दौरान पीएम मोदी ने बार-बार इस बात का जिक्र किया कि पिछली मनमोहन सरकार की तुलना में मोदी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को तेज गति से बढ़ाया. पीएम मोदी ने दावे किए कि पिछले 40 साल में देश में विकास की गति उतनी नहीं थी, जितनी 2014 से 2018 के बीच हुई है. लेकिन उनके भाषण के दो ही दिन बाद 17 अगस्त को आए आंकड़ों ने पीएम मोदी के दावों को उलट दिया. सरकारी कमिटी की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक मनमोहन सरकार में देश की औसत विकास दर, मोदी सरकार की तुलना में ज्यादा रही है.
उल्टा पड़ गया मोदी सरकार का दांव
पीएम मोदी ने 72वें स्वतंत्रता दिवस पर 82 मिनट लंबा भाषण दिया.
पीएम मोदी ने 72वें स्वतंत्रता दिवस पर 82 मिनट लंबा भाषण दिया.

मोदी सरकार ने विकास के जो दावे किए थे, उसके लिए आंकड़ों की गिनती करने के लिए तरीके में बदलाव किया गया था. देश की आर्थिक बढ़ोतरी जीडीपी से तय होती है. इस जीडीपी को नापने के लिए एक बेस ईयर होता है, जिसे आधार बनाकर तुलना की जाती है. पहले ये बेस ईयर 2004-05 था, जिसे मोदी सरकार में 2015 में बदलकर 2011-12 कर दिया गया. और अब इस नए बेस ईयर के आधार पर जब सारे नए-पुराने आंकड़े सामने आए हैं, तो पता चला है कि मोदी सरकार की तुलना में मनमोहन सरकार के दोनों कार्यकाल में भारत की जीडीपी ज्यादा थी.
ये बेस ईयर का खेल क्या है?
बेस ईयर से मतलब है वो तारीख, जिसके इर्द-गिर्द गणना की जाती है. पहले भारत की जीडीपी 2004-05 के हिसाब से तय की जाती थी और अब ये 2011-12 के हिसाब से तय की जाती है. इंडिया टुडे डिजिटल के मैनेजिंग एडिटर और आर्थिक मामलों के जानकार राजीव दुबे बताते हैं कि सरकार और सरकार के अर्थशास्त्री किसी भी साल को बेस ईयर बना सकते हैं. आम तौर पर हर 10 साल में बेस ईयर बदल देना चाहिए, लेकिन अगर सरकार चाहे, तो हर साल भी बेस ईयर बदल सकती है. लेकिन हर साल बेस ईयर बदलना संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा करने पर काफी कैलकुलेशन करनी पड़ेगी और सरकार के लिए हर साल इतनी कैलकुलेशन करनी संभव नहीं है.
क्या होती है जीडीपी?
GDP 7

मान लीजिए कि किसी के खेत में एक पेड़ खड़ा है. वो खड़ा है तो बस छाया देता है और किसी काम का नहीं है. अब अगर वो पेड़ आम का है तो किसान आम को बेचकर पैसे कमाता है. ये पैसा किसान के खाते में जाता है, इसलिए पैसा देश का भी है. अब इस पेड़ को काट दिया जाता है. काटने के बाद पेड़ से जो लकड़ी निकलती है, उसका फर्नीचर बनता है. फर्नीचर बनाने का पैसा बनाने वाले के पास जाता है, यह पैसा भी देश का है. अब इस फर्नीचर को बेचने के लिए कोई दुकान वाला खरीदता है. दुकान वाले से कोई आम आदमी खरीद लेता है. आम आदमी पैसा खर्च करता है और दुकानदार के पास पैसा आ जाता है. खड़े पेड़ के कटने के बाद से कुर्सी-मेज बन जाती है, जिसे कोई खरीद लेता है. इसे खरीदने में पैसे खर्च होते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में जो पैसा आता है, वो जीडीपी का हिस्सा होता है. पूरे देश की आमदनी ऐसे ही निकाली जाती है. इस आमदनी में से वो पैसे घटा दिए जाते हैं, जिन पैसों से अपना देश विदेश से कोई सामान खरीदता है. भारत में ये जीडीपी बेसिक प्राइस पर तय होती है. बेसिक प्राइस से मतलब उस कीमत से है, जो किसी सामान को बनाने वाली कंपनी को मिलता है. यानी कि अगर कोई कंपनी एक सामान बनाती है. वो सामान दुकान पर 120 रुपये का मिलता है, लेकिन कंपनी को उस सामान के लिए 100 रुपये ही मिलते हैं. तो भारत की जीडीपी 120 रुपये पर नहीं, 100 रुपये पर तय होगी. जीडीपी को तय करने के लिए आधार वर्ष तय किए जाते हैं. यानि उस आधार वर्ष में देश का जो कुल उत्पादन था, वो उस साल की तुलना में कितना बढ़ा है या घटा है, उसे ही जीडीपी की दर मानी जाती है.
पुराने आंकड़ों पर क्यों हो रही है चर्चा?
nsc

