23 अप्रैल. शुक्रवार की शाम कई इंवेस्टर्स के लिए बुरी ख़बर लेकर आई. जब फ्रैंकलिन टेंपलटन नाम की AMC (एसेट मैनजमेंट कंपनी) ने कहा कि वो अपने 6 ‘डेट फंड’ वाइंड-अप कर रहा. मतलब एक तरह से बंद कर रहा. इन फंड्स में इंवेस्टर्स के लगभग 26 हज़ार करोड़ रूपए लगे हुए थे. ये 6 फंड हैं-
# फ्रैंकलिन इंडिया लो ड्यूरेशन
# फ्रैंकलिन इंडिया डायनेमिक एक्यूरल
# फ्रैंकलिन इंडिया क्रेडिट रिस्क
# फ्रैंकलिन इंडिया अल्ट्रा शॉर्ट बॉन्ड फंड
# फ्रैंकलिन इंडिया इनकम ऑपरट्यूनिटी फंड
# फ्रैंकलिन इंडिया शॉर्ट टर्म इनकम प्लान
यानी जिन लोगों ने इन, या इनमें से किसी भी फंड में पैसा इन्वेस्ट किया है, वो ‘अभी’ न पैसे निकाल पाएंगे, न इन फंड्स में पैसे डाल पाएंगे. साथ ही इन फंड्स में या इन फंड्स से पैसे ट्रांसफ़र करना भी संभव न होगा.
Franklin Templeton India Makes Decision to Close Yield-Oriented Managed Credit Suite to Protect Investor Assets Amid COVID-19 Related Market Dislocation Impacting Credit Sector in India.
Notice – https://t.co/gpFP6FbYKW
Press Release – https://t.co/chrP7MhVh0— Franklin Templeton (@FTIIndia) April 23, 2020
पूरी ख़बर का सार तो यही है. लेकिन प्रथम दृष्टया ये ख़बर जितनी बुरी लग रही है, उतनी है नहीं. बल्कि काफ़ी हद तक उन लोगों के लिए अच्छी ख़बर लग रही है, जिन्होंने इन फंड्स में से पैसा नहीं निकाला था. कैसे? आइए समझते हैं.
# क्या होता है इक्विटी और डिबेंचर्स में अंतर-
आपकी एक छोटी सी कंपनी है. जिसको अचानक करोड़ों का कॉन्ट्रैक्ट मिलता है. एक ऐसा कॉन्ट्रैक्ट, जिसके पूरे पैसे काम ख़त्म होने, या माल की डिलीवर हो चुकने के बाद ही मिलेंगे.
अब कॉन्ट्रैक्ट साइन करते वक्त आपको लगता है कि कहीं आपने उससे ज़्यादा तो नहीं काट कर मुंह में भर लिया जितना आप चबा सकते हैं? आपका तो छोटा सा बिज़नेस है, इस काम के पैसे तो आपको बाद में मिलेंगे. लेकिन उससे काफ़ी पहले तो आपको करोड़ों रुपए जुटाने पड़ेंगे. कच्चे माल के लिए, मज़दूरों के लिए.
लेकिन चिंता मत कीजिए. आप तीन तरह से पैसे जुटा सकते हैं. एक तो उधार लेकर. दूसरा अपनी कंपनी में पैसा देने वालों को हिस्सेदारी देकर. और तीसरा, ‘पैसे दे दो, वापस नहीं करुंगा’ कहकर.

अब ऐसा नहीं है कि आपकी कंपनी छोटी थी इसलिए पैसों के वजह से काम अटक गया. बड़ी-बड़ी कम्पनियों के भी पैसों के चक्कर में काम अटकते हैं. और भी बड़े-बड़े अमाउंट के चक्कर में. और उन्हें भी ऊपर बताए गए तीन माध्यमों से पैसा जुटाना पड़ता है. बस अगर बड़ी-बड़ी कंपनियां ऐसा करती हैं तो उनके बड़े-बड़े नाम रख दिए जाते हैं, इसलिए हम लोग कनफ़्यूज हो जाते हैं.
# जैसे अगर कंपनियां उधार लेकर पैसा जुटा रही हैं तो कहते हैं, ‘कंपनी ने अपने डिबेंचर इश्यू किए हैं.’ डिबेंचर. डेट या ऋण, शब्द से बना है. और डिबेंचर इश्यू करने का मतलब ऐसे लीगल पेपर, जो वो आपको देगी, अगर आप उनको उधार देंगे. उन लीगल पेपर्स के दम पर आप उनसे समय-समय पर अपना ब्याज या मूलधन ले सकते हो. जैसा भी डिबेंचर में वर्णित है.
