जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहि अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
कबीर की कही ये बातें फ़िल्म में सुनाई पड़ती हैं नीरज आर्या की आवाज़ में. और ये बातें फ़िल्म मर्म और उसकी समरी को लपेटे चलती हैं.
हिंदी मीडियम. इरफ़ान और सबा कामिर की फ़िल्म जिसमें कुछ वक़्त के लिए दीपक डोबरियाल भी दिखते हैं. दीपक फ़िल्म में भले ही कम वक़्त के लिए मौजूद हों लेकिन उनका रोल कहानी को ध्यान में रखते हुए बहुत बड़ा है.
एक चांदनी चौक में रहने वाली फ़ैमिली. राज एक बिज़नेसमैन है जिसका कपड़ों का बिज़नेसमैन है. बहुत बड़ा बिज़नेस. इतना बड़ा कि देश के सभी डिज़ाइनरों की फर्स्ट-कॉपी वाला सारा माल इसके पास मौजूद रहता है और इसीलिए दिल्ली की शूं-शां वाली आंटियां राज की फैन हैं. राज का बिज़नेस धड़ल्ले से चल रहा है. उसकी पत्नी मीता थोड़ी अंग्रेजी मीडियम है. जबकि राज पूरी तरह से देसी. गजब वाला देसी. जिसे अपनी बेटी के साथ ‘तारे गिन-गिन…” गाने पर नाचना पसंद है. नाचते हुए वो अपना कोट निकालकर फेंक देता है. ज़मीन पर लोट जाता है. वहीं उसकी पत्नी एकदम सूफियाना. उसे चिंता होती है अपनी बेटी की. ऐसा नहीं है कि राज को चिंता नहीं है. मीता को चिंता है बेटी की पढ़ाई की. उसकी अंग्रेजी की. अगर वो अंग्रेजी नहीं बोल पाई तो समाज उसे कैसे एक्सेप्ट करेगा.
राज और मीता की बेटी के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने की कहानी. उसके बाकी बच्चों के बराबर मॉडर्न बनने की कहानी. साथ ही मीता और राज के बाकी अमीर दिल्लीवालों की बराबरी करने के दौरान होती जद्दोजहद की कहानी है हिंदी मीडियम.
शादी के साइड इफ़ेक्ट्स और प्यार के साइड इफ़ेक्ट्स बनाने वाले साकेत चौधरी ने एक काम की और कमाल की फ़िल्म बनाई है. काम की इसलिए कि इसे देखने के बाद काफी कुछ आपके साथ घर जाता है. और कमाल की इसलिए क्योंकि पिछले काफी दिनों में आ रहे झोला भर के कचरे के बीच बहुत अच्छा सा कुछ देखने को मिला है जिसे आप व्हाट्सैप पर लोगों को देखने को कह सकते हैं.
इरफ़ान ने भले ही अपने नाम से खान हटा दिया हो लेकिन वो अब भी खान हैं. ऐक्टिंग की खान. मुझे इरफ़ान को स्क्रीन पर देखते हुए हमेशा एक ख़याल आता है कि इस आदमी को पेमेंट क्यूं ही दिया जाता है? ये आदमी ऐक्टिंग तो करता ही नहीं है. सब कुछ कितना नैचुरल रहता है. कितना सहज. कितना एफ़र्टलेस. सब कुछ ऐसा जैसे ये आदमी बचपन से यही सब करता आ रहा हो. वही हाल इस फ़िल्म में भी है. ऐसा लगता है जैसे ये आदमी आया होगा, इसने ऐक्टिंग की होगी और ये चला गया होगा. बस. खतम. इसकी देह पर पसीने का एक कतरा न आया होगा. न दिमाग में कोई प्रेशर.
फ़िल्म में जो बेहद मज़ेदार है वो हैं इसके डायलॉग्स. ये सारी अमितोष नागपाल की कारस्तानी है जो आपको चिपकाए रखती है. आप हंसते रहते हैं. यहां भले ही एक बड़ा सोशल इश्यू है जो एड्रेस किया जा रहा है लेकिन अच्छी बात ये है कि इस दौरान भी जो कुछ कहा-सुना जा रहा है उसकी भाषा बहुत ही अभी की है. वो पौराणिक भाषा में मिलने वाला ज्ञान नहीं है. और इसकी खातिर अमितोष के लिए तालियां पीटी जानी चाहिए.
फ़िल्म में एक मौका है जो आपके अन्दर छप जाता है. राज और मीता आपस में बातें कर रहे थे. और वहां इरफ़ान को ये अहसास होता है कि खुद के मुनाफे के चक्कर में वो किस हद तक गिर चुके हैं और उन्होंने कितनों का हक़ मारा हुआ है. इसी क्रम में बात करते हुए राज अपनी पत्नी मीता से कहता है, “…और हम इतने हरामी हैं कि हमने उस गरीब का हक़ मार लिया.” यहां वो गाली असल में फ़िल्म की ज़रुरत थी. इस गाली को न ही कहीं भी प्रोमो में दिखाया गया और न ही इसका नहीं बेजा इस्तेमाल किया गया. वरना ऐसी बातें आज कल की फिल्मों का ‘यूएसपी’ बन जाती हैं. ज़बरदस्ती की घुसाई गई गाली और उसपे मिला कट फ़िल्म बेचने का साधन बन सकता है. लेकिन वो यहां नहीं हुआ और इसके लिए फ़िल्म को थैंक यू कहा जाना चाहिए.
अंग्रेजी बोलने का प्रेशर, अमीर दिखने का प्रेशर, सोसायटी में एक्सेप्ट किये जाने का प्रेशर, बच्चों के भविष्य का डर. ये सभी कुछ एक मिडल क्लास फैमिली की परेशानी का सबब है. उससे जूझते राजा और मीता बहुत कुछ सिखाते हैं. और ये कोई मॉरल साइंस की बोरिंग क्लास नहीं है बल्कि एक खुशनुमा माहौल में एक मज़ेदार कहानी है. आप बैठे रहेंगे. देखते रहेंगे. मज़े लेते रहेंगे.
फ़िल्म मज़ेदार है. देखी जाए.
फ़िल्म के ‘हीरो’ इरफ़ान से जब हमारे न्यूज़रूम में बात हुई तो उन्होंने क्या कहा, देखते हैं:
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