जीडीपी की गणना का काम केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय का है. पहले ये मंत्रालय 2004-05 को बेस ईयर मानकर जीडीपी की गणना करता था. 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी. सरकार बनने के बाद 2015 में बेस ईयर में बदलाव किया गया और इसे 2004-05 से बदलकर 2011-12 कर दिया गया. बेस ईयर के बदलने के बाद से जिस जीडीपी की गणना मात्र 2500 कंपनियों पर होती थी, उन कंपनियों की संख्या बढ़कर पांच लाख हो गई. इसके बाद 2015 और उसके आगे आने वाले साल की तिमाही के आंकड़े 2011-12 के बेस ईयर पर जारी किए गए. लेकिन 2015 से पुराने के आंकड़े 2004-05 के बेस ईयर पर ही रहे. ऐसे में अप्रैल 2017 में केंद्र सरकार के National Statistical Commission की ओर से सुदीप्तो मंडल की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन किया गया. इसका मकसद था कि ये कमिटी 2011-12 के बेस ईयर के आधार पर आंकड़ों को दुरुस्त कर सके. इस कमिटी को 1993-94 से लेकर 2011-12 तक के आंकड़े 2011-12 के बेस ईयर पर बनाने थे. कमिटी ऑफ रियल सेक्टर स्टैटिक्स ने 17 अगस्त 2018 को अपने आंकड़े जारी कर दिए हैं.
क्या है आंकड़ों में?

आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार की तुलना में मनमोहन सरकार में जीडीपी ज्यादा थी.

कमिटी ऑफ रियल सेक्टर स्टैटिक्स की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक-
# मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 2006-07 में भारत की इकॉनमी ग्रोथ रेट 10.08 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. ये 1991 में ओपेन इकॉनमी के बाद की सबसे ज्यादा ग्रोथ रेट है.
# 2004-05 से 2008-09 के बीच भारत की इकॉनमी ग्रोथ औसतन 8.86 फीसदी रही है.
# 2009-10 से 2013-14 के बीच भारत की इकॉनमी ग्रोथ औसतन 7.38 फीसदी रही है.
# 2009-09 में यूपीए सरकार की इकॉनमी ग्रोथ कम हुई थी और ये गिरकर 7.16 फीसदी पर आ गई थी. ये वो वक्त था, जब पूरी दुनिया में मंदी छाई हुई थी.
# 2012-13 में यूपीए सरकार की इकॉनमी ग्रोथ 5.42 फीसदी थी.
# 2013-14 में यूपीए सरकार की इकॉनमी ग्रोथ 6.5 फीसदी थी.
# 2014-15 से 2017-18 के बीच भारत की इकॉनमी ग्रोथ औसतन 7.35 फीसदी रही है.
# यूपीए हो या फिर एनडीए, दोनों की ग्रोथ रेट 1994-95 की ग्रोथ रेट से कम है.
फिर विवाद क्यों है?
इन आंकड़ों के सामने आने के बाद ये साफ हुआ है कि 2011-12 को बेस ईयर बनाने के बाद मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में देश की इकॉनमी ग्रोथ ज्यादा थी. वहीं यूपीए से ज्यादा इकॉनमी ग्रोथ हासिल करने का दावा करने वाली नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार की ग्रोथ रेट तुलनात्मक रूप से कम है. सरकार इन आंकड़ों को खारिज़ नहीं कर पा रही है, लेकिन इन आंकड़ों को पचाना भी सरकार के लिए मुश्किल होता जा रहा है.
क्यों बढ़ी थी मनमोहन सिंह सरकार में ग्रोथ रेट?
Manmohan singh