# ऐसे ही जब कंपनियां अपना एक हिस्सा बेचकर, या हिस्सेदारी बेचकर पैसा जुटाती हैं तो कहते हैं, ‘कंपनी ने अपने शेयर्स या इक्विटी जारी किए हैं.’ इक्विटी, इक्वल यानी बराबर शब्द से मिलकर बना है. यानी कंपनी को करोड़ों बराबर हिस्सों में बांट दिया गया है, और कुछ हिस्से आम-आदमी के ख़रीदने के लिए रख छोड़ें हैं. जितने हिस्से आप ख़रीदेंगे, आप उस कंपनी में उतने हिस्से के मालिक हो जाएंगे.
# तीसरा है, चैरिटी. वही, ‘पैसे दे दो, वापस नहीं करुंगा’. चैरिटी आपको एनजीओ वग़ैरह में ही देखने को मिलेगा.
अब आम आदमी डिबेंचर (बॉन्ड) और इक्विटी (शेयर्स), सिर्फ़ इसलिए नहीं लेता कि कंपनी का भला हो. अगर डिबेंचर ले रहा तो उसे वो सभी फ़ायदे मिलते हैं, जो उधार देने वाले को मिलते हैं. जैसे पैसे तय समय पर बढ़ा के मिलना, या उनपर तय समय पर ब्याज मिलना.
और दूसरी तरफ़ शेयर्स लेने वाले को वही सब फ़ायदे मिलते हैं जो कंपनी के मालिक को. ऑफ़ कोर्स उसी रेश्यो में, जिस रेश्यो में उसका कंपनी में हिस्सा है.
शेयर्स और डिबेंचर की परिभाषा समझने के बाद आपको समझ आ गया होगा कि शेयर्स लेने में रिस्क ज़्यादा है, लेकिन प्रॉफ़िट भी अनलिमिटेड. क्यूंकि अब आप कंपनी के लाभ-हानि से जुड़े हो. और डिबेंचर्स में रिस्क बेशक कम है, लेकिन आपको तय समय पर केवल तय पैसे ही मिलेंगे.
अब आप पूछेंगे कि अगर क़र्ज़ लेने वाली कंपनी क़र्ज़ वापस करने में ही बेमानी कर जाए तो? ऐसा तब तो संभव है जब कोई लीगल डॉक्यूमेंट नहीं आपके पास. लेकिन डिबेंचर ही वो लीगल डॉक्यूमेंट है जिसके दम पर आपका पैसा काफ़ी हद तक सुरक्षित रहता है.
काफ़ी हद तक. पूरी तरह नहीं. क्यूंकि कोई कंपनी बर्बाद (बैंकरप्ट) हो सकती है. किसी के पास लिक्विडिटी की कमी हो सकती है. लिक्विडिटी की कमी बोले तो, जब कंपनी का डिबेंचर मेच्योर हुआ, या पैसे देने का टाइम आया तभी उसे नुक़सान हो गया, या उसके पैसे मार्केट में फ़ंसे हैं. तो बेशक डिबेंचर शेयर्स की तुलना में बहुत सुरक्षित होते हैं, लेकिन तब तक, जब तक सब कुछ सही चल रहा.
अब आपके सामने ये सवाल उठ सकता है कि कैसे पता चले, किस कंपनी के डिबेंचर ज़्यादा सुरक्षित हैं?
इसके लिए बनी हैं ‘क्रेडिट रेटिंग्स’. बहुत से संस्थान हैं, जो इन कंपनियों का इतिहास देखकर इनके डिबेंचर्स को क्रेडिट रेटिंग देते हैं. जैसे- केयर रेटिंग्स, क्रिसिल, इंडियन रेटिंग एंड रिसर्च. तो जिसकी रेटिंग जितनी अच्छी, उतना ज़्यादा आपका पैसा सुरक्षति.

तो ये तो था, शेयर्स, डिबेंचर को लेकर वो पूरा ज्ञान, जो हमें फ्रैंकलिन की भसड़ को समझने के लिए चाहिए था. लेकिन ख़बर पर वापस जाने से पहले एक और चीज़ समझनी होगी.
# म्यूचल फंड-
अब तक आपको समझ आ गया होगा कि पैसा कमाने/बढ़ाने के के लिए बैंक/एफडी या सोना ही नहीं, शेयर (इक्विटी) और डिबेंचर (बॉन्ड) भी अच्छा विकल्प है. लेकिन लोग क्या करते हैं कि किसी एक कंपनी के शेयर या डिबेंचर में पैसा इन्वेस्ट करने के बजाय कई कंपनियों के शेयर या डिबेंचर ख़रीद लेते हैं. इससे रिस्क काफ़ी कम हो जाता है, क्यूंकि कोई एक कंपनी घाटे में गई तो बाक़ी शायद फ़ायदे में जाएं. इसे ‘पोर्टफ़ोलियो डाइवर्सिफिकेशन’ कहते हैं. अगर रोज़मर्रा के उदाहरण से समझना है तो, आपकी फल वाली टोकरी हुई ‘पोर्टफ़ोलियो’. और अगर उसमें केवल सेब ही है तो आपका पोर्टफ़ोलियो डाइवर्सिफ़ाई नहीं है. अब इसमें तरह-तरह के फल हो गए तो आपका पोर्टफ़ोलियो हो गया डाइवर्सिफ़ाई. सिंपल है.
