The Lallantop
Advertisement

फिल्म रिव्यू लस्ट स्टोरीज़: वासना की 4 कहानियां

टीचर की स्टूडेंट के लिए, पत्नी की पति के दोस्त के लिए, मालिक की नौकरानी के लिए वासना.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
दर्पण
19 जून 2018 (Updated: 19 जून 2018, 12:40 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
लस्ट. यानी हवस. वासना. और इस हिसाब से लस्ट स्टोरीज़ का अर्थ हुआ – हवस की कहानियां.
'लस्ट स्टोरीज़' एक मूवी है, जो नेटफ्लिक्स में रिलीज़ हुई है, और जिसकी खूब चर्चा हो रही है. हम भी इसके बारे में दो चार बातें करेंगे, लेकिन उससे पहले सबसे आवश्यक बात बता दें – ‘लस्ट स्टोरीज़’ में सबसे ज़्यादा लस्ट या हवस अगर कहीं है तो इसके टाइटल में.
कहने का मतलब ये कि आजकल के मानकों के हिसाब से ये फ़िल्म ‘अश्लीलता’ के सबसे नीचे पायदानों में आती है. फ़िल्म में अगर कहीं अश्लीलता है भी तो वो नेपथ्य में. बैकस्टेज में. जो अगर इक्का-दुक्का सीन्स में मुखरित होती भी है तो भी ऐसा होना भी ‘अपरिहार्य’ लगता है. मतलब – आवश्यक. स्क्रिप्ट की मांग.
'लस्ट स्टोरीज़' में जितना लस्ट है उससे ज़्यादा तो आजकल लव स्टोरीज़ में दिखाई दे जाता है.
'लस्ट स्टोरीज़' में जितना लस्ट है उससे ज़्यादा तो आजकल लव स्टोरीज़ में दिखाई दे जाता है.

तो इसलिए ही ‘लस्ट स्टोरीज़’ में सबसे ज़्यादा लस्ट या हवस अगर कहीं है तो इसके टाइटल में. और ये अच्छी बात है. क्यूंकि टाइटल कैची होना ही चाहिए, जिससे कि अधिक से अधिक लोग फ़िल्म तक पहुंचे. इस कारण से, नहीं तो उस कारण से.
इस फ़िल्म को 2013 में आई बॉम्बे टॉकीज़ का सीक्वल भी कहा जा रहा है. ‘बॉम्बे टॉकीज़’ भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर आई थी. और इसका फॉर्मेट अन्य भारतीय मूवीज़ से यूं अलग था कि इसमें कुल चार कहानियां थीं जो एक दूसरे से किसी भी तरह से कनेक्टेड नहीं थीं. चारों कहानियों को अलग-अलग निर्देशकों ने डायरेक्ट किया था – अनुराग कश्यप, दिबाकर बैनर्जी, ज़ोया अख्तर और करण जौहर.
बॉम्बे टॉकीज़ फ़िल्म में अनुराग कश्यप ने जिस भाग को निर्देशित किया था उसका नाम 'मुरब्बा' था.
बॉम्बे टॉकीज़ फ़िल्म में अनुराग कश्यप ने जिस भाग को निर्देशित किया था उसका नाम 'मुरब्बा' था.

‘लस्ट स्टोरीज़’ इसी मायने में ‘बॉम्बे टॉकीज़’ का सीक्वल कही जा रही है क्यूंकि इसमें भी चार अलग-अलग स्टोरीज़ हैं और निर्देशक वही चारों हैं जो ‘बॉम्बे टॉकीज़’ में एक साथ आए थे. इस सबसे बड़ी समानता के अलावा, 'लस्ट स्टोरीज़' ट्रीटमेंट और कहानी या कहानियों के सब्जेक्ट के मामले में ‘बॉम्बे टॉकीज़’ से कोई समानता नहीं रखती.
‘लस्ट स्टोरीज़’ की चारों कहानियां स्त्रियों के इर्द गिर्द घूमती हैं और स्त्री मनोविज्ञान को समझने/समझाने का प्रयास करती हैं.
अगर हम पूरी फ़िल्म की एक साथ समीक्षा करें तो ये चारों निर्देशकों के साथ न्याय नहीं होगा. इसलिए बेहतर होगा कि हम चारों भागों को अलग अलग लें.