ये एक तथ्य है कि नवंबर 2008 में वैश्विक मंदी आने से पहले पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था उफान पर थी. 2006 तक अमेरिका की अर्थव्यवस्था में और भी तेजी देखने को मिली थी. तेजी भारतीय अर्थव्यवस्था में थी और उस वक्त मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे. इसके अलावा ये वो वक्त था, जब देश के बैंकिंग सेक्टर की ओर से लोन देने में तेजी आई थी.
क्यों कम हुई मोदी सरकार में ग्रोथ रेट?

पीएम मोदी अपनी ही सरकार के आंकड़ों में मात खा गए हैं.

2014 में पीएम मोदी के आने के बाद से भी दुनिया की अर्थव्यस्था में वो तेजी नहीं आई, जो 2004 से 2008 तक थी. वैश्विक मंदी से उबरते हुए दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्था मज़बूत तो हुई, लेकिन पुराने दौर में वापस नहीं लौट पाई. इसके अलावा रोजगार की संख्या में कमी, जीएसटी के लागू होने के बाद घटा हुआ टैक्स कलेक्शन, नोटबंदी से प्रभावित हुए कारोबार की वजह से भी जीडीपी पर बुरा असर पड़ा.
क्या कह रहे हैं यूपीए सरकार में वित्त मंत्री रहे पी चिदंबरम?
आंकड़े बताते हैं कि 2006-07 में भारत की इकॉनमी ग्रोथ रेट 10.08 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. उस वक्त देश के प्रधानमंत्री थे मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री थे पी. चिदंबरम. आंकड़ों के सामने आने के बाद पी चिदंबरम ने ट्विटर पर कहा कि ये सच की जीत है. पुरानी श्रृंखला के आधार पर जीडीपी के आंकड़ों ने साबित कर दिया है कि यूपीए के समय 2004-2014 के दौरान भारत ने सबसे तेज आर्थिक बढ़ोतरी की है. चिदंबरम ने लिखा है कि मैं उम्मीद करता हूं कि पांचवें वर्ष में मोदी सरकार बेहतर करे. वह यूपीए-1 की बराबरी तो कभी नहीं कर सकती, लेकिन मैं चाहता हूं कि वो कम से कम यूपीए-2 के बराबर तो पहुंचे.
क्या कह रहे हैं एनडीए सरकार में वित्त मंत्री रहे अरुण जेटली?
मिर्जा अरुण जेटली
अरुण जेटली ने नए आंकड़ों पर सफाई दी है.

इस पूरे मसले पर वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि अभी तो ये शुरुआती आंकड़े हैं. पहले ये सारे आंकड़े एडवाइजरी कमिटी ऑन नेशनल अकाउंट्स स्टैटिस्टिक्स से मंजूर किए जाएंगे और तब इन्हें अंतिम माना जा सकता है. सामने आए आंकड़ों पर अरुण जेटली का कहना है कि 2003-04 का वक्त वो वक्त था, जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी. ये बढ़ोतरी 2008 में उस वक्त तक थी, जब वैश्विक मंदी नहीं शुरू हुई थी. इसलिए 2003 से 2008 तक भारत की अर्थव्यवस्था का तेजी से बढ़ना स्वाभाविक था. 2004 में जब अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता से बाहर हुए थे, तो उस वक्त देश की जीडीपी 8% थी. वहीं 1991 से 2004 के दौरान जो आर्थिक सुधार हुए थे, उसका फायदा मनमोहन सरकार को मिला. दुनिया की अर्थव्यवस्था ठीक हुई थी, तो वैश्विक मांग भी बढ़ी थी और भारत ज्यादा निर्यात कर रहा था. इसकी वजह से मनमोहन सरकार को ज्यादा वृद्धि दर हासिल हुई. और इस पूरी बढ़ोतरी में भारत की ओर से कोई कदम नहीं उठाए गए थे. लेकिन जैसे ही 2008 में वैश्विक मंदी आई, भारत की अर्थव्यस्था भी लड़खड़ा गई. इसके बाद बैंकों की ओर से लापरवाही से लोन बांटे गए और ये भी नहीं देखा गया कि इस लोन की वजह से देश पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा. इसकी वजह से बैंक खतरे में पड़ गए और इसी दौरान 2014 में यूपीए की सरकार चली गई. और जब एनडीए सरकार आई, तो उसे यूपीए की नीतियों का खामियाजा भुगतना पड़ा.
यूपीए ने नहीं रखा करेंट अकाउंट बैलेंस का ध्यान
अरुण जेटली ने फेसबुक पर ब्लॉग पोस्ट कर सफाई दी है.
अरुण जेटली ने फेसबुक पर ब्लॉग पोस्ट कर सफाई दी है.

