26 अक्टूबर 1947 को राजा हरि सिंह ने इंस्ट्रुमेंट ऑफ़ एक्शेसन पर दस्तख़त किए और काग़ज़ पर कश्मीर भारत से जुड़ गया.
लेकिन फ़ैक्ट ऑफ़ द मैटर ये है कि आज भी पाकिस्तान कश्मीर के एक बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा किए बैठा है. और सिर्फ़ काग़ज़ पर दस्तख़त से मसला सुलझना होता तो कश्मीर में इतना खून खराबा हुआ ही न होता. 26 अक्टूबर की सुबह हरि सिंह की कलम से निकली स्याही सूखी भी नहीं थी और बारामूला की ज़मीन खून से लाल हो चुकी थी. पाकिस्तानी क़बीलाई लड़ाकों का लश्कर बारामूला पर क़ब्ज़ा कर चुका था.
उसी सुबह महाराजा हरि सिंह श्रीनगर से जम्मू के लिए निकल गए. नेहरू ने साफ़ किया था कि अगर कश्मीर के लोगों का मत नहीं होगा तो विलय का कोई मतलब नहीं. शेख़ अब्दुल्ला बारामूला के हालात से वाक़िफ़ थे. उन्होंने जल्दी में नेशनल कॉन्फ़्रेन्स की तरफ़ से एक नोट लिखा और नेहरू को भिजवाया.
राजनीति से आगे
26 सितम्बर की रात तक जितनी राजनीति और कूटनीति होनी थी, हो चुकी थी. आगे का काम सेना का था. वैसे तो 1947-48 के युद्ध को एक लाइन में बताया जा सकता है. भारत की सेना पहुंची, जंग हुई और युद्ध विराम हो गया. लेकिन सेना के जज़्बे और कौशल का परिचय सिर्फ़ इस फुटनोट में निपटाया नहीं जा सकता. लगभग 14 महीने चला ये युद्ध इतने उतार-चढ़ाव से गुजरा कि ज़रा कुछ यहां वहां हुआ होता तो पूरा कश्मीर पाकिस्तान के क़ब्ज़े में जा सकता था. क्या हुआ था 1947-48 की जंग में ज़मीन पर? आइए जानते हैं.

अक्टूबर की एक सुबह 9.30 बजे श्रीनगर के रंगरेट हवाई अड्डे पर कुछ लोग आसमान की ओर नज़र किए हुए हैं. उम्मीद की लौ बुझने को है लेकिन तभी एक डकोटा विमान की आवाज़ सुनाई देती है. ज़मीन पर खड़े लोगों की सांस में कुछ सांस आती है.
ये भारतीय एयरफ़ोर्स का विमान है. लैंडिंग के बजाय विमान आसमान के चक्कर लगाने लगता है. नीचे खड़े लोगों को थोड़ा अचरज होता है कि विमान लैंड क्यों नहीं कर रहा. डकोटा का पायलट कमांडिंग ऑफ़िसर से लैंडिंग की इजाज़त मांगता है. कमांडिंग ऑफ़िसर को PM ऑफ़िस का निर्देश साफ़-साफ़ याद है. ‘अगर श्रीनगर हवाई अड्डे पर दुश्मन का कब्जा हो गया हो तो लैंड नहीं करना है’. कमांडिंग ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय थे. वो पायलट से एक और बार रेकी करने को कहते हैं.
मैदान साफ़ देख प्लेन लैंड होता है. और 1 सिख बटालियन की C कम्पनी के 17 सैनिक ज़मीन पर उतरते हैं. और इस तरह आज ही के दिन यानी 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सैनिक पहली बार कश्मीर में कदम रखते हैं. लेफ़्टिनेंट कर्नल राय को ब्रीफ़ मिला था कि वहाँ उनका सामना सिर्फ़ कुछ छापामारों से होगा. लेकिन लोकल लोगों से बातचीत के बाद उन्हें पता चला कि श्रीनगर शहर की तरफ़ एक पूरी फ़ोर्स बढ़ रही थी.