# पार्ट - 1 
अनुराग कश्यप वाले भाग में कालिंदी का किरदार निभाने वालीं राधिका आप्टे
अनुराग कश्यप वाले भाग में कालिंदी का किरदार निभाने वालीं राधिका आप्टे.

पहला पार्ट अनुराग कश्यप ने डायरेक्ट किया है. इसमें एक स्टूडेंट और टीचर के बीच के रिश्ते को दिखाया गया है.
टीचर कालिंदी का किरदार राधिका आप्टे ने निभाया है. कालिंदी एक शादीशुदा औरत है जिसका पति उससे उम्र में काफी बड़ा है और दोनों एक डिस्टेंस रिलेशन में हैं. डिस्टेंस रिलेशन मतलब पति कहीं विदेश में जॉब करता है. वहीं स्टूडेंट, तेजस के किरदार में हैं आकाश ठोसर. तेजस और कालिंदी के बीच कैज़ुअल शारीरिक रिश्ते के बाद कालिंदी को डर लगता है कि तेजस कहीं उसके प्रति सीरियस न हो जाए.
लेकिन हालात और इमोशंस से चलते पूरी तरह से नहीं भी तो कमोबेश इसका उल्टा होता हुआ लगता है. और इस पूरे दौरान हम कालिंदी के मोनोलॉग्स से उसके और स्त्री मन के बारे में बहुत कुछ जान पाते हैं.
इस वाले पार्ट की सबसे सशक्त चीज़ है, राधिका आप्टे की एक्टिंग. खासतौर पर वो मोनोलॉग्स जो कालिंदी का किरदार कैमरा के सामने बोलता है. ये मोनोलॉग्स किसी टीवी इंटरव्यू या किसी डॉक्यूमेंट्री सरीखे लगते हैं. कालिंदी का बोलते-बोलते ये भूल जाना कि वो किस बारे में बात कर रही है, या फिर हकलाते हुए या सेल्फ डाउट करते हुए बात करना या तो राधिका का इम्प्रोवाईज़ेशन है या अनुराग का उम्दा डायरेक्शन या दोनों. बहरहाल जो भी हो लेकिन ये ‘कैमरे से डायरेक्टली बात करना’ 'लस्ट स्टोरीज़' के अनुराग कश्यप वाले भाग को रियल्टी के और करीब ले आता है.
लस्ट स्टोरीज़ के एक सीन में आकाश तोमर
लस्ट स्टोरीज़ के एक सीन में आकाश ठोसर.

कालिंदी जब अपने मोनोलॉग में अमृता प्रीतम या पेंग्विनस के बारे में बात करती है तो उसका कन्फ्यूज़न एक आम आदमी का कन्फ्यूज़न लगता है, किसी फ़िल्म में दसियों बार लिया गया और बेहतरीन ढंग से एडिट किया गया रिफाइन्ड रिटेक नहीं.
शुरुआत में जब कालिंदी, तेजस को उसकी घर में रखी किताबों से जज करती है, या जब तेजस के कन्फेशन को रिकॉर्ड करती है या जब ऑफिस गॉसिप को सुनते हुए डरती है तो फ़िल्म वास्तविकता के और करीब आती है. अनुराग कश्यप का पार्ट वो ओपन एंडेड छोड़ देते हैं. लेकिन एंडिंग ओपन एंडेड होते हुए भी सैटिसफाइंग है. ट्रीटमेंट के हिसाब से ये एक ट्रैजिक-कॉमेडी फ़िल्म (फ़िल्म का पार्ट) है. यानी फ़िल्म के किरदार, खासतौर पर मुख्य किरदार अंदर से बहुत दुखी हैं, लेकिन उनके रहते फ़िल्म में कई हास्यास्पद स्थितियां उत्पन्न होती हैं.


