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60 के दशक में दुनिया भर में फ़ेमस हुए ट्विस्ट डांस का आपकी लोन की किस्त से क्या संबंध है?

साथ में जानिए, क्या है RBI का 'ओपन मार्केट ऑपरेशन' और 'बॉन्ड यील्ड'.

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पल्प फिक्शन वीडियो का स्क्रीनग्रैब. (यूट्यूब)
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23 सितंबर 2020 (Updated: 24 सितंबर 2020, 05:42 AM IST) कॉमेंट्स
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RBI ने निर्णय लिया है कि वह 23 सितंबर, 2020 को 10 हज़ार करोड़ रुपए के जी-सेक बॉन्ड ख़रीदेगा. अभी तक RBI बॉन्ड यील्ड में लगी हुई आग को शांत करने के लिए ट्विस्ट ऑपरेशन करता था, लेकिन इस वित्त वर्ष में ऐसा पहली बार होगा, जब वह ओपन मार्केट ऑपरेशन (OMO) से एकमुश्त बॉन्ड की ख़रीददारी करेगा.



ये ख़बर पढ़कर कुछ पल्ले पड़ा? बहुत से लोग कहेंगे, भाई माफ करो. ‘बॉन्ड’, ‘जी-सेक बॉन्ड’, ’ओपन मार्केट ऑप्शन’, ‘ट्विस्ट ऑपरेशन’, ‘यील्ड’ ये सब आख़िर होता क्या है? और इस खबर का हम-आप से क्या लेना-देना? फिर हमने रिसर्च की, और जो परिणाम निकल के आया उससे बना आज का एक्सप्लेनर. इसके बाद ऊपर के पहले पैराग्राफ को फिर से पढ़िएगा. बहुत चांस है कि बात पूरी समझ में आ जाए.

# बॉन्ड-

जब किसी कंपनी को, किसी भी कारण से, पैसों की दरकार होती है तो वो कई तरीक़ों से पैसा जुटा सकती है. जैसे कंपनी की हिस्सेदारी कुछ बाहरी लोगों को बेचकर, बैंक से उधार लेकर वग़ैरह-वग़ैरह...

ये सभी 'फंड रेजिंग' वाले विकल्प आप विस्तारपूर्वक हमारी पिछली स्टोरी में पढ़ सकते हैं.
इन्हीं पैसा इकट्ठा करने वाले विकल्पों में से एक होता है, आम जनता से उधार लेना.

अब अगर कंपनियां लोगों से उधार लेकर पैसा जुटा रही हैं तो कहते हैं, ‘कंपनी ने अपने डिबेंचर इश्यू किए हैं.’ डिबेंचर. डेट (debt) या ऋण, शब्द से बना है. और डिबेंचर इश्यू करने का मतलब है कंपनी आपसे उधार लेकर ऐसे लीगल पेपर देती है, जिससे आप समय-समय पर उससे अपना ब्याज या मूलधन ले सकते हैं. जैसा भी डिबेंचर में लिखा हो.

लेकिन कंपनी आपसे पैसे लेकर डिबेंचर के बदले बॉन्ड भी दे सकती है.

यूं डिबेंचर और बॉन्ड में ये समानता है कि इन्हें आपको इश्यू करने वाली कंपनी दरअसल आपसे उधार लेती हैं.

और दोनों के बीच अंतर क्या है? ये कि बॉन्ड में कुछ कोलेट्रल होता है, कोई गारंटी होती है, कुछ गिरवी रखा गया होता है.

