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कुत्ते वापस आ रहे हैं, रेबीज का नया इलाज जानना जरूरी, मौत नहीं होने देगा

रेबीज़ एक वायरस है जो आमतौर पर कुत्तों के काटने से इंसानों में फैलता है. राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र के नेशनल रेबीज कंट्रोल प्रोग्राम के मुताबिक, 2022 में रेबीज़ से 21 लोगों की मौत हुई. ये आंकड़ा एक साल के अंदर दुगुने से भी ज़्यादा हो गया. 2023 में 50 लोगों की मौत हुई. जबकि 2024 में 54 लोगों की मौत रेबीज से हुई.

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New lab-grown rabies antibodies to stop rabies deaths?
राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र के नेशनल रेबीज कंट्रोल प्रोग्राम के मुताबिक, 2022 में रेबीज़ से 21 लोगों की मौत हुई.
22 अगस्त 2025 (Published: 04:37 PM IST)
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आप डॉग लवर हैं या दूसरी टीम में हैं? ये सवाल हम इसलिए पूछ रहे हैं, क्योंकि 11 अगस्त 2025 के बाद से लोग दो खेमों में बंट गए हैं. दरअसल, 11 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने स्ट्रे डॉग्स को लेकर कुछ निर्देश दिए. जैसे 8 हफ्तों के अंदर दिल्ली-NCR के सभी स्ट्रे डॉग्स को पकड़कर शेल्टर होम भेजा जाए. वहां उनकी नसबंदी, टीकाकरण और देखभाल हो. ये भी कहा कि अगर कोई भी इस काम में रुकावट डालने की कोशिश करता है, तो उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी.

अब जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाया, कुछ लोग इसके विरोध में उतर आए. याचिकाएं डाली गईं. खूब प्रोटेस्ट हुआ. फिर ये मामला 3 जजों की बेंच को सौंप दिया गया. 22 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि नसबंदी, टीकाकरण करने के बाद कुत्तों को वहीं छोड़ा जाएगा जहां से उन्हें उठाया गया था. सिर्फ आक्रामक या संक्रमित कुत्तों को ही शेल्टर होम्स में रखा जाएगा. 6 साल की एक बच्ची की रेबीज़ से मौत के बाद कोर्ट ने ये आदेश दिए थे.

रेबीज़ एक वायरस है जो आमतौर पर कुत्तों के काटने से इंसानों में फैलता है. राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र के नेशनल रेबीज कंट्रोल प्रोग्राम के मुताबिक, 2022 में रेबीज़ से 21 लोगों की मौत हुई. ये आंकड़ा एक साल के अंदर दुगुने से भी ज़्यादा हो गया. 2023 में 50 लोगों की मौत हुई. जबकि 2024 में 54 लोगों की मौत रेबीज से हुई.

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन यानी WHO के मुताबिक, दुनिया में रेबीज से होने वाली 36% मौतें भारत में होती हैं. भारत में रेबीज़ के 99 प्रतिशत मामले डॉग्स के काटने से होते हैं, और 30-60 प्रतिशत मामले, 15 साल से कम उम्र के बच्चों में पाए जाते हैं.

कुल मिलाकर रेबीज़ हमारे देश में एक बड़ी समस्या है. पर अब इससे जुड़ी एक अच्छी ख़बर सुनने को मिली है. ये है लैब-ग्रो़न रेबीज एंटीबॉडीज़. जिससे अब डॉग्स के काटने से रेबीज़ और मौत का रिस्क कम किया जा सकता है. इसके बारे में हमें और जानकारी दी, मणिपाल हॉस्पिटल्स, गुरुग्राम में इंटरनल मेडिसिन डिपार्टमेंट के हेड और कंसल्टेंट, डॉक्टर अमिताभ घोष ने.

Dr. Amitabha Ghosh | Internal Medicine Doctor in Gurgaon | Manipal Hospitals
डॉ. अमिताभ घोष, हेड एंड कंसल्टेंट, इंटरनल मेडिसिन, मणिपाल हॉस्पिटल, गुरुग्राम

डॉक्टर अमिताभ बताते हैं कि डॉग के काटने से रेबीज़ का रिस्क होता है. रेबीज़ से बचाने के लिए एंटी-रेबीज़ वैक्सीन लगवाई जाती है. साथ में, इंट्रा-मस्कुलर इंजेक्शन या रेबीज़ इम्यूनो-ग्लोबुलिन भी दिया जा सकता है.

रेबीज़ इम्यूनोग्लोबुलिन शरीर को रेबीज़ वायरस से बचाने के लिए ज़रूरी एंटीबॉडीज़ देता है. एंटीबॉडीज़ को आसान भाषा में समझें तो वो हथियार, जो बीमारी पैदा करने वाले वायरस या बैक्टीरिया से लड़कर उन्हें खत्म करते हैं. मुख्य रूप से दो तरह के रेबीज़ इम्यूनोग्लोबुलिन होते हैं. पहला, ERIG यानी एक्वीन रेबीज   इम्यूनोग्लोबुलिन. इन्हें घोड़ों से तैयार किया जाता है. दूसरा, HRIG यानी ह्यूमन रेबीज इम्यूनोग्लोबुलिन. इन्हें इंसानों से लिया जाता है. रेबीज़ इम्यूनोग्लोबुलिन के लिए घोड़ों या इंसानों के खून से एंटीबॉडीज़ ली जाती हैं. फिर उन्हें प्रोसेस करके, मरीज़ को इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है. आज के समय में ERIG का इस्तेमाल नहीं किया जाता. सिर्फ HRIG का होता है.

अब दिक्कत ये है कि, ये दोनों बहुत महंगे मिलते हैं. इनकी सप्लाई भी कम है. इसलिए कई लोग समय पर इलाज न मिलने से रेबीज़ की वजह से मर जाते हैं. साथ ही, इनके कई साइड इफेक्ट्स भी देखे गए हैं.

इस दिक्कत का सलूशन हैं लैब-ग्रो़न रेबीज एंटीबॉडीज़. ये एंटीबॉडीज़ सीधे लैब में बनाई जाती हैं. किसी जानवर या इंसान के शरीर से नहीं ली जातीं. इन लैब-ग्रो़न रेबीज एंटीबॉडीज़ को सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया ने 2016 में बनाया था. लेकिन बड़े पैमाने पर हुए इसके क्लीनिकल ट्रायल के नतीजे अब सामने आए हैं.

ये नतीजे 9 अगस्त 2025 को द लांसेट जर्नल में छपे हैं. क्लीनिकल ट्रायल में 2019 से 2022 के बीच 4000 से ज़्यादा लोगों को शामिल किया गया. देखा गया कि लैब-ग्रो़न रेबीज एंटीबॉडीज़, जिनका नाम मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ है, ERIG की तुलना में ज़्यादा असरदार हैं. ये लोगों के लिए ज़्यादा सेफ और सस्ता विकल्प हैं. लैब में बनने की वजह से, इनकी सप्लाई लगातार और बड़े पैमाने पर की जा सकती है. इससे ज़्यादा लोगों को समय पर इलाज मिल सकता है. और उनकी जान बचाई जा सकती है.

उम्मीद की जा रही है कि अब जल्द ही पब्लिक हॉस्पिटल्स में ये लैब-ग्रो़न रेबीज एंटीबॉडीज़ मौजूद होंगी.

(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)

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