# पार्ट - 2 
सुधा (भूमि पेडनेकर), ज़ोया अख्तर वाले पार्ट में
सुधा (भूमि पेडनेकर), ज़ोया अख्तर वाले पार्ट में.

फ़िल्म का दूसरा पार्ट ज़ोया अख्तर द्वारा निर्देशित था.
यह भाग एक कामवाली सुधा (भूमि पेडनेकर) के बारे में बताता है. उसके अपने मालिक (जिसके घर में वो काम करती है) के साथ संबंध है. इस संबंध को लेकर मालिक अजीत (नील भूपलम) बहुत कैजुअल है लेकिन सुधा ‘कभी न पूरे होने वाले सपने’ की तर्ज़ पर इस रिश्ते से एक उम्मीद सी बांध ली है. लेकिन इस वाले पार्ट का सबसे बड़ा सरप्राईज़ ही ये है कि कोई सरप्राईज़ नहीं होता और नौकर, नौकर रहता है, मालिक, मालिक.
इस भाग में कहानी कम और घटनाएं ज़्यादा हैं. घटनाएं भी नहीं क्रियाएं - जैसे चाय बनाना, पोछा लगाना, सेक्स करना. जैसे हर काम बड़ी फुर्सत से किया गया हो. ज़ोया अख्तर वाले भाग की यही विशेषता इसका माइनस पॉइंट भी बन जाती है, क्यूंकि इस सब के चलते ये पार्ट थोड़ा बोरिंग होने लगता है. लेकिन साफ़ लगता है कि ज़ोया ये 'बोरिंग' करने का काम जानबूझ कर कर रही हैं. दरअसल उनका उद्देश्य फ़िल्म को बोरिंग/इंट्रेस्टिंग बनाना था ही नहीं. उनका उद्देश्य किरदारों के मनोविज्ञान को छोटे-छोटे चंक्स में परोसना था. जैसे जब अंत में सुधा मिठाई का टुकड़ा चखती है, या जब अजीत की मां सुधा को खाने की किसी चीज़ का दो की बजाय एक पैकेट देती है, क्यूंकि सुधा एक कामवाली है.
अजीत (नील भूपलम) अपने और सुधा के रिलेशन को बड़े कैजुअली लेता है.
अजीत (नील भूपलम) अपने और सुधा के रिलेशन को बड़े कैजुअली लेता है.

सुधा की दूसरी कामवाली दोस्त का एक फटा हुआ सूट पा जाने पर खुश होना हो या झाड़ू पोछा लगाते हुए अजीत और उसके माता पिता का पैर ऊपर करना, ये कुछ ऐसे सीन हैं जो किसी फ़िल्म के नहीं, आस पास के ही लगते हैं.


# पार्ट - 3
दिबाकर बैनर्जी वाले पार्ट में रीना का किरदार मनीषा कोईराला ने निभाया है.
दिबाकर बैनर्जी वाले पार्ट में रीना का किरदार मनीषा कोईराला ने निभाया है.