अब कुछ चीज़ें हैं जो आपको आपका पोर्टफ़ोलियो डाइवर्सिफ़ाई करने से रोकती हैं. टोकरी वाला ही उदाहरण ले लीजिए. आपके पास 10 रूपये हैं, इसमें या तो एक सेब या एक केला या एक संतरा भर आ सकता है. लेकिन आपको तो तीनों चाहिए. तो आप तीन और लोगों को ढूंढिए. तीनों अपने-अपने 10-10 रूपये मिलाइए. तीस रुपए हो गए तो तीनों फ़्रूट ख़रीद लाइए. और तीनों फ़्रूट्स को एक तिहाई हिस्से में बांटकर तीनों लोग तीनों फलों के मज़े लीजिए. खाइए, या टोकरी में सजाइए. लेकिन एक टोकरी में फ़्रूट काटकर सजाना अच्छा नहीं लगता न. खाते वक्त तो फिर भी ठीक है. तो आप एक कॉमन टोकरी ले लीजिए न. बस इसी कॉमन टोकरी का नाम है म्यूचल फंड.

नहीं समझे? देखिए, आपके पास हैं, 500 रूपये. इसमें आपको एमआरएफ का भी शेयर चाहिए. जो 60 हज़ार रुपए का है. और एसबीआई का भी चाहिए. जो 180 के लगभग का है. और ये दो शेयर्स ही नहीं, दसियों और शेयर्स भी चाहिए. तो हज़ारों लोग पैसा पूल कीजिए और जो-जो शेयर चाहिए वो ख़रीद लाइए. लेकिन इन हज़ारों लोगों को एक साथ कौन लाएगा? ये काम करता है म्यूचल फंड.
यानी म्यूचल फंड में हज़ारों लोग, करोड़ों रूपये इन्वेस्ट हैं करते हैं, और इसको मैनेज करने वाला, जिसे फंड मैनेजर कहते हैं, उस म्यूचल फंड में अलग-अलग शेयर्स/डिबेंचर्स/बॉन्ड और बाक़ी फ़ाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट डालते रहता है. और हां, म्यूचल फंड में हर एक को बराबर-बराबर पैसे देने की ज़रूरत नहीं. कोई 500 दे रहा तो उसे फ़ायदा/नुक़सान भी उसी हिसाब से होगा. कोई 5 लाख दे रहा तो उसे भी फ़ायदा/नुक़सान उसी हिसाब से हो रहा. लेकिन इंट्रेस्टिंग बात ये कि आपको 5 लाख रूपये देने पर भी म्यूचल फंड के हर वो शेयर मिलेंगे, जो 500 रूपये देने पर मिलते. बस हर शेयर में हिस्सा 1000 गुना हो जाएगा. यानी म्यूचल फंड वो विकल्प है जिसके द्वारा आप बहुत छोटे से अमाउंट से ‘पोर्टफ़ोलियो डाइवर्सिफ़ाई’ कर सकते हो.
अब आपको ऊपर एक जगह बताया था कि म्यूचल फंड में ‘हज़ारों लोग पैसा पूल कीजिए और जो-जो शेयर चाहिए वो ख़रीद लाइए’. लेकिन आप भी समझते हैं कि हर एक को अलग-अलग शेयर चाहिए होंगे, अलग अलग डिबेंचर्स चाहिए होंगे. सबकी राय तो एक सी नहीं हो सकती. आप खुद शेयर ख़रीद रहें हैं तो आप समझ लीजिए दर्ज़ी से कपड़े सिलवा रहे हैं. ठीक अपने नाप के. लेकिन म्यूचल फंड ख़रीदना, तो रेडीमेड कपड़े ख़रीदने सरीखा हुआ न? तो जो उपाय रेडीमेड कपड़े बनाने वालों को सूझा वही म्यूचल फंड बनाने वाली कंपनियों को भी सूझा. उन्होंने अलग-अलग नाप के अलग-अलग रंग के, अलग-अलग डिज़ाइन के म्यूचल फंड बनाए. कहीं सिर्फ़ इक्विटी में पैसा लगाया गया, कहीं सिर्फ़ डिबेंचर में. कहीं सिर्फ़ गिल्ट में. (गिल्ट आसान भाषा में कहें तो सरकारी डिबेंचर. सबसे सुरक्षित.) सिर्फ़ इक्विटी में पैसा लगाने वाले भी कई तरह के म्यूचल फंड हुए, जैसे किसी म्यूचल ने सिर्फ़ फ़ार्मा कंपनियों के शेयर्स में पैसे लगाए, तो किसी म्यूचल फंड ने सिर्फ़ आइटी कंपनियों में. मतलब कुल मिलकर ये समझ लीजिए, जितने परम्यूटेशन-कॉम्बिनेशन आप सोच सकते हो उतने तरह के म्यूचल फंड. यानी बेशक 500 रूपये में आपको दर्ज़ी वाली, बिलकुल फ़िटिंग वाली शर्ट नहीं मिली लेकिन उतने में आपको ‘काफ़ी हद तक फ़िटिंग वाली’ शर्ट मिल गई.