करेंट अकाउंट बैलेंस किसी देश की अर्थव्यवस्था का सूचक होता है. अपने देश के सामान और सेवाओं को विदेश में बेचने और विदेश से सामान और सेवाओं के खरीदने के बीच का जो अंतर होता है, उसे करेंट अकाउंट कहते हैं. उदाहरण के लिए अगर भारत ने 100 रुपये का सामान विदेश को बेचा है और 80 रुपये का सामान खरीदा है, तो करेंट अकाउंट बैलेंस हुआ 20 रुपये. अगर ये अकाउंट बैलेंस प्लस में होता है तो माना जाता है कि देश समृद्ध है और वो विदेश को कर्ज दे सकता है. वहीं अगर अकाउंट बैलेंस माइनस में है, तो माना जाता है कि देश ने विदेशों से कर्ज लिया है. जब वाजपेयी की सरकार के दौरान यानी 2004-09 के बीच करेंट अकाउंट बैलेंस +0.5 फीसदी था, लेकिन मनमोहन सरकार में करेंट अकाउंट बैंलेंस 2004 से 2009 के दौरान -1.2 फीसदी और 2009 से 2014 के दौरान -3.3 फीसदी था. और यही वो वक्त है, जब मनमोहन सिंह सरकार ने जीडीपी में बढ़ोतरी हासिल की थी. 2014 से अब तक करेंट अकाउंट बैलेंस -1.2 फीसदी है. मतलब साफ है कि वाजपेयी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत किया था और सकारात्मक करेंट अकाउंट बैलेंस रखा था. इसके अलावा मुद्रास्फीती यानी कि महंगाई दर भी मनमोहन सरकार के वक्त में ज्यादा थी.
अरुण जेटली का दावा है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जीडीपी में जो बढ़ोतरी दिख रही है, वो वाजपेयी सरकार की नीतियों का रिजल्ट है.
अरुण जेटली का दावा है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जीडीपी में जो बढ़ोतरी दिख रही है, वो वाजपेयी सरकार की नीतियों का रिजल्ट है.

वाजपेयी सरकार नें 1999 से 2004 के बीच ये 4.1 फीसदी थी, वहीं 2004 से 2009 के बीच 5.8 फीसदी और 2009 से 2014 के बीत 10.4 फीसदी थी. 2014 से अब तक ये 4.7 फीसदी है. इसके अलावा बैंकों की ओर से दिए गए लोन में भारी बढ़ोतरी हुई थी. वाजपेयी सरकार ने 2003-04 में 15.3 फीसदी की दर से लोन दिए थे, वहीं मनमोहन सरकार ने 2004-05 में 30.9 फीसदी और 2005-06 में 37 फीसदी की दर से लोन लिए थे. इसका नतीजा ये हुआ कि 2006-07 में भारत की आर्थिक बढ़ोतरी दर 10.8 प्रतिशत तक पहुंच गई. फिलहाल इस साल यानी कि 2017-18 में ये दर 10 फीसदी ही है. जेटली के मुताबिक इतनी बढ़ी मात्रा में लोन का पैसा भारतीय अर्थव्यवस्था में एक साथ शामिल हो गया, जिसकी वजह से ग्रोथ रेट ज्यादा दिखने लगी. लेकिन ये पूरा पैसा बिना जाने-समझे दिया गया था. इस पैसे का अधिकांश हिस्सा इस्तेमाल भी नहीं हुआ और लोन के अधिकांश हिस्से को चुकाया नहीं गया, जिसके बाद ये एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) हो गया. 2014 के बाद जब सच्चाई सामने आई, तो इन लोन्स की रिकवरी शुरू हुई. इसके अलावा राजकोषीय घाटे का भी ध्यान नहीं रखा गया और आमदनी से ज्यादा खर्च किया गया.
फिर सच कौन बोल रहा है, चिदंबरम या जेटली?
दोनों के ही आंकड़े सच्चे हैं. बस कौन कैसे उसका इस्तेमाल करता है, ये देखने लायक होगा.
दोनों के ही आंकड़े सच्चे हैं. बस कौन कैसे उसका इस्तेमाल करता है, ये देखने लायक होगा.

