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पंजाब के एक हार्डकोर ड्रग-एडिक्ट और गैंगस्टर का Interview

मिंटू गुरुसरिया की कहानी ऐसी है कि पढ़ ली तो फिल्ममेकर्स फिल्म बनाने को मचलेंगे. पंजाब, नशे और अपराध की दुनिया की सबसे authentic स्टोरी.

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रजत सैन
21 जून 2016 (Updated: 21 जून 2017, 07:22 IST)
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मिंटू गुरुसरिया. पंजाब के गुरुसर जोधा पिंड, जिला मुक्तसर में रहते हैं. पेशे से जर्नलिस्ट. दिखने में हट्टे-कट्टे, गबरू. 37 की उम्र में ग्रेजुएशन कर रहे हैं. आगे जाकर एल.एल.बी और मास कम्युनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन करना चाहते हैं. दिन-भर अखबारों के लिए लिखते हैं और शाम को इनकी आवाज़ रेडियो से टोरंटो, कैनेडा तक पहुंचती है. पूरे घर की जिम्मेदारी उठाते हैं. आस-पड़ोस वाले इनकी मिसाल जगह-जगह देते हैं. इतने बिज़ी रहते हैं कि तीन दिन लगातार फोन करने के बाद आज जाकर बात हो पाई. करीब डेढ़ घंटा बात चली और जब फोन रखा तो एक अलग सी संतुष्टि और खुशी थी. लाज़िमी भी थी. क्योंकि ये मिंटू गुरुसरिया जो अब फुल ऑफ लाइफ नज़र आते हैं, 2010 से पहले ऐसे नहीं थे.

अपनी ज़िंदगी के 15-20 साल इन्होंने वो हर नशा किया जो पंजाब में अवेलेबल था. और बात सिर्फ नशे की नहीं. मिंटू उस वक्त एक खौफ का नाम भी था. एक गैंगस्टर जिस पर करीब 12 केस दर्ज हुए. जिसमें attempt to murder और डकैती के मामले भी शामिल थे. लेकिन ऐसा क्या हुआ साल 2010 में जिसने मिंटू की जिंदगी हमेशा के लिए बदल कर रख दी. क्या-क्या किया मिंटू ने उन 17 सालों में? कैसे हुई इस सब की शुरुआत? और कैसे एक गैंग्स्टर लेखक में बदल गया?

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ऐसे बहुत सवालों के जवाब यहां मिलेंगे. ऐसे वक्त में जब पंजाब में ड्रग्स की समस्या पर फिल्म चुकी है, उड़ता पंजाब. वहां की राजनीति अभी इसी चिट्टे के कारण गरम है. सब ड्रग्स पर बात कर रहे हैं लेकिन कहीं कोई authentic स्टोरी नहीं है. ये वो सच्ची स्टोरी है जो नशे, अपराध, सामाजिक संरचना, इसमें फंसे लोगों, उनके बाहर निकलने की हसरतों की सच्ची बात बताती है. हमने मिंटू से बात की और वो बताते चले गए. पढ़ें: 

मेरे दादा बंटवारे के बाद पंजाब (भारत) आकर बस गए. हमारी वहां (पाकिस्तानी पंजाब) बहुत ज़मीन थी. यहां आए तो बदले में एक छोटा सा टुकड़ा हिस्से में आया. पैसों के लिए दादा ने यहां पर शराब बेचनी शुरू की. पाकिस्तान में उनका ऐसा सर्कल था जो नशों का ही काम करते थे. बॉर्डर पर तार लगी नहीं थी तो दादा फाज़िल्का, फिरोज़पुर या अबोहर से होते हुए पाकिस्तान चले जाते. कपड़ा और इलायची के बदले वहां से अफीम ले आते. अफीम वहां से गट्टों में भर कर लाते थे. मेरे चाचा, ताया और बाप भी इसी काम में लग गए. बॉर्डर पर तार लगने के बाद भी पाकिस्तान जाने में कोई दिक्कत नहीं आई. दादा तो मेरे साथ के दोस्तों को भी कई बार पाकिस्तान घुमाकर लाए. वहां से इतनी अफीम आती थी कि हमारे यहां पूरे घर में खुल्ली पड़ी रहती थी. मटके भरे पड़े होते थे. हम आगे भी सप्लाई करते थे. तो एक तरह से नशा तो मुझे विरासत में ही मिला