लेकिन म्यूचल फंड में केवल पोर्टफ़ोलियो डाइवर्सिफिकेशन भर का ही फ़ायदा नहीं. इसे बड़े-बड़े फंड मैनेजर, जिन्होंने सालों इसी चीज़ की पढ़ाई की होती है और फिर बाज़ार का अनुभव लिया होता है, मैनेज करते हैं. यानी अगर सब कुछ ईमानदारी से हुआ तो रिस्क उससे कम और रिटर्न उससे ज़्यादा होता है जितना आपको ख़ुद अपना पोर्टफ़ोलियो बनाकर होता. इसलिए ही तो म्यूचल फंड्स को काफ़ी हद तक सुरक्षति माना जाता है. रही बात ‘ईमानदारी’ की तो इन म्यूचल फंड्स पर सेबी का दबाव या कहें डंडा हमेशा रहता है. चीज़ें पारदर्शी रखने का.
जैसे शांति व्यवस्था के लिए पुलिस है, बैंकों के लिए आरबीआई होती है वैसे ही शेयर मार्केट के लिए सेबी (SEBI) है. जिसका फुल फॉर्म है, भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (Securities and Exchange Board of India). जिसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता.
आगे बढ़ें, उससे पहले आपको एक चीज़ और बता देते हैं. SIP (एसआईपी- सिस्टमेटिक इन्वेस्टमेंट प्लान). यानी हर महीने या साल में दो/तीन/चार बार म्यूचल फंड में बिना नागा पैसे डालते रहना. ये आपके पोर्टफ़ोलियो को तीन लेवल पर डाइवर्सिफ़ाई कर देता है.
# पहला तो आपने म्यूचल फंड लिया. मतलब एक नहीं कई शेयर्स/डिबेंचर्स का गुच्छा. तो फ़र्स्ट लेवल डाइवर्सिफ़िकेशन.
# फिर आपने एक नहीं 3-4 तरीक़े के म्यूचल फंड लिए. सेकेंड लेवल डाइवर्सिफ़िकेशन.
# फिर आपने हर फंड में एक मुश्त पैसे नहीं डाले. थर्ड लेवल डाइवर्सिफ़िकेशन.
सोचिए अगर आपने एक मुश्त पैसे डाल दिए होते और मार्केट गिरते रहता तो? (कहते हैं न, ‘म्यूचल फंड, मार्केट जोखिमों के अधीन है’). तो आपके पैसे बढ़ने के बदले घटते.

वहीं अगर आप गिरते हुए मार्केट में पैसे डाल रहे हैं तो आपको हर फ़ॉल पर अधिक माल मिलता चला जाएगा. और आप अपने पिछले महीने के नुक़सान को अगली बार काफ़ी हद तक ज़ीरो कर पाएंगे. और जब पैसे बढ़ना शुरू होंगे तो निचले दामों पर ख़रीदे गए माल के ज़्यादा पैसे बढ़ेंगे. वैसे बता दें, इस माल को म्यूचल फंड में ‘यूनिट्स’ कहते हैं.
आप सुनते हो न यूलिप. वो इंश्योरेंस प्लान जो पारंपरिक प्लांस से इस तरह अलग होते हैं कि इसमें आपको एक निश्चित रिटर्न की गारंटी तो नहीं दी जाती लेकिन हो सकता है कि पॉलिसी मैच्योर होने पर आपको कहीं ज़्यादा पैसे मिल जाएं. यूलिप बोले तो, यूनिट लिंक्ड इन्वेस्टमेंट प्लान. यानी इंश्योरेंस के प्रीमियम के अलावा बाक़ी सारा पैसा मार्केट में लगा देना.
# अब आइए फ्रैंकलिन टेंपलटन की ख़बर को ऊपर के सारे ज्ञान से समझने का प्रयास करते हैं-
जैसे एचयूएल (हिंदुस्तान यूनिलीवर) तरह-तरह के साबुन बनाता है, जैसे सिप्ला तरह-तरह की दवाइयां बनाती है, वैसे ही फ्रैंकलिन टेंपलटन ऐसी कंपनी समझ लीजिए जो तरह-तरह ये म्यूचल फंड बनाती है. और भी ऐसी म्यूचल फंड बनाने, या टेक्निकल भाषा में कहें तो, इश्यू करने वाली कंपनियां हैं. इन्हें AMC यानी ‘एसेट मैनजमेंट कंपनीज़’ कहते हैं.
तो समझ लीजिए, फ्रैंकलिन टेंपलटन अपने कई प्रोडक्ट्स में से 6 बंद कर रही है. ये 6 के 6 फंड ‘डेट फंड’ हैं. सवाल वही. कि क्यूं कर रही है बंद?

अब हम जानते हैं ‘डेट फंड’ का मतलब वो फंड जिनमें तरह-तरह के डिबेंचर्स में इन्वेस्ट किया जाता है. हम ये भी जानते हैं कि गिल्ट फंड सरकारी डिबेंचर्स कहलाते हैं. इन 6 के 6 फंडस में से किसी में भी गिल्ट में या तो इन्वेस्ट नहीं किया गया था, या ऊंट के मुंह में ज़ीरा के बराबर इन्वेस्ट किया गया था. यानी ‘सिक्यूरिटी’ की आधी वाट तो यहीं पर लग गई.
साथ ही हमने क्रेडिट रेटिंग की बात की थी. ये 6 के 6 फंड ऐसे थे जिसमें AAA (सबसे बेहतरीन क्रेडिट रेटिंग) वाले डिबेंचर्स भी ऊंट के मुंह में ज़ीरा की तरह थे. AA (कम बेहतर हिस्ट्री वाले) या A (उससे भी कम बेहतर हिस्ट्री वाले) डिबेंचर्स ज़्यादा थे.
जैसे, ‘फ्रैंकलिन इंडिया लो डयूरेशन’ में 63% के लगभग पैसे A रेटेड बॉन्ड में लगे थे. और बाकी पैसे AA रेटेड बॉन्ड में. बाक़ी 5 फंड्स का भी कमोबेश यही हिसाब किताब था.
ऐसे म्यूचल फंड्स ‘हाई-रिस्क हाई रिटर्न फंड’ कहे जाते हैं. हाई-रिस्क क्यूं ये तो आपको बता ही दिया.
# हाई रिटर्न इसलिए, क्यूंकि सरकारी बांड्स (डिबेंचर्स), रिटर्न के मामले में भी सरकारी होते हैं. पैसा कहीं जाता नहीं, लेकिन उतनी तेज़ी से बढ़ता नहीं.
#और हाई रिटर्न इसलिए भी, क्यूंकि कम क्रिसिल रेटिंग वाले डिबेंचर सामान्य परिस्थितियों में कहीं बेहतर ब्याज और रिटर्न्स देते हैं. साथ ही इनकी क्रेडिट रेटिंग बढ़ने की संभावना के साथ इसका मूल्य बढ़ने की संभावना भी रहती है. अब जिसकी पहले ही AAA (परफ़ेक्ट) रेटिंग हो, उसकी संभावनाएं भी शून्य हुई न, बढ़त की.
ये सब तो सामान्य परिस्थितियों की बात है. इस वक़्त कहीं से कहीं तक आपको परिस्थितियां सामान्य लगती हैं? नहीं न.
तो अब इन अत्यधिक असामान्य परिस्थितियों में क्या हुआ है कि पिछले कुछ दिनों में लोगों ने इन म्यूचल फंड्स से ढेर सारे पैसे निकालने शुरू कर दिए. अब फ्रैंकलिन टेंपलटन अपने जेब से पैसे तो देगा नहीं, वो तो उन्हीं कंपनियों के डिबेंचर्स को भुनाएगा न, जिसमें उसने लोगों के पैसे इन्वेस्ट करे हैं.
फ्रैंकलिन इंडिया के प्रेज़िडेंट संजय सप्रे कहते हैं-
इंडियन बॉन्ड (डिबेंचर) मार्केट में लिक्विडिटी का घोर अभाव है. साथ ही कोविड-19 के चलते लोग ‘डेट सिक्यूरिटी’ में से दबा के पैसे निकाल रहे हैं. और इस सबके चलते हमें ये निर्णय लेना पड़ रहा है.
संजय सप्रे ने आगे भी बड़ी लॉजिकल और कनविंसिंग बात कही-
हम हर दिन अगर इतने सारे पैसे, पैसे निकालने वालों के देते रहते तो, उनके इन्वेस्टमेंट की वेल्यू घटते रहती, जो फंड में बने हुए थे.

उनका क्या मतलब था, समझिए-
#देखिए डिबेंचर की एक मेच्योरिटी डेट होती है. और अगर फ़्रैंकलिन मेच्योरिटी डेट पर डिबेंचर भुनाए तो उसे पूरे पैसे मिलेंगे. और उन पैसों को फिर से इन्वेस्ट कर दे, तो उनका ‘डेट म्यूचल फंड’ दिन दोगुनी, रात चौगुनी वृद्धि करेगा. औरइन परिस्थितियों में जो इंवेस्टर जितनी ज़्यादा देर तक फंड में बना रहेगा, उसे उतना ज़्यादा फ़ायदा होगा.
#लेकिन अगर उसका कोई ग्राहक (इंवेस्टर) आकर मेच्योरिटी से पहले ही पैसे मांगने लग जाए तो? तो भी कोई दिक्कत नहीं. आपके पैसे हैं, जब चाहें आकर मांग लें. फ़्रैंकलिन उतने मूल्य के डिबेंचर या बॉन्ड किसी और को बेच कर इंवेस्टर को पैसे दे देगी. और जिस किसी को भी ये बॉन्ड बेचेगी वो मेच्योरिटी के वक्त बॉन्ड भुना लेगा. किसी का लॉस नहीं.
# लेकिन अब तीसरी कंडीशन पर गौर कीजिए. जब फंड्स से पैसे निकालने के वास्ते क़तार लग जाए लोगों की? तो कितने ही बॉन्ड के खरीददार मिल जाएंगे फ़्रैंकलिन को? और तब डंसने आता है डिमांड-सप्लाई का सांप. कैसे?
क्यूंकि अब बॉन्ड ख़रीदने वाला, शादी का फूफा हो गया. कहेगा कि 100 रूपये का बॉन्ड 90 में खरीदूंगा. और ज़्यादा बॉन्ड बेचने हैं तो 80 में ही खरीदूंगा. फ़्रैंकलिन को मानना पड़ेगा. क्यूंकि उसे तो अपने इंवेस्टर्स को पैसे देने हैं, जो क़तार लगाए हुए खड़े हैं. यूं जैसे-जैसे डेट फंड से पैसा निकालने वाले लोग बढ़ेंगे, फ्रैंकलिन को वैसे-वैसे और ज़्यादा बॉन्ड बेचने पड़ेंगे. और जितने बॉन्ड बेचेगा, उतना बॉन्ड की वेल्यू और फलतः उस फंड की वेल्यू गिरती जाएगी. यानी इन परिस्थितियों में जो इंवेस्टर जितनी ज़्यादा देर तक फंड में बना रहेगा, उसे उतना ज़्यादा नुक़सान होगा.
और कंगाली में आटा गीला वाली बात ये कि, इन 6 फंड्स् में ज़्यादातर AAA और AA रेटिंग के डिबेंचर हैं. जिनकी मार्केट में वैसे ही साख कमतर है. तो इन्हें ख़रीदने वाल और ज़्यादा भौहें चढ़ाकर बात करता है.
अब अगर इंवेस्टर्स को अपनी मर्ज़ी से पैसे निकालने पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाए? तो फ़्रैंकलिन पर डिबेंचर्स (बॉन्ड्स) ‘तुरंत’ और ‘औने-पौने दामों पर’ बेचने का दबाव नहीं रहेगा. यूं वो या तो बॉन्ड मेच्योर होने का इंतज़ार करेगा या फिर जब फूफाजी कुछ माने हुए होंगे तब बारात आगे बढ़ेगी. मतलब तब अपने बॉन्ड बेचेगा, जब बाज़ार इसे अधिक दामों में ख़रीदने को राज़ी होगा.
इस लॉजिक से जाएं तो ये बेहतर ही लग रहा कि पैसे ख़ुद से निकालने की व्यवस्था ख़त्म करके, धीरे-धीरे फंड्स के एसेट लिक्विडिफ़ाई किए जाएं. यानी ये उन इंवेस्टर्स के लिए बुरी नहीं अच्छी बात है, जिनका इस फंड्स में पैसा था. क्यूंकि जिस हिसाब से बाक़ी लोग पैसे निकल रहे थे, बचे हुए लोगों के पैसे उतनी ही तेज़ी से ख़ाक होते जा रहे थे. 6 में से एक ग्राफ़, शायद आपको बेहतर समझा पाए.

अब फ्रैंकलिन टेंपलटन का कहना है कि हम धीरे-धीरे एसेट बेचेंगे और धीरे-धीरे देंगे. यानी कम से कम अब तक तो सिर्फ़ यही एक नेगेटिव बात लग रही है कि केवल ‘ऑन डिमांड मनी’ की सुविधा ख़त्म हुई है. पैसा डूबा नहीं है. बस कुछ समय के लिए फंसा है. वो क्या कहते हैं जावेद अख़्तर- दिल दुखा है लेकिन टूटा तो नहीं है.
तो ये उनके लिए बुरी ख़बर है, जिनको पैसा तुरंत या एक दो दिन में चाहिए था. लोग ‘डेट फंड’ में पैसा भी शॉर्ट टर्म के लिए ही लगाते हैं. तो ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है.
# और क्या-क्या मतलब हैं इन फंड्स के ‘बंद’ होने के?
इसके मायने ये भी हैं कि आप और पैसे इन्वेस्ट नहीं कर पाएंगे इनमें. साथ ही जो फंड मैनेजर का पैसा कटता है, अब नहीं कटेगा. लेकिन टैक्स तो सरकार लेती है. तो, जब भी आपके पैसे आपके हाथ में आएंगे, तब जो भी टैक्स के नियम हैं उस हिसाब से प्रॉफ़िट या इन्वेस्टमेंट पर आपको टैक्स देना पड़ेगा.
हां कुछ चीज़ें और हैं, जिनके बारे में निश्चित तो नहीं कहा जा सकता लेकिन काफ़ी हद तक अनुमान लगाया जा सकता है. जैसे, आपको शायद उतने पैसे न मिलें, जितने की उम्मीद आपने लगाई है. लेकिन अगर आपने ऊपर के फ़ैक्ट्स पर गौर किया होगा तो पाया होगा, कि फ़्रैंकलिन के इस निर्णय से शायद आपको उससे ज़्यादा पैसे मिलें, जितने पैनिक क्रिएट होने पर मिलते.
# फ्रैंकलिन कितना दोषी है-
प्रथम दृष्टया तो केवल इतना दोष लग रहा कि इन्होंने इन 6 फंड्स में डाइवर्सिफिकेशन अच्छे से नहीं किया. मतलब ग़लती शायद की है, अपराध या पाप नहीं. लेकिन इस एक बात के लिए भी, इन्हें दोषमुक्त कर सकते हैं कुछ लोग. क्यूंकि इंवेस्टर्स, इस AAA, AA, A वाले रिस्क को देख-समझ कर ही ये फंड ख़रीद रहे थे. इसलिए ही तो ये फंड बिक रहे थे. याद है न रेडीमेड कपड़ों वाला उदाहरण? तो AMC के पास तो हर तरह के फंड थे. बाक़ी पारदर्शिता बनाने के लिए सेबी और सरकार का तो डंडा रहता ही है.

लेकिन जो भी हो, दोष किसी का हो न हो, कोई कॉन्सपिरेसी हो न हो, फंसा तो आम आदमी ही न. रिटेल इंवेस्टर. जो घर में पैसा रखने पर फंसता है, किसी ‘नोटबंदी’ के चलते. जो बैंक में पैसा रखने से डरता है, किसी ‘यस बैंक’ के चलते. जो शेयर में इन्वेस्ट करने से घबराया है, किसी ‘रिलायंस कम्यूनिकेशन’ के चलते. जो अब म्यूचल फंड में भी पैसा डालने से हिचकेगा, ‘फ्रैंकलिन’ के चलते.
हालांकि ये फिर से जोड़ दें कि-
अभी जितनी ख़बर हमारे पास है, और जितने लॉजिक हम लगा सकते हैं, उससे तो यही स्पष्ट हो रहा है कि फ़्रैंकलिन ने अपने अधिकतर ग्राहकों के हित में काम किया है.
# अब आगे क्या होगा?-
वही जो पैनिक फैलने पर होता है. चीज़ें बढ़ती चली जाएंगी. जो लोग म्यूचल फंड में पैसे इन्वेस्ट करने की सोच रहे थे, बेतहाशा डरेंगे. जिनके पहले से इन्वेस्टेड हैं, पहली फुर्सत में पैसे निकालने के लिए दौड़ेंगे. डेट फंड का तो और भी बुरा हाल रहेगा. एक कुचक्र, जिसकी जद में म्यूचल फंड, शेयर, बॉन्ड्स, कंपनिया और अंत में भारतीय अर्थव्यवस्था आ जाएगी.
Franklin Templeton debt mutual funds worth Rs.28000 crore have suspended operation due to redemption pressures. This could have a cascading effect on other debt mutual funds. What happens to retail investors’ money invested in debt debt funds considered safe relative to equity?