डिबेंचर और बॉन्ड में एक और अंतर होता है. वो है रेट ऑफ़ इंट्रेस्ट और, सिक्योरिटी का. मतलब, देखिए अगर कोई बंदा पर्सनल लोन ले रहा है तो उसे होम या गोल्ड लोन की तुलना में ज़्यादा इंट्रेस्ट देना पड़ता है न? ठीक ऐसे ही चूंकि बॉन्ड में गारंटी होती है, कोलेट्रल होता है, इसलिए जो कंपनियां डिबेंचर इश्यू करती हैं, उन्हें पब्लिक को बॉन्ड की तुलना में ज़्यादा ब्याज़ देना पड़ता है. यानी अगर पब्लिक को ज़्यादा ब्याज चाहिए तो डिबेंचर में इन्वेस्ट करेगी. अगर ज़्यादा सिक्योर जगह इन्वेस्ट करना है तो बॉन्ड में लगाएगी.
लब्बोलुआब ये कि-
डिबेंचर और बॉन्ड, दोनों ही कंपनियों के उधार लेने के मैकेनिज़्म हैं. बस डिबेंचर कुछ कम सिक्योर होता है और सिर्फ़ इश्यू करने वाली कंपनी की हिस्ट्री पर बेस्ड रहता है.
केवल छोटी-बड़ी कंपनियां ही नहीं, सरकार भी लोगों से उधार लेती है और बॉन्ड इश्यू करती है. उन्हें सरकारी बॉन्ड कहा जाता है. या जी-सेक यानी गवर्नमेंट सेक्टर के बॉन्ड कहा जाता है. चूंकि लोगों का सरकार के ऊपर, आमतौर पर, किसी प्राइवेट कंपनी से ज़्यादा भरोसा होता है, (विंक-विंक). इसलिए सरकारी बॉन्ड ज़्यादा सिक्योर माने जाते हैं. तो यूं ये इंट्रेस्ट भी कम देते हैं. याद रखिए. रिस्क और रिटर्न एकदूसरे के साथ चलते हैं. जितना ज़्यादा रिस्क, उतना ज़्यादा रिटर्न.

अब आप इस बात का कमेंट सेग्मेंट में उत्तर दें- अगर डिबेंचर सबसे ज़्यादा रिस्की हैं, बॉन्ड उससे कम और गवर्नमेंट बॉन्ड सबसे कम तो आपको सबसे ज़्यादा रिटर्न कहां से मिलने की उम्मीद है?

# बॉन्ड यील्ड क्या होता है-

अगर कंपनी या सरकार आपसे उधार ले रही है तो आप ऐसे ही थोड़े न दे देंगे. मतलब हो सकता है आप दे दें, कि जब मर्ज़ी आए तब वापस दे देना. लेकिन बाक़ी लोग तो कहेंगे न कि तुमको उधार देने में हमें क्या फ़ायदा?

तो बॉन्ड इश्यू करने वाली कंपनी या सरकार कहती है कि ठीक है, हम तुमको 5 साल बाद पूरा पैसा लौटा देंगे, साथ ही हर साल एक निश्चित ब्याज़ भी देंगे. तो बॉन्ड के केस में हर साल मिलने वाला ब्याज़ ही आपका इन्वेस्टमेंट पर रिटर्न ठहरा. और इसे ही यील्ड कहा जाता है.

# जब बॉन्ड की क़ीमत बढ़ती है तो बॉन्ड का यील्ड घटता क्यूं है-

पहले हमको समझना होगा कि बॉन्ड अलग-अलग मैच्योरिटी पीरियड के साथ आते हैं. मैच्योरिटी पीरियड मतलब? मतलब ये कि जब तक आपको ब्याज़ मिलेगा, और जब आपको पूरे पैसे वापस मिल जाएंगे. जैसे अगर आपने 5 साल का बॉन्ड लिया है तो उसका मैच्योरिटी पीरियड हुआ 5 साल. यानी आपको 5 साल तक हर साल ब्याज़ मिलेगा और पाँचवा साल पूरा हो जाने पर पैसे भी वापस मिल जाएंगे. ऐसे ही एक साल से कम की ‘शॉर्ट टर्म मैच्योरिटी’ वाले बॉन्ड भी होते हैं, और 10-20-30 साल की ‘लॉन्ग टर्म मैच्योरिटी’ वाले बॉन्ड भी होते हैं.

अब सोचिए, अगर आपको बॉन्ड के मैच्योर होने से पहले ही पैसे चाहिए हों तो?

चलिए 1-2 साल में मैच्योर होने वाले बॉन्ड के पूरे पैसे वापस आने में ज़्यादा देर नहीं है. लेकिन 2060 में मैच्योर होने वाले बॉन्ड का क्या?

40 साल तक इंतज़ार? या 40 साल तक सिर्फ़ ब्याज़ ही ब्याज़? ऐसे तो इन ‘लॉन्ग टर्म मैच्योरिटी’ वाले बॉन्ड को कोई ख़रीदता ही न होगा?

नहीं. ऐसा नहीं है. अगर आपको मैच्योरिटी से पहले पैसा चाहिए तो आप बॉन्ड किसी और को बेच सकते हैं. ये पूरी तरह लीगल है. कितने में बेच सकते हैं? डिपेंड करता है कि मार्केट में बॉन्ड के रेट क्या चल रहे हैं. और मार्केट में रेट डिपेंड करते हैं डिमांड एंड सप्लाई पर. ये मार्केट कहलाती है सेकेंड्री मार्केट. क्यूंकि यहाँ पर सेकेंड हेंड डेट फंड की बिक्री होती है न इसलिए.

एक प्रैक्टिकल उदाहारण देखिए- अगर शेयर मार्केट बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है और लोग वहां पर अपना पैसा डाल रहे हैं तो बॉन्ड को लोग बेचना शुरू कर देंगे, ताकि उन पैसों को शेयर मार्केट में इन्वेस्ट कर सकें. यूं मार्केट में बॉन्ड बेचने वालों की बाढ़ आ जाएगी, और उसकी क़ीमत घटने लगेगी. इसके उलट अगर कहीं और रिटर्न बहुत कम मिल रहे हैं या इन्वेस्टमेंट बहुत रिस्की हो रहा तो बॉन्ड की क़ीमत बढ़ने लगेगी. अपनी ऑरिजनल वैल्यू से भी अधिक हो जाएगी.

अब आप कहेंगे कि कोई बॉन्ड को महंगा ख़रीदने से अच्छा, उसे इश्यू करने वाली कंपनी या सरकार से ही न ख़रीद लें फिर? ऐसा संभव इसलिए नहीं है, क्यूंकि बॉन्ड रोज़-रोज़, अनंत मात्रा में इश्यू नहीं होते.

यूं अगर आपने कोई बॉन्ड 1000 रूपये का ख़रीदा है तो हो सकता है 2 साल का ब्याज़ खाकर आप उसे 1200 में बेच पाएँ, या ये भी हो सकता है कि तब आपको उसके सिर्फ़ 800 ही रुपये मिलें.

तो अब आते हैं सब हेड पर, यानी मूल सवाल पर कि जब बॉन्ड की क़ीमत बढ़ती है तो बॉन्ड का यील्ड घटता क्यूं है?

चलिए एक उदाहारण से समझिए-


लल्ली ने सीधे सरकार से 1,000 रूपये का एक जी-सेक बॉन्ड ख़रीदा. 10 साल की मैच्योरिटी वाला, जिसमें उसे हर साल 10% का ब्याज़ मिलेगा. इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब ये हुआ कि लल्ली को आने वाले 10 सालों तक हर साल 100 रूपये मिलेंगे. साथ ही 10 साल बाद उसे उसके 1,000 रूपये भी वापस हो जाएंगे. और इस बॉन्ड का 'लल्ली के लिए यील्ड’ क्या हुआ? ऑफ़ कोर्स 10%. क्यूंकि परिभाषा के अनुसार हर साल मिलने वाला ब्याज़ अगर प्रतिशत में कैल्क्युलेट किया जाए तो वही तो बॉन्ड यील्ड ठहरा न?

यहां तक तो ठीक. अब लल्ली 2 साल बाद सोचती है कि मुझे पैसों की ज़रूरत है, मैं ये बॉन्ड बेच देती हूँ. तब मार्केट में लल्ली के इस बॉन्ड की क़ीमत चल रही थी 1500 रूपये. लल्ली ने 2 साल का ब्याज़ खाया और 500 रूपये अधिक में बॉन्ड बेच दिया. अब इस क़ीमत पर लल्लन ने मार्केट से लल्ली वाला बॉन्ड उठा लिया. तो क्या उसे 1500 रूपये पर भी 10% ब्याज़ मिलेगा? नहीं न? क्यूंकि, ब्याज़ तो बॉन्ड इश्यू करने वाली कंपनी दे रही है न? और वो तो कहेगी… कहेगी क्या कहती ही है… कि ब्याज़ तो मैं उसी अमाउंट पर 10% दूँगी, जिस अमाउंट पर मैंने इसे बेचा है. यानी 100 रूपये. तो इतना ही ब्याज़ लल्लन को भी मिलेगा. तो फिर इस बॉन्ड का 'लल्लन के लिए यील्ड’ क्या हुआ? 6.67 प्रतिशत. कैसे 100 रूपये दरअसल, 1500 के 6.67% ही तो हुए.

अच्छा गणित नहीं, अब हिंदी में भी समझिए. अगर ‘यील्ड’ का मतलब ये हुआ कि आपको आपकी ख़रीद में कितना फ़ायदा होता है तो ऑफ़ कोर्स लल्लन के मुक़ाबले लल्ली को ज़्यादा फ़ायदा हुआ न? यानी जिसने जितना सस्ता ख़रीदा, उसे उतना ज़्यादा फ़ायदा होगा. है कि नहीं? तो इसे यूं भी तो कह सकते हैं कि जिसने बॉन्ड जितना महंगा ख़रीदा, उसे उतना कम बॉन्ड यील्ड मिलेगा.

अब हमने लिखते वक़्त बड़ा ध्यान रखा था कि लल्लन ने लल्ली से नहीं ख़रीदा बॉन्ड, दोनों ने क्रमशः मार्केट से ख़रीदा और मार्केट में बेचा बॉन्ड. बस दोनों का समय एक ही था. लल्लन के ख़रीदने का, लल्ली के बेचने का. इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब ये हुआ कि लल्लन और लल्ली नहीं, मार्केट डिसाइड करेगी कि बॉन्ड की क़ीमत क्या होगी और उसका यील्ड क्या होगा. तो इसलिए परिभाषा से भी लल्ली और लल्लन का उदाहारण हटाकर इसे ‘धामपुर की चीनी’ की तरह और रिफ़ाइन करें तो-


जैसे-जैसे किसी बॉन्ड की क़ीमत बढ़ेगी, उसका यील्ड उसी अनुपात में घटेगा.

# ओपन मार्केट ऑपरेशन (OMO)-

RBI का मुख्य काम देश की मॉनिटरी पॉलिसी रेग्यूलेट करना है. ऐसा वो कई तरीक़ों से कर सकती है. जैसे मार्केट में अगर लिक्विडिटी मेंटेन करनी है तो रेपो-रेट, रिवर्स रेपो-रेट वग़ैरह को ऊपर नीचे करके कर सकती है. लिक्विडिटी मतलब देश में, बैंकों के पास कितना कैश है?

लेकिन ऐसा बल्क में बॉन्ड को ख़रीद या बेचकर भी कर सकती है. कैसे? अगर मार्केट में बहुत ज़्यादा लिक्विडिटी है तो वो हज़ारों करोड़ों के बॉन्ड बेच देगी, ताकि मार्केट के पास बॉन्ड आ जाएं और पैसे कम हो जाएं. और अगर मार्केट में पैसों (कैश) की कमी चल रही है तो वो कैश इंफ्यूज़ करने के लिए मार्केट से ढेर सारे बॉन्ड ख़रीदेगी. ताकि उसके पास बॉन्ड आ जाएं और बैंकों के पास पैसे. तो RBI की ये ख़रीद-बेच कहलाती है, ओपन मार्केट ऑपरेशन (OMO).

क्या आपको पता चला कि हमने आपको दो तरीक़े के ओपन मार्केट ऑपरेशन OMO बता दिए. ‘एक्सपेंशरी (विस्तारित) ओपन मार्केट ऑपरेशन’ और ‘कॉन्ट्रैक्शनरी (संकुचित) ओपन मार्केट ऑपरेशन’.


# एक्सपेंशरी में RBI मार्केट में पैसे इंफ्यूज़ करेगी. जैसा नाम से ही ज़ाहिर है कि मार्केट में पैसे का एक्सपेंशन करना, यानी पैसे बढ़ाना तो? ऑफ़ कोर्स बॉन्ड ख़रीदेगी. तभी तो मार्केट में पड़े बॉन्ड, पैसों में बदलेंगे न.
# कॉन्ट्रैक्शनरी में RBI मार्केट से पैसे कम करेगी. इसके लिए खूब सारे बॉन्ड बेचेगी. मतलब मार्केट से कहेगी, तुम्हारे पास बहुत पैसे हैं, लो इनके बदले ये बॉन्ड ले लो.