फ़िल्म के तीसरे पार्ट के बारे में बात करने से पहले इसके निर्देशक दिबाकर बैनर्जी के बारे में एक बात जो मैंने गौर की वो बताना चाहूंगा. दिबाकर की जितनी भी फ़िल्में मैंने देखी हैं, वो पूरी तरह नेगेटिविटी और अवसादों से भरी हुई होती हैं, लेकिन उनकी एंडिंग बड़ी पॉजिटिव होती हैं. यही चीज़ ‘एलएसडी’ में थी यही ‘शंघाई’ में और यही ‘खोसला का घोंसला’ में भी.
तो यही प्रिज्यूडिस लेकर मैंने फ़िल्म का तीसरा भाग देखा और यकीन मानिए मैं निराश नहीं हुआ. फ़िल्म की कहानी विवाहेतर संबंधों की कहानी है. जिसमें रीना नाम की शादीशुदा औरत अपनी शादी से परेशान है और उसका अपने पति सलमान (संजय कपूर) के ही दोस्त सुधीर (जयदीप अहलावत) से अफ़ेयर चल रहा है. रीना का किरदार मनीषा कोईराला ने निभाया है.
इस वाले पार्ट में एक डर सा दर्शकों के दिमाग में हमेशा पसरा रहता है. महिलाओं को हाई सोसायटी में किस तरह से ट्रीट किया जाता है, उसे बिना लाउड हुए दिबाकर बताने में सफल हो पाए हैं. जब सलमान रीना से कहता है कि उसने रीना को आज़ादी दी है, तो रीना इसका कोई जवाब नहीं देती, लेकिन उसके एक्सप्रेशन दिबाकर वाले पार्ट को एक दूसरे ही लेवल पर ले जाते हैं. मानो रीना अपने मौन में भी कह रही हो – तुम कौन होते हो मुझे आज़ादी देने वाले?
एक्स - मैरेटियल अफेयर्स में एक स्त्री का पॉइंट ऑफ़ व्यू दिखाता है दिबाकर बैनर्जी का भाग.
एक्स - मैरेटियल अफेयर्स में एक स्त्री का पॉइंट ऑफ़ व्यू दिखाता है दिबाकर बैनर्जी वाला भाग.

स्त्री सशक्तिकरण के बारे में बात करना केवल मिडिल क्लास के हिसाब से ही नहीं हाई क्लास के हिसाब भी क्यूं आवश्यक है, फ़िल्म के इस पार्ट से हमें पता चलता है.
मनीषा कोईराला का किरदार जो पूरी फ़िल्म में दो पुरुषों के बीच में दबा हुआ सा लगता है अंत में बड़े सशक्त ढंग से उभर कर आता है. और बाकी दोनों किरदारों को मौन छोड़ जाता है.


# पार्ट - 4 
करण जौहर वाला पार्ट बताता है कि स्त्री के लिए शादी का मतलब केवल बच्चे ही नहीं होता.
करण जौहर वाला पार्ट बताता है कि स्त्री के लिए शादी का मतलब केवल बच्चे ही नहीं होता.

फ़िल्म का चौथा भाग करण जौहर ने निर्देशित किया है.
करण जौहर के कॉमर्शियल सिनेमा को उतना एप्रिसिएशन नहीं मिला है जिसके वो हकदार हैं. ख़ास तौर पर उनकी पिछली फ़िल्म ‘ए दिल है मुश्किल’ में जिस लेयर्ड तरह से प्रेम को दिखाया गया था वो भारत में बनने वाली कम ही रोमांटिक मूवी में दिखता है. लगता है कि करण स्त्री-मनोविज्ञान को अच्छे से जानते तो हैं लेकिन उनका ये हुनर कॉमर्शियल सिनेमा के मसाले के चलते दबकर रह जाता है.
बहरहाल ‘लस्ट स्टोरीज़’ के करण जौहर वाले पार्ट की बात करें तो इसकी कहानी एक गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़की मेघा की कहानी है. मेघा का किरदार कियारा आडवाणी ने निभाया है. मेघा जो अब एक ऑल गर्ल्स स्कूल की ही टीचर है. उसका अपनी उम्र के लड़कों से साथ इंटरेक्टशन न के बराबर रहा है. उसकी एक दोस्त है रेखा (नेहा धूपिया) जो उसी स्कूल में लाइब्रेरियन है और काफी बोल्ड है. मेघा की शादी एक शर्मीले लड़के पारस (विक्की कौशल) से हो जाती है, जो मेघा को प्रेम तो करता है लेकिन उसकी शारीरिक ज़रूरतों के बारे में नहीं जानता, और जानना भी नहीं चाहता. इसी के चलते कुछ हास्यास्पद परिस्थितियों के चलते मेघा और पारस को अलग होना पड़ता है और इस पूरे दौरान मेघा अपनी और अपनी इच्छाओं की खोज करती है. इसमें क्राइम पार्टनर बनती है उसकी सहेली रेखा.
करण जौहर वाले भाग में स्क्रीन शेयर करती हुईं नेहा धूपिया और कायरा आडवाणी
करण जौहर वाले भाग में स्क्रीन शेयर करती हुईं नेहा धूपिया और कायरा आडवाणी