मैं जब नर्सरी क्लास में पड़ता था. एक बार ऑटो से स्कूल जा रहा था. रास्ते में भूख लगी तो टिफिन खोल लिया. टिफिन में पाउडर पड़ा था. मैं रोने लगा कि मां ने खाने की जगह कुछ और दे दिया. मुझे नहीं पता था कि वो क्या है. मुझे रोता देख सब मेरी तरफ देखने लगे और ताया के लड़के ने मेरा मुंह बंद करवा दिया. उसे पता था कि उसमें अफीम है. ऑटो ड्राइवर मुझसे टिफिन लेकर भाग गया

नशा लेने की शुरुआत कक्षा 6 से हो गई थी. मैं तब कबड्डी खेला करता था. उसी टाइम साथ वाले कई बार बीड़ी पिला दिया करते थे. जब मिडिल स्कूल से हाई स्कूल पहुंचा तो बीड़ी की जगह सिगरेट ने ले ली. फिर मैं +2 करने के लिए शहर (मलोट) चला गया. सन् 1993 में जब आतंकवाद का दौर पंजाब से खत्म हो चुका था, उसी समय पंजाब पर नशे का वार कर दिया गया. माहौल एक दम खुला. उससे पहले तो ज़िंदगी वहां थमी सी हुई थी. लेकिन जैसे ही वो दौर बदला, एक आज़ादी सी मिली. सब एंजॉयमेंट मोड में थे तो हमने उस दौर में फैंसीडिल और कोरेक्स पीना शुरू किया. इसी समय पंजाब में मैडिकल नशा होने लगा. मैं तो कई ऐसे अफसरों(सरकारी) को भी जानता हूं, जिन्होंने अपनी नौकरी छोड़ मैडिकल नशा बेचना शुरु कर दिया.

मेरे स्कूल में भी कल्चर बिलकुल डिफरेंट था. एक ही सीनियर सेकेंड्री स्कूल था पूरे शहर में. वहां आस-पास के 100 गांवों के बच्चे पढ़ने आया करते थे. कुछ लड़के वहां गुंडागर्दी करते थे और उस वक्त मैं बहुत शरीफ था. वो मुझे पीटते. पैसे और जैकेट छीन लेते. सभी के सामने ज़लील करते थे. मैंने अपने आप को बड़ी हीन भावना से देखा. मैंने महसूस किया कि ऐसे नहीं रहा जा सकता, तो इस शहर जैसा ही बनना पड़ेगा.

मेरी कद काठी अच्छी था. साथ वालों से तगड़ा दिखता था. मैंने सोचा कि इस बॉडी को यूज़ करते हैं. फिर मुझे कोई एक गाली देता तो मैं उसे बदले में 10 गालियां निकालता. कोई हाथ लगाता, तो मैं उसके धर देता. नशा और बदमाशी पैरलल चलने लगी. हम कबड्डी वाले लड़कों का एक ग्रुप सा बनने लगा. हम मैच जीतते तो इनाम वाले पैसों से नशे का सामान खरीदते. फिर हमने स्मैक लेना शुरु कर दिया. उस टाइम तक मैं प्रॉक्यीवन, डेक्सावान, सोडीनिल, पारवन सपास कैप्सूल और लोमोटिल गोलियों का सेवन कर चुका था. इन सब के चक्कर में पढ़ाई और गेम दोनों छूट गए और मैं फंसता चला गया. मेरे आधे साथी घर को लौट गए, कुछ की शादी हो गई. लेकिन मैं वहीं रह गया. मैं एक ग्रुप के साथ जुड़ गया और अपना एक गैंग बना लिया. ये 1995-96 की बात है. 


तकरीबन 150-200 लड़कों का गैंग था हमारा. दिन-रात नशा करते और पैसे लेकर लोगों को पीटते. लोग हमारे पास कब्ज़े छुड़वाने आने लगे. अब मैंने यही रास्ता चुन लिया था. दिन-रात नशा और गुंडागर्दी करते. हमारे घर में गरीबी और तंगहाली को देखता था तो लगता था कि यही ठीक है. शहर में रहेंगे आराम से. ऐश करेंगे. जब तक हैं डंडे के दम पे जिएंगे, खा-पी के जिएंगे. मरना तो एक दिन है ही. इस से अच्छा खा-पी के मरो. शादी करेंगे घर जाएंगे.

दृष्टिकोण खत्म हो जाता है जब इंसान ज़्यादा नशा लेने लगता है. मेरे साथ भी वही हुआ. तब लगता था कि मुझे कोई प्यार नहीं करता, मुझसे कोई भी आदमी हमदर्दी नहीं रखता. तो मैं क्यों किसी से रिश्ता रखूं. इसके अलावा मैं कुछ सोचता ही नहीं था. मेरा फोकस सिर्फ नशे और पैसे पर था. मेरी दुनिया ड्रग्स थी क्योंकि मैं  मॉर्फिन इंजेक्शन लेने लगा था. ये बहुत घातक इंजेक्शन थे और हम बड़ी तादाद में लेने लगे. 2-4 साल तो मार-पिटाई से पैसा खूब आया लेकिन जैसे-जैसे हमने वो इंजेक्शन लेने शुरू कर दिए तो ऐसा दौर आया कि हम सब बिखरते चले गए. पैसे खत्म होने लगे थे. हमारा ग्रुप टूट गया. लेकिन मैंने इंजेक्शन लेने नहीं छोड़े. दिन में 20-20 ले जाता था.


driver जब मिंटू ने क्लीनर का काम किया

दरअसल ये(ग्रुप वाले) पॉलीटेक्नीक कॉलेज में पढ़ते थे. सब अलग-अलग जगह से आए थे. कुछ विदेश से भी थे. और ये शहर (मलोट) एक जंगल था, जिसमें रहने के लिए किसी किसी जानवर से दोस्ती तो करनी पड़ती. तो उन सब के लिए वो टाइम काटने वाली चीज़ थी. वो अपना टाइम काट के चले गए और उनके जाते ही हमारा अक्स बहुत ज़्यादा खराब हो गया. कोई नया बंदा हमारे साथ जुड़ने को तो, क्या खड़ने (खड़े होने) को भी तैयार नहीं था. और जब मैं ज़्यादा नशा करने लगा तो मेरा इतना ध्यान ग्रुपिज़म पर नहीं रहा. ज़िन्दगी को सिर्फ नशे से मतलब था.


मैं 1998 में डीएवी कॉलेज, मलोट में पढ़ रहा था. फर्स्ट ईयर में हम लोग दारू का धंधा करते थे. एक बार दोस्त के फीस के पैसों से शराब लेकर जा रहे थे, तभी पुलिस ने पकड़ लिया. सारे पैसे वहां चले गए तो दोस्त बड़ा दुखी था. वो बोला कि मेरी पढ़ाई बंद हो जाएगी. मैंने कहा कि मेरे रहते तो ऐसा नहीं हो सकता. पैसों के लिए हमने डकैती डालने की सोची. थोड़ी दूर पर एक पेट्रोल पंप था. उसके कैशियर पर हमने हमला कर दिया और पैसे लूट लिए. लेकिन हम लोग पकड़े गए. मुझ पर डकैती का केस पड़ गया. वहां से मेरी पढ़ाई भी बंद हो गई. 4-5 महीने जेल में बंद रहा. मेरे फादर ने जमानत करवाई और मैं गांव में रहने लगा. तब मुझे कई बार लगता था कि अब बहुत हुआ, नशा छोड़ते हैं. लेकिन तब मुझे हमारे यहां की पुलिस बहुत तंग करने लगी. जैसे सिरसा में कोई डाका पड़ गया है तो मुझे घर से उठा के ले गए. राजस्थान में कोई डाका पड़ गया तो मुझे उठा के ले गए.

एक्चुअली, हमारा गांव हरियाणा और राजस्थान के बॉर्डर पर है तो किसी भी राज्य में डकैती होती तो वो मुझे उठा कर ले जाते. 4-5 दिन वहीं बैठाए रखते. मैं बुरी तरह तंग गया था. मैं सोच कर आया था कि गांव में रह कर खेती करूंगा लेकिन पुलिस मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी. इसलिए मैं फरार हो गया और अपनी बेल जम्प कर गया. ट्रकों पर घूमता रहा. बसों में सफर किया. बॉम्बे, आंध्र प्रदेश हर जगह गया. इसी बीच कुछ एक दोस्तों के पास भी गया. लेकिन भगौड़े और नशेड़ी को कौन रोटी देता है

मैंने क्लीनर का काम शुरू किया. ट्रक ड्राइवरों के साथ जगह-जगह जाता. बदले में वो मुझे अफीम दे देते थे. मुझे पैसों की जगह नशा मिलता था. 2 साल तक सड़कों पर ही चला. और ये बहुत बुरा दौर था. जेब में पैसे नहीं होते थे. ट्रक साफ करके 10-10 रुपए इक्ट्ठा करता था. पीछे से पुलिस मेरे घर वालों को तंग करने लगी. मुझे पता लगा तो मैं वापस गया और घर वालों को बोला कि मुझे पुलिस के हवाले कर दो. चार-पांच महीने हवालात में रहा. और जब बाहर निकला तो मैं समझ चुका था कि अब यहां रहना पॉसिबल नहीं है. तब तक मुझ पर 3-4 केस हो चुके थे

घर वाले परेशान थे. मुझसे भी और पुलिस वालों से भी. लेकिन इसी बीच मेरे एक केस का फैसला गया. जिसमें मेरे बाबा का नाम भी घसीट दिया गया. दरअसल कुछ साल पहले मोहल्ले में हमारा झगड़ा हो गया था. जिसके बाद मेरे और बाबा पर अटेम्पट टू मर्डर का चार्ज लग गया. 2003 में फैसला आया और हमें 5 साल की सज़ा हो गई. मेरे पिता भी नशा किया करते थे. तो जेल में मैं हम दोनों के लिए नशे का जुगाड़ करता था.

बाहर 5 ग्राम स्मैक का रेट 1500 रुपए. था. हम पुलिस वालों को 2000 रुपए देते तो वो आराम से ला देते थे. मैं अपने फादर के लिए अफीम का भी अरेंजमेंट करता. तब मैं लुधियाना जेल में था. उसी टाइम मेरा डकैती केस का वारंट लग गया. तो जेल ऑफिशियल मुझे बोला कि फिरोज़पुर जेल शिफ्ट होना पड़ेगा. हम आपको इतनी दूर से पेशी पर नहीं ले जा सकते. मैंने बड़ी रिक्वेस्ट की कि मुझे मेरे फादर के साथ रहने दो वरना वो मर जाएगा. लेकिन वो नहीं माने. और मेरे जाने के दो दिन बाद ही उनकी डेथ हो गई.

पिता की मौत नशे से नहीं हुई. नशा तो उन्हें मिलता रहता था. जाने से पहले मैं पूरा जुगाड़ करके गया था. लेकिन उन्हें लिवर प्रॉब्लम थी. मेरे जाने के बाद वो अकेले नहीं रह सके. उनकी देखभाल के लिए भी कोई नहीं था. इस वजह से उनकी डेथ हो गईकिसी ने मुझे खबर तक नहीं दी. अखबार से पता चला. मैने बोला कि मुझे रस्में अदा करने के लिए बाहर जाने दिया जाए. पर वो माने नहीं. इसके बाद से मुझे पुलिस से नफरत सी हो गई. लगने लगा कि ये लोग तो हमें जानवर समझते हैं. मैंने कहा भी था कि मेरा बाप मर जाएगा, लेकिन ये माने ही नहीं. सज़ा काट के मैं बाहर आया तो मुझे लगने लगा कि मेरी वजह से मेरे बाप की मौत हो गई, इसलिए मुझे भी जल्दी से जल्दी खुद को खत्म करना है. और खत्म करने से पहले मुझे ज़्यादा से ज़्यादा काम निपटाने हैं.

motaमेरी जिस किसी के साथ रंजिशें या बदले थे वो सब मुझे खत्म करने थे. एक बार फिर से मेरा गैंग बनने लगा. लड़के मुझसे आकर जुड़ने लगे. अब हम पुलिस पर अटैक करते थे. अपनी खुंदक निकालते थे. SHO, DSP के मुंह पर गालियां तो निकाला करते ही थे, कई बार मैंने थानेदारों को पीटा भी. मुझ पर केस भी हुए. लेकिन अब बिल्कुल आमने-सामने हो गया था. 3 साल तक. बड़े-बड़े लोगों से हमारी जान-पहचान हो गई. हमने स्मग्लिंग भी शुरू कर दी. खूब पैसा आने लगा. लेकिन कई बार ख्याल आता था कि ये सब छोड़ दूं. लेकिन 17 साल से करता रहा था नशे. इनके बिना जी पाना नामुमकिन लगता था. तब चिट्टा (हेरोइन) नया-नया आया था. वो भी लेने लगा. स्मैक और चिट्टा रोज़ का काम हो गया. हरियाणा जाकर स्मैक ले के आता. लेकिन एक बार साल 2010 में जब डबवाली मंडी (हरियाणा) से सामान(नशा) लेकर रहा था तो रास्ते में मेरा एक्सीडेंट हो गया. मैं बुलेट पर था और सामने से रही जीप मेरे ऊपर चढ़ गई. मेरी टांग कट गई.

बस थोड़ी सी जुड़ी हुई थी. 90% अलग हो चुकी थी. फिर मुझे हॉस्पिटल लेकर गए. उस दिन मैंने नशा नहीं किया हुआ था. बिल्कुल भी नहीं. कभी-कभी हंसी आती है कि जब हर वक्त टाइट (नशे में) रहता था, तब कुछ ऐसा हुआ नहीं और अब हो गयाचलो, फिर मेरा ऑपरेशन हुआ. दो दिन बाद छोटे भाई की शादी थी. तो वो शादी भी मैंने चारपाई पर देखी. यानी पिता को मैं संसार से विदा भी नहीं कर सका और अपने भाई की शादी भी नहीं देख सका. कैसी किस्मत थी मेरी. टांग की वजह से मैं डेढ़ साल बेड पर रहा. यही वो टाइम था जब मैंने अपने बारे में थोड़ा सोचना शुरू किया. अपने आप से बात करनी शुरू की. जो इससे पहले कभी नहीं किया. कभी आंकलन नहीं किया कि क्या खोया क्या पाया? वो शायद इसलिए हो पाया क्योंकि मैं इतनी देर कभी एक जगह टिक कर नहीं बैठा. इतनी देर तो मैं कभी जेल में भी नहीं रहा.


मैं सोचता थी कि कौन जिम्मेवार है मुझे हीरो से ज़ीरो बनाने में? तो सोच-सोच कर मैं इस नतीजे पर आया कि ये मेरा ही बुना हुआ जाल है जिसमें मैं बुरी तरह फंस चुका हूं. फिर सोचा कि अगर अपनी तबाही की इबारत मैंने खुद लिखी है तो इसे अब मैं ही बदलूंगा. मैंने फैसला कर लिया था कि अब मुझे ये सब छोड़ देना है. इससे पहले मैं धर्म-कर्म को मानता नहीं था लेकिन टाइम पास के लिए गुटखा (गुरुबाणी की पोथियां) पढ़ना शुरू किया. मैं बिस्तर पर बैठा-बैठा मेडीटेशन करने लगा. डॉक्टर कह चुका था कि टांग को ठीक करना अब आपकी विल पावर के ऊपर है. पहले तो ज़ख्म भरेगा और फिर आपकी टांग आपका वज़न उठा पाती है या नहीं, ये देखना होगा.

मैं सोचने लगता था कि एक टाइम का इतना बड़ा कबड्डी खिलाड़ी, बिना लात के कैसे लगेगा. टूटी टांग आंखों के सामने पड़ी थी तो समझ आया कि मैंने अपनी ज़िंदगी का क्या कर लिया है. डॉक्टर ने हॉस्पिटल से छुट्टी कर दी और बोला कि आपकी इच्छा शक्ति ही इसे ठीक कर सकती है. मैं घर में मंजे पर पड़ा रहता. दोस्त रोज़ आकर टांग साफ करता और पट्टी करता. ऐसा डेढ़ साल तक चलता रहा.

पहले ड्रग्स के साथ-साथ मैं कई चीज़े लेता था. सिगरेट, बीड़ी, दारू, मेडिकल नशा, ये सब चीज़ें एक साथ चल रही थी. मैं घर आया तो मैंने एक-एक करके ये चीज़ें छोड़नी शुरू कीं. मैंने खुद को समझाया कि ज़िन्दगी अभी खत्म नहीं हुई. ज़िन्दगी तो यहां से शुरू होगी. ज़द्दोज़हद तो अब शुरू होगी. जीना तो अब है, पीछे की ज़िंदगी तो मिट्टी थी. मैंने सोचा कि अगर मैं अब यहां से सरवाइव कर जाता हूं तो जो समाज मेरा बॉयकॉट करता है, मुझसे नफरत करता है, उसे मैं हरा सकता हूं. मैंने अपने आप में एक लड़ाई शुरू कर दी कि मुझे पूरी दुनिया से लड़ना है, हालांकि एक टांग मेरी टूटी हुई थी. ठान लिया था कि लोगों को हराऊंगा ज़रूर. सबसे पहले सिगरेट पीनी छोड़ी फिर तम्बाकू, स्मैक और दारू.

हमारे यहां नशा छोड़ने के लिए एक दवाई होती है वोफरिनौफिन, मैंने वो लेनी शुरू की. करीब एक साल तक मैंने वो ली. और फिर डेढ़ साल के बाद मैंने चलना शुरू किया. मैं लंगड़ा के चलता था. वज़न ज़्यादा था तो ज़ख्म फट जाता था. घुटने से लेकर पांव तक ज़ख्म ही ज़ख्म था. लेकिन मैंने हार नहीं मानी. सोच रखा था कि चलना नहीं भागना है और इस ज़माने को पीछे छोड़ना है. लगा कि नशा छोड़ भी दूंगा तो जीवन में करूंगा क्या. मेरे पास तो पैसा था और क्वालिफिकेशन. उस समय जो एक अच्छी बात हुई वो ये थी कि मैंने नॉवेल पढ़ने शुरू किए. लेकिन एक किताब थी जिसने मेरी ज़िंदगी बदल कर रख दी. वो थी भगत पूर्ण सिंह की ऑटोबायोग्रफी. मुझे बहुत प्रेरणा मिली. लगा कि जब वो पाकिस्तान से आए थे तो उनके पास कुछ नहीं था, और आज उन्हें पूरी दुनिया जानती है. मैं अखबार और मैग्ज़ीन पढ़ने लगा. सोच लिया था कि अब कुछ तो करना है.

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जानकारी जुटानी शुरू कर दी. मैं नौकरी की तालाश में घूमा. गोडाउन में चौकीदार की नौकरी शुरू की. सोचा था 5-6 हज़ार रुपए मिल जाएंगे लेकिन उन्होंने कहा कि हम आप जैसे आदमी को नौकरी नहीं दे सकते. इसी दौरान साल 2011 में मैंने फेसबुक यूज़ करना शुरू कर दिया. यही मेरी ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट था. अमेरिका के -पेपक का विज्ञापन देखा वहां. मैंने उन्हें कॉन्टेक्ट किया तो वे पूछने लगे कि आपके पास लैपटॉप और कैमरा है. मेरे पास तो खाने के लिए पैसे नहीं थे, ये सब कहां से लाता. वो बोले कि नौकरी के लिए ये तो ज़रूरी है. मेरा एक ही रिश्तेदार हमेशा मेरे साथ खड़ा रहा. वो थे मेरे मामा. मैंने उनसे कहा तो उन्होंने पैसों का जुगाड़ कर दिया. लैपटॉप मिला तो नौकरी भी मिल गई.

यहां मैंने खबर लिखने का ढंग सीखा. मैं किसी भी चीज़ को एडेप्ट करने में बचपन से अच्छा था. उन्होंने जैसा बोला मैंने उससे दस गुना ज़्यादा अच्छा काम कर के दिखाया. फिर मुझे लगा कि प्रिंट मीडिया जाना चाहिए. कुछ नाम हो जाएगा. लोग मुझे मेरे काम से जानने लगेंगे. कई जगह नौकरी के लिए अप्लाई किया लेकिन कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला. पर मुझे पता था कि देर-सवेर नौकरी तो मिल ही जाएगी. मैं खबरें बेबाक तरीके से लिखता था. बिना किसी से डरे. मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के हलके में ऐसे बहुत कम जर्नलिस्ट थे. उनके खिलाफ लिखने की ज़ुर्रत कोई करता नहीं था. तो मैंने ये काम स्टार्ट किया और मुझे सफलता मिली. फेसबुक पर व्यंग्य लिखता जिसे लोगों खूब पसंद करते. लाइक और कमेंट्स आते. अब लोग मुझे जानने लगे थे. फॉलोवर हज़ारों में हो गए थे.

एक दिन मैंने स्टेटस अपडेट किया कि आप सब मेरे काम को एप्रीशिएट तो खूब करते हैं लेकिन कोई मुझे नौकरी नहीं देता. तो इस पोस्ट के बाद मुझे कई लोगों के मैसेज आए. एक मैसेज रेडियो स्टेशन से भी आया. मैं उनके पास गया तो उन्होंने मुझे न्यूज़ एनालिस्ट के तौर पर नौकरी दे दी. एक चीज़ और अच्छी हुई फेसबुक से. एक लड़की मिली वहां जिससे मेरी बात इतनी बढ़ी कि साल 2013 में हमने शादी कर ली. राइट-अप्स और रेडियो से जो पैसा रहा है उससे घर चलाता हूं. आगे जाकर एलएलबी करना चाहता हूं ताकि मैं उन लोगों की पैरवी कर सकूं जिन्हें मेरी तरह पुलिस जबरन परेशान करती है. साथ ही बॉडी बिल्डिंग भी दोबारा से शुरू कर दी है ताकि उन लड़कों को इंस्पायर कर सकूं जो नशे में डूब चुके हैं.

पिछले साल एक बुक भी लिखी थी जिसकी 4000 कॉपी बिक चुकी हैं. अच्छा लगता. ज़िन्दगी जीने की चाहत बढ़ गई है. और भी ज़्यादा अच्छा लगता है जब सोचता हूं कि मेरे बेटे और भतीजे को विरासत में वो नहीं मिला जिसके हम विक्टिम रहे. इस बात की खुशी भी होती है कि आस-पड़ोस में अगर कोई बच्चा बिगड़ने लगता है तो मां-बाप उसका कान पकड़कर मेरे पास ले आते हैं. और ये वही लोग हैं जो कुछ साल पहले तक अपने बच्चों के मेरे पास भटकने भी नहीं देते थे. मलाल है तो सिर्फ एक बात का. मेरे चार दर्जन दोस्त(बेहद करीबी) नशे की वजह से मर गए. काश मैं जल्दी ठीक हो जाता और उन्हें उस(नशे) दलदल से बाहर ला पाता.


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मिंटू गुरुसरिया की बुक 'डाकुआं दा मुंडा' का कवर

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