# ज़रा बॉन्ड यील्ड की बात भी करते चलें-

तो, अगर RBI अगर एक ही दिन में खूब सारे बॉन्ड बेचेगी तो वो ऐसा क्यूं कर रही होगी? ताकि मार्केट में एक्स्ट्रा पैसा तुरंत उसके पास आ जाए. लेकिन इस चक्कर में क्या होगा? ऑफ़ कोर्स मार्केट में बॉन्ड की सप्लाई बढ़ जाएगी. जिससे उसकी क़ीमत घट जाएगी. और बॉन्ड की क़ीमत कम होना मतलब? बॉन्ड यील्ड का बढ़ना.

और अगर RBI अगर एक ही दिन में खूब सारे बॉन्ड ख़रीदेगी, तो वो ऐसा क्यूं करेगी? ताकि मार्केट में तुरंत लिक्विडिटी बढ़ जाए. लेकिन इस चक्कर में क्या होगा? ऑफ़ कोर्स मार्केट में बॉन्ड की डिमांड बढ़ जाएगी. जिससे उसकी क़ीमत बढ़ जाएगी. और बॉन्ड की क़ीमत बढ़ना मतलब? बॉन्ड यील्ड का कम होना.

आप इन परम्यूटेशन-कॉम्बिनेशन से थोड़ा बहुत समझ पा रहे होंगे कि RBI न एक हद से ज़्यादा बॉन्ड ख़रीद सकती है, न एक हद से ज़्यादा बॉन्ड बेच सकती है. वो क्या कहते हैं, यील्ड मेरे आगे है तो, लिक्विडिटी मेरे पीछे. तो ऐसे में RBI कहती है- आओ! ट्विस्ट करें…

# ऑपरेशन ट्विस्ट-

हालांकि हम मेटाफ़र और एनोलॉज़ी की बातें खूब करते हैं, लेकिन जब हम ऑपरेशन ट्विस्ट की बात करते हैं, तो आपको बताना चाहेंगे कि इसका नाम 60 के दशक के फ़ेमस डांस फ़ॉर्मेट ट्विस्ट पर ही पड़ा है. चबी-चेकर के ट्विस्ट से. और ये लेकर आई थी, अमेरिका की फ़ेडरल रिज़र्व (इंडिया की रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के समकक्ष).

आगे बढ़ने से पहले सुनिए ये गीत. और गौर करिए, मुहम्मद रफ़ी की मुकरियां जो किशोर कुमार की यूडलिंग से कुछ कम नहीं-

हालांकि बॉन्ड के केस में अमेरिका ने इसकी शुरुआत 2011 के क़रीब में की थी और इंडिया में RBI से सबसे पहला ऑपरेशन ट्विस्ट पिछले साल ही किया था. 23 दिसंबर, 2019 को.

जैसा कि नाम से ज़ाहिर है कि ऑपरेशन ट्विस्ट में इधर का माल उधर किया जाता है. मतलब? इसमें RBI, OMO से जितने मूल्य के बॉन्ड ख़रीदती है, उतने ही मूल्य के बॉन्ड बेचती भी है. ख़रीदती लॉन्ग टर्म वाले बॉन्ड है और बेचती शॉर्ट टर्म वाले बॉन्ड है.

# लॉन्ग टर्म वाले बॉन्ड ख़रीदने से, इन बॉन्ड की मार्केट में डिमांड बढ़ेगी और ये महंगे हो जाएंगे और यूं इनका यील्ड घटेगा. लॉन्ग टर्म वाले बॉन्ड का यील्ड, बैंक्स के लिए लोन वग़ैरह का बैंच-मार्क होता है. 10 साल की मेच्योरिटी वाले बॉन्ड के यील्ड के हिसाब से ही, कार लोन से लेकर पर्सनल लोन की दरें घटती बढ़ती रहती हैं. क्यूं?

इसे आसान भाषा में ऐसे समझिए, अगर किसी बैंक को लोन देने में (जो ज़्यादा रिस्की भी है) उतने ही पैसे मिल रहे हैं जितने किसी सरकारी बॉन्ड को ख़रीदने में (जो इतना सिक्योर है कि उसे परम प्रतिभूति भी कहते हैं) तो कोई ये क्यूं ले, वो न ले?

बल्कि बैंक या कोई भी ये ही कहेगा कि भाई 100-200 ज़्यादा ले-ले, पर ‘सेफ़ लेंडिंग’ करवा दे. क्यूंकि बैंक अगर लोगों को लोन देगी तो कुछ माल्या आई मीन हिरन भी तो हो जाएंगे.

और इसलिए ही RBI, रेपो रेट घटाते-घटाते मर गई, लेकिन बैंक ने वो कस्टमर्स को पास नहीं किया.

रेपो रेट मतलब जिस दर पर बैंक, RBI से पैसे ब्याज़ में उठाते हैं. तो अगर RBI बैंकों को ब्याज़ कम दे रही है, वो इसलिए नहीं कि बैंक को फ़ायदे में रखे, बल्कि इसलिए ताकि आगे बैंक भी बाकी लोगों को ब्याज़ कम दर पर दें. लोग ज़्यादा लोन लें. पैसे खर्च करें. कन्स्ट्रक्शन हो. GST इकट्ठा हो. GDP बढ़े…

और हां. अभी सरकार ने भी लोन लेना है. बहुत सारा. अनुमान कह रहे हैं 15 ट्रिलियन. इसके जीरो गिनने बैठेंगे तो देर हो जाएगी, लेकिन ये ज़रूर है जितनी ब्याज़ दर कम होगी, लौटाते वक़्त उस अनुपात में ज़ीरो कम हो जाएंगे.


जब गौरव वल्लभ ने ट्रिलियन के जीरो के बारे में संबित पात्रा से पूछा था. जब गौरव वल्लभ ने ट्रिलियन के जीरो के बारे में संबित पात्रा से पूछा था.

लेकिन बैंकों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था. इसलिए RBI ने कहा कि रेपो रेट को बैंचमार्क नहीं मान रहे हो बेट्टा, यील्ड को तो मानोगे. और बस तबसे ही RBI लॉन्ग टर्म बॉन्ड ख़रीदती है और शॉर्ट टर्म बॉन्ड बेचती है.

# शॉर्ट टर्म वाले बॉन्ड बेचने से, RBI जितने पैसे लॉन्ग टर्म वाले बॉन्ड ख़रीदने में लगाती है, उतने कमा लेती है. वही कहावत सिद्ध होती है कि सांप भी मर जाए… सॉरी शाकाहारी मुहावरा, हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए.

# क्या ऑपरेशन ट्विस्ट प्रभावशाली है-

डेटा तो इसी ओर इशारा करता है, पिछले साल दिसंबर में यील्ड 7 के क़रीब पहुंच गया था. जो इस साल, जुलाई तक घटते-घटते पौने छह तक रह गया, और इस वक़्त भी ये छह के क़रीब में है. हां अब यील्ड का कितना असर लोन की ब्याज़ दर पर पड़ता है, ये तो, एडिटोरियल क्लिशे की भाषा में कहें तो, आने वाला वक़्त ही बताएगा.

# ये ख़बर हमारे लिए क्यूं महत्वपूर्ण है-

कई कारणों से. एक तो सबके सामने भोकाल टाइट करने के लिए, देखो बे! हमें ये भी आता है. दूसरा कारण ज़्यादा महत्वपूर्ण है. वो ये कि समझ पाएं कि RBI की पॉलिसीज़ का हमारे ऊपर कितना और कैसे असर होता है. तीसरा अर्थव्यवस्था के क्लॉकवर्क में से कम-से-कम एक ढिबरी का काम समझने के लिए.

# अंत में-

अंत में, बैक टू स्क्वेर वन. स्टोरी का पहला पैरा पढ़कर देखिए, कितना समझ आया? हमें आपके इस लॉन्ग टर्म बॉन्ड की सौगंध, हम एक शॉर्ट टर्म ब्रेक लेकर फिर वापस आएंगे, एक और फाइनेंशियल एक्सप्लेनर लेकर.



वीडियो देखें : क्या है लोन मोराटोरियम का मामला, जिसको लेकर जनता और बैंक दोनों दुखी चल रहे हैं

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