पाकिस्तान का प्लान
जम्मू कश्मीर स्टेट फ़ोर्स के पास सिर्फ़ 4 ब्रिगेड थी और उनके ज़िम्मे पूरे कश्मीर की सुरक्षा का ज़िम्मा था. स्टेट फ़ोर्स आर्म्स और ऐम्युनिशन के लिए रावलपिंडी पर निर्भर थी. और इनका एकमात्र वायरलेस लिंक भी रावलपिंडी से जुड़ा था. भारतीय सेना जब तक पहुंची, तब तक स्टेट फ़ोर्स की हालत ख़स्ता हो चुकी थी. पाकिस्तान कश्मीर की तैयारी में अगस्त से ही लगा हुआ था.
दबाव बनाने के लिए उन्होंने कश्मीर और पाकिस्तान को जोड़ने वाली एकमात्र रेल लाइन को रोक दिया था. साथ ही कश्मीर के ट्रक अपने क़ब्ज़े में ले लिए थे. राशन और पेट्रोल जैसी ज़रूरी चीजों पर रोक लगा दी थी. प्लान था कि आम जनता इसकी वजह से हरि सिंह के साथ बग़ावत कर देगी. कुछ हद तक ये प्लान सफल भी रहा. लेकिन कश्मीर अभी भी पाकिस्तान के क़ब्ज़े से दूर था.

पाकिस्तानी सेना की मदद से 20 अक्टूबर के दिन नॉर्दर्न ट्राइबल फ़ोर्सेस ने एबटाबाद- मुज़फ्फराबाद लाइन से मूवमेंट शुरू किया. साथ ही एक छोटी टुकड़ी कोहाला- मुज़फ्फराबाद के रास्ते आगे बढ़ी. 21 अक्टूबर के दिन इन्होंने नीलम नदी के एक महत्वपूर्ण पुल को अपने कब्जे में कर लिया ताकि कम से कम एक पोजिशन मज़बूत हो जाए. इस इलाक़े की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी थी 4 जम्मू-कश्मीर स्टेट इन्फ़ैंट्री पर. लड़ने की बजाय ये लोग ट्राइबल फ़ोर्सेस के साथ हो लिए. और कश्मीर में पाकिस्तान को फुटिंग मिल गई.
मक़बूल शेरवानी की दिलेरी
ट्राइबल फ़ोर्सेस 22 अक्टूबर को बारामूला पहुंची. लोकल रेज़िस्टेन्स से निपटने के बाद इन्होंने लूटपाट मचा दी. पूरे शहर में आग आग दी गई. साथ ही औरतों और बच्चों को किड्नैप कर पाकिस्तान भेज दिया गया. यहां से श्रीनगर सिर्फ़ 56 किलोमीटर दूर था. एक दिन से भी कम की दूरी पर. लेकिन एक दिलेर आदमी की कोशिश के चलते श्रीनगर बचा रह गया.
हुआ यूं कि बारामूला में ट्राइबल फ़ोर्सेस में नैशनल कॉन्फ़्रेन्स के एक मेम्बर से श्रीनगर का रास्ता पूछा. इस मेम्बर का नाम था मक़बूल शेरवानी. शेरवानी उन्हें श्रीनगर के बजाय एक दूसरे ही रास्ते पर ले गया और दो दिन तक घुमाता रहा. 35 किलोमीटर दूर सम्बल में पाकिस्तानी ट्राइबल फ़ोर्सेस को इसका अहसास हुआ तो वो शेरवानी को वापस बारामूला लाए और 14 गोलियां मारकर उसे एक खंबे से लटका दिया ताकि लोकल जनता में दहशत बनी रहे.
28 अक्टूबर को ये लोग श्रीनगर की ओर बढ़े. लेकिन तब तक श्रीनगर में 1 सिख बटालियन की 3 कंपनियां आ चुकी थीं. सेना पहुंची तो उन्होंने सबसे पहले श्रीनगर शहर में फ़्लैग मार्च किया ताकि जनता को भरोसा दिलाया जा सके कि सेना उनके साथ है. नेशनल कॉन्फ़्रेन्स भी तब तक हरकत में आ चुकी थी. लोगों को जोड़कर एक लोकल मिलिशिया का गठन किया गया ताकि पाकिस्तानी क़बीलाई लड़ाकों का सामना किया जा सके.
28 अक्टूबर की सुबह 9 बजे पहली लड़ाई हुई. भारतीय सेना की ताक़त बहुत कम थी. इस लड़ाई में लेफ़्टिनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय शहीद हो गए. किसी तरह 1 सिख बटालियन ने क़बीलाई लड़ाकों को रोके रखा.
शालाटेंग की लड़ाई
2 नवम्बर की शाम तक 161 इन्फ़ैंट्री ब्रिगेड की 3 बटालियन, 1 मशीन गन कम्पनी और एक आर्टिलरी बैटरी श्रीनगर लैंड कर चुकी थी. सेना की कमांड संभाली ब्रिगेडियर LP सेन ने. उन्होंने फ़ौज को दो टुकड़ियों में बांटा. एक हिस्सा श्रीनगर की रक्षा के लिए रुका रहा. और दूसरा हिस्सा पहुंचा बारामूला से आती फ़ोर्स का सामना करने. सेना शालाटेंग पहुंची और वहां उन्होंने डिफ़ेन्सिव पोजिशन ले ली. यहां बग़ल में कुछ दूर झेलम बहती है. और आगे रास्ता बारामूला और गुलमर्ग की ओर निकलता है.

छुपते-छुपाते 7th इंडियन लाइट कैवेलरी के राइफ़ल ट्रूप्स भी दुश्मन की पोजिशन के पीछे जा पहुंचे. और 7 नवंबर तक 1 कुमाऊं रेजिमेंट ने राइट फ़्लांक से पोजिशन सम्भाल ली. ट्राइबल फ़ोर्स पूरी तरह से घिर चुकी थी. सेना ने फ़ॉर्वर्ड पोजिशन से अटैक किया. पीछे से कैवेलरी और राइट से 1 कुमाऊं रेजिमेंट ने धावा बोला तो क़बीलाई लड़ाकों के पैर उखड़ गए. इस लड़ाई में 472 क़बीलाई मारे गाए. और वो पीछे हटने को मजबूर हो गए.
मिड नवंबर तक कश्मीर में ठंड के हालात हो चुके थे. लड़ाई थोड़ा रुकी तो भारत ने कश्मीर में सेना की ताक़त बढ़ाई. मार्च 1948 तक सेना की 5 ब्रिगेड कश्मीर पहुँच चुकी थीं. लेकिन तब तक पाकिस्तानी सेना भी खुले तौर पर जंग के मोर्चे पर आ चुकी थी. फरवरी के एंड में उन्होंने ऑपरेशन हैमर लॉन्च किया. जिसका ऑब्जेक्टिव था स्कर्दु, कारगिल और लेह पर क़ब्ज़ा करना.
लद्दाख़ में मोर्चा
लेह में सिर्फ़ 33 लोगों की 1 राइफ़ल प्लाटून तैनात थी. सर्दियों के महीनों में 40 वालंटियर जोज़ी दर्रे को पार कर लेह पहुंचे. इनकी मदद से लेह में एक लोकल मिलिशिया बनाई गई और साथ ही एक इमरजेंसी एयर स्ट्रिप भी बना ली गई ताकि भारत के प्लेन वहां लैंड कर सकें.
10 मई तक पाकिस्तानी सेना ने स्कर्दु पर कब्जा जमा लिया था. और 22 मई तक कारगिल पर. स्कर्दु में भारतीय सेना की एक बटालियन तैनात थी. लेकिन उन्हें भारी नुक़सान उठाना पड़ा. लेफ़्टिनेंट कर्नल शेर जंग थापा की लीडरशिप में आख़िरी टुकड़ी ने स्कर्दु के खारपोचो फ़ोर्ट में शरण ली. जहां उन्होंने आख़िरी फ़्रंट खोला हुआ था. 13 अगस्त को खारपोचो पर भी पाकिस्तान का कब्जा हो गया.
अब अगला निशाना था, लेह. जहां लोकल मिलिशिया को मिलाकर सिर्फ़ 150 लोग तैनात थे. मौसम ख़राब था. इसलिए ऐसे में और फ़ौज भेजना मुश्किल हो रहा था. लेकिन भारतीय वायुसेना ने जांबाजी दिखाते हुए 23 अगस्त तक गुर्खा बटालियन को लेह तक पहुंचा दिया. लेह को डिफ़ेंड कर लिया गया. लेकिन द्रास कारगिल और स्कर्दु अभी भी पाकिस्तान के कब्जे में था.

वहां तक पहुँचने के लिए जोजिला दर्रे को पार करना ज़रूरी था. और जोजिला की ऊंची चोटी पर तैनात पाकिस्तानी सेना परफेक्ट डिफेंसिव पोजिशन लिए हुए थी. ऊपर से सामने बर्फ़ के टीलों पर नज़र रखी जा सकती थी. पेड़, जंगल, चट्टान कुछ नहीं था कि छुपकर अटैक किया जा सके.
ऑपरेशन बाइसन
तब एक दूसरा प्लान बनाया गया. वेस्टर्न आर्म के कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल करियप्पा ने मिशन को नाम दिया ऑपरेशन बाइसन. ऑपरेशन के तहत एम-5 स्टूअर्ट टैंक्स को डिसअसेंबल कर श्रीनगर के रास्ते बलताल ले ज़ाया गया.
पाकिस्तान को भनक ना लगे, इसलिए सारा मूवमेंट रात में किया गया. जिस दिन टैंक श्रीनगर से गुजरे, वहां कर्फ़्यू लगा दिया गया. बलताल से जोजिला तक एक खच्चरों वाला रास्ता जाता था. यहां मद्रास इंजीनियर ग्रुप की 2 फ़ील्ड कम्पनियों ने 2 महीनों तक दिन-रात काम किया और इस रास्तों को टैंक ले जाने लायक़ बनाया.
1 नवंबर के दिन टैंक रेजिमेंट को लीड करते हुए मेजर जनरल थिमैया जोजिला पहुंचे. पाकिस्तान को इस ऑपरेशन की कोई भनक नहीं थी. उनके पास एंटी टैंक वेपन्स भी नहीं थे. इसलिए टैंक से हमला हुआ तो पाकिस्तानी सेना को जोजिला से पीछे हटना पड़ा. भारतीय सेना ने 15 नवंबर तक द्रास पर और 24 नवंबर तक कारगिल पर क़ब्ज़ा कर लिया. पीछे हटते हुए पाकिस्तानी सेना स्कर्दु पहुंची.

भारतीय टैंक बटालियन ने यहां भी फ़ॉर्वर्ड अटैक किया लेकिन छथाटंग में पाकिस्तानी सैनिकों ने ग़ज़ब का साहस दिखाया. पोस्ट बचाने के लिए उन्होंने टैंक के नीचे अपना सिर दे दिया. 1949 आते-आते युद्ध विराम की घोषणा हुई और जो जहां था वहीं रुक गया.
जो लौट के घर ना आए
सेना का काम यहां ख़त्म हुआ और राजनीति और कूटनीति ने सेंटर स्टेज ले ली. 5 जनवरी 1949 को पास हुए UN रिज़ॉल्यूशन में तय हुआ कि पाकिस्तान अपनी सेना पीछे हटाएगा. भारत एक मिनिमल फ़ोर्स कश्मीर में तैनात रखेगा, लॉ एंड ऑर्डर के लिए. और फिर कश्मीर की जनता तय करती एक जनमत संग्रह से कि कश्मीर का भाविष्य क्या होगा.
ख़ैर ये सब हुआ कुछ नहीं. सब बीती बातें हैं. ना पाकिस्तान ने कभी सेना पीछे हटाई ना ही इस मसले पर कभी बात आगे बढ़ पाई. आज के एपिसोड से हमारा मकसद सिर्फ़ इतना था कि आओ! ‘ज़रा याद उन्हें भी कर लें, जो लौट के घर ना आए.’
इस युद्ध में भारत के 1104 जवान शहीद हुए और 3154 घायल. पाकिस्तान सेना के भी 600 जवान मारे गए. भारत ने कश्मीर के एक बड़े हिस्से, जम्मू और लद्दाख़ को बचा लिया. गिलगित-बलतिस्तान और कश्मीर का 1/3 हिस्सा आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है. लेकिन न्यूट्रल असेसमेंट में इस लड़ाई में भारत को विजयी माना जाता है.
वीडियो देखें- गिलगित-बाल्टिस्तान को हड़पने के लिए कौन सा षड्यंत्र रचा गया था?