इंडिया टुडे हिंदी के एडिटर और आर्थिक मामलों के जानकार अंशुमान तिवारी के मुताबिक दोनों ही सच बोल रहे हैं. चिदंबरम उन्हीं आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं, जो सरकारी कमिटी की ओर से जारी किए गए हैं और सरकारी कमिटी के आंकड़े दुरुस्त हैं. वहीं अरुण जेटली भी जो कह रहे हैं, वो पूरा सच है. बस बात इतनी सी है कि क्या मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी ग्रोथ रेट को अंडर एस्टिमेट किया था या फिर अरुण जेटली ने मोदी सरकार की अर्थव्यवस्था को ओवरएस्टिमेट किया है. अंशुमान तिवारी के मुताबिक जब बेस ईयर में बदलाव हो रहा था, तो मनमोहन सिंह और उस वक्त की पूरी सरकार को अरुण जेटली का धन्यवाद करना चाहिए था. क्योंकि बेस ईयर के बदलते ही यूपीए के भी आंकड़े बदल जाते. अब जब आंकड़े सामने आए हैं, तो ऐसा ही हुआ है.
क्या कह रही है आंकड़े तैयार करने वाली कमिटी
ministry of statical1

Ministry of Statistics and Programme Implementation (MoSPI) ने जारी हुए आंकड़ों पर कहा है कि ये सरकार का आधिकारिक डाटा नहीं है. National Statistical Commission ने भी कहा है कि पुराने आंकड़ों को नए बेस ईयर के आधार पर लागू करने का तरीका अभी फाइनल नहीं हुआ है. अभी ये काम चल रहा है. जब तरीका तय हो जाएगा, तो नए सिरे से आधिकारिक तौर पर आंकड़े जारी किए जाएंगे. इंडिया टुडे डिजिटल के मैनेजिंग एडिटर और आर्थिक मामलों के जानकार राजीव दुबे भी इसी बात को दुहराते हैं. उनका मानना है कि अभी तो काम शुरुआती चरणों में है. कमिटी ऑफ रियल सेक्टर स्टैटिक्स के आंकड़े को अभी दो और चरणों से गुजरना है. सबसे पहले तो इसे वित्त मंत्रालय की एडवाइजरी कमिटी को भेजा जाएगा और वहां से अप्रूवल मिलने के बाद इसे National Statistical Commission को भेजा जाएगा. जब इन दोनों जगहों से आंकड़ों को अप्रूवल मिल जाएगा, तब ही इसे अंतिम डाटा माना जाएगा.
कुल मिलाकर बात सीधी है. कहा जाता है कि झूठ तीन तरह के होते हैं. झूठ, सफेद झूठ और आंकड़े. अब आंकड़े सामने आए हैं. अगर ये आंकड़े झूठे हैं तो फिर यूपीए के भी आंकड़े झूठे हैं और एनडीए के भी. अगर ये आंकड़े सच्चे हैं तो यूपीए के भी आंकड़े सच्चे हैं और एनडीए के भी. हुआ सिर्फ ये है कि ये आंकड़े राजनीति का हथियार बन गए हैं, क्योंकि तथ्य दोनों ही पार्टियों के सही हैं. जो अपने तरीके से इन आंकड़ों का इस्तेमाल कर ले, वो बाजी मार ले जाएगा, क्योंकि 2019 में चुनाव भी हैं. और चुनाव से ठीक पहले बीजेपी ने अपना भला करने की कोशिश में कांग्रेस को बैठे-बिठाए एक मुद्दा दे दिया है.


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