— M K Venu (@mkvenu1) April 24, 2020
घबराइए नहीं. ये सब, सबसे बुरी संभावनाओं में से एक है. सरकार, सेबी, आरबीआई और एएमसी कंपनियों को, अपने ग्राहकों को और ज़्यादा कॉन्फ़िडेन्स में लेने से स्थिति इतना विकराल रूप धारण नहीं करेगी. दूसरी तरफ़ आप-हम जैसे रिटेल इंवेस्टर्स को भी संयम रखना होगा- This too shall pass.
# मुझे क्या करना चाहिए, अगर-
# मेरे इन 6 फंड्स में पैसे हैं-
डेट या डिबेंचर उतनी आसानी से लिक्विडिफ़ाई नहीं किए जा सकते जितनी आसानी से इक्विटी या एफ़डी. मतलब उनको कैश में बदलना इतना आसान नहीं. होता तो अव्वल तो ये इश्यू आता ही नहीं. तो फ्रैंकलिन के पास पैसे धीरे-धीरे आएंगे. और धीरे-धीरे ही आपको मिलेंगे. इक्विटी से उलट डिबेंचर की मेच्योरिटी डेट्स होती हैं. कुछ की बेशक शॉर्ट टर्म (91 दिन या कम) हो लेकिन कुछ की सालों बाद की. फिर उनके साथ कुछ कूपन या आसान भाषा में कहें तो ब्याज किश्तें वग़ैरह होती हैं, जो अपने तय समय पर ही आती हैं.
हालांकि संजय सप्रे ने आश्वासन दिया है कि हम पूरे पैसे आने का इंतज़ार नहीं करेंगे, और जैसे जैसे हमारे एसेट, लिक्विडिफ़ाई होते रहेंगे, इंवेस्टर्स को किश्तों में पैसे देते रहेंगे.
तो आपको क्या करना चाहिए? इंतज़ार. अपने पैसे वापस आने का. साथ ही फ्रैंकलिन टेंपलटन के मेल्स पर नज़र रखिए. या किसी भी कम्यूनिकेशन पर. कोई संगी साथी या आपके फ़ाइनेंस को देखने वाला विशेषज्ञ है तो उसे वो सब कम्यूनिकेशन पढ़वाएं. चेतन बने रहें. सजग बने रहें. यही आप कर सकते हैं. यही करिए.
# मेरे इन 6 फंड्स में तो नहीं लेकिन फ्रैंकलिन के बाक़ी फंड्स में पैसे हैं-
देखिए अगर टाटा की नैनो फेल हो गई थी, तो इसका मतलब ये नहीं कि उनकी जगुआर भी बुरी होगी. क्यूंकि नैनो का फ़ेलियर, कंपनी का नहीं कॉन्सेप्ट का फ़ेलियर है. तो ये ‘डेट फंड’ का फ़ेलियर है, न कि फ्रैंकलिन का. तो इस लॉजिक को ध्यान में रखकर निर्णय लें.
# मेरे न इन फंड्स में न फ्रैंकलिन में पैसे हैं लेकिन डेट म्यूचल फंड में पैसे हैं-
जब कोई दवाई रिकॉल की जाती है, या बैन की जाती है तो हम सारी दवाइयां खाना बेशक बंद नहीं करते, लेकिन फिर भी इतनी हिदायत तो दी ही जाती है कि देख लें किस सॉल्ट के चलते वो दवाई बैन या रिकॉल हुई है. और मेक श्योर करें कि जो दवाइयां आप ले रहे हैं उसमें वो सॉल्ट न हो. ‘दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है.’ आप छांछ न भी फूंक फूंक कर पिएं लेकिन अगली बार गर्म दूध के लिए तो विजिलेंट ही रहें.
इस ऊपर वाले पैरा का मतलब ये कि आप अपने सारे ‘डेट म्यूचल फंड’ का रिव्यू करें. देखें ये कहां-कहां पैसे इन्वेस्ट किए हुए हैं. क्या क्रिसिल रेटिंग हैं. आपको इतना सब समझ नहीं आ रहा तो किसी विशेषज्ञ से राय लें. सारी चीज़ें सेबी के डंडे के चलते पारदर्शी हैं. आसानी से समझ में आने वालीं.
# मेरे कहीं पर पैसे नहीं हैं-
अब क्या ही कहें. न ऊधो का लेना न माधो का देना. निश्चिंत रहें. हालांकि एक राय है कि थोड़ा बहुत इन्वेस्ट करना शुरू कर दें. अब गारंटी तो कोई नहीं, लेकिन फिर भी रिस्क, कैल्क्युलेटेड तो है. नुक़सान होगा तो सबका होगा. तो लॉकडाउन के चलते ‘इन डोरी’ बने हुए लोगों के लिए ‘राहत’ की बात एक ये है कि-
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में,
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है.