इस पार्ट में हास्य है लेकिन वो अनावश्यक लगता है. एक बार 'एआईबी' के तन्मय भट्ट ने करण जौहर को रोस्ट करते हुए 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' के गीत का रेफरेंस लिया था. उसी रेफरेंस को यहां पर भी यूज़ किया गया है. लेकिन वो भी एक भद्दा जोक ही लगता है.


चार धुरंधर निर्देशक एक साथ आए हैं लेकिन फिर भी फ़िल्म कोई इतनी कमाल नहीं बनी कि आप इसे मिस करें तो आपको अफ़सोस हो. न ही ये इतनी बुरी बनी है कि आप देख लें तो आपको अफ़सोस हो.
लोग कहते हैं कि कला की तुलना नहीं करनी चाहिए. लेकिन ये उनका व्यूपॉइंट है. मैं अगर चारों फिल्मों की तुलना करूं तो एक्टिंग और फ़िल्म मेकिंग के हिसाब से जहां अनुराग कश्यप वाला पार्ट बाज़ी मार ले जाता है वहीं स्टोरी टेलिंग और अपनी बोल्डनेस के हिसाब से करण जौहर वाला. किरदारों और रिश्तों के मनोविज्ञान को ज़ोया अख्तर वाला भाग सबसे अच्छे से दर्शाता है. दिबाकर बेनर्जी वाला भाग ऊपर बताए सभी पैरामीटर्स में सेकेंड आता है और इसलिए ओवरऑल सबसे टॉप पर आ जाता है.
भारत के चार धाकड़ निर्देशक.
भारत के चार धाकड़ निर्देशक.

फ़िल्म कैसी है, ये बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन मेरा मानना है कि ऐसी फ़िल्में लगातार बनते रहनी चाहिए -
# एक तो ये कलापक्ष के हिसाब से भी अभिनव प्रयोग है. जिसमें एक फ़िल्म के समय और मूल्य में हमें चार कहानियां देखने को मिलती हैं.
# दूसरा स्त्री अधिकारों के मामले में सीरियसली या किसी अथॉरिटी के माध्यम से सीरियसली और इंट्रेस्टिंग ढंग से बात करने से जागरूकता पैदा होती है. लॉन्ग टर्म में पूरे समाज में एक बदलाव का चैन रिएक्शन शुरू होता है. और साथ ही ऐसे प्रयोगों से बाकी कलाकारों को भी प्रयोग करने का मोटिवेशन मिलता है.
# तीसरा ऑनलाइन स्ट्रीमिंग ऑडियो-विज़ुअल का भविष्य है. और ये भविष्य बहुत निकट है. इसलिए बड़े निर्देशकों का इन प्लेटफ़ॉर्मस (नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेज़न प्राइम आदि) पर होना दर्शकों, कलाकारों और इन ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स तीनों के लिए ही विन-विन सिचुएशन है.
बाकी, जाकी रही भावना जैसी. आप ट्रेलर देखिए -


सभी चित्र लस्ट स्टोरीज़ के यू ट्यूब ट्रेलर के स्क्रीन शॉट हैं. 



कुछ और लल्लनटॉप फ़िल्म रिव्यूज़:

फिल्म रिव्यू: जुरासिक वर्ल्ड: फॉलेन किंगडम

फिल्म रिव्यू: भावेश जोशी सुपरहीरो

फिल्म रिव्यू: वीरे दी वेडिंग

फिल्म रिव्यू: बायोस्कोपवाला

फिल्म रिव्यूः अंग्रेजी में कहते हैं...



वीडियो देखें:

रेस 3 रिव्यू:

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement