“आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरों
जब भी उनको ध्यान आएगा, तुमने फ़िराक़ को देखा है”
ये शे’र शायर ने खुद के लिए लिखा है. आलोचक इसमें खुदपसंदी की इंतेहा खोज सकते हैं. आत्ममुग्धता के, घमंडीपन के इल्ज़ाम लगा सकते हैं. ऐसे इल्ज़ाम सच के कितने करीब होंगे हम नहीं जानते. हम बस इतना जानते हैं कि ये अल्फाज़ आगे चलकर हकीकत . वाकई दुनिया उन लोगों पर रश्क करती है, जिन्होंने फ़िराक़ गोरखपुरी को देखा. उनका कलाम उनके सामने बैठकर सुना. उनसे गुफ्तगू की. उस महफ़िल में हाज़िरी लगाई जहां वो मौजूद रहे.
वो कलमकार, जिसके लिखे दोहे की एक लाइन, कामयाबी की दौड़ में भाग रहे हर एक बशर के लिए अंतिम सत्य सी है.
“मन के हारे हार है, मन के हारे जीत.”

इस लेख को लिखने वाला बरसों इस शायर को एक मुस्लिम शख्स तसलीम करता आया है. और जब उस पर भेद खुला कि फ़िराक़ गोरखपुरी असल में रघुपति सहाय हैं तो धार्मिक पहचान बेमानी होने का उसका विश्वास और ज़्यादा मज़बूत हुआ.
28 अगस्त 1896 को जन्मे फ़िराक़ को बिलाशक अदब की दुनिया का सूरज कहा जा सकता है. मशहूर शायर निदा फाज़ली उन्हें उर्दू शायरी की दुनिया में ग़ालिब और मीर के बाद तीसरे पायदान पर रखते हैं. निदा साहब कहते हैं,
“ग़ालिब अपने युग में आने वाले कई युगों के शायर थे. अपने युग में उन्हें इतना नहीं समझा गया, जितना बाद के युगों में पहचाना गया. हर बड़े दिमाग़ की तरह वह भी अपने समकालीनों की आंखों से ओझल रहे. ऐन यही बात फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में कही जा सकती है.”
जब गालियों को कविता में बदला फ़िराक़ ने
फ़िराक़ अलमस्त आदमी थे. शराब के रसिया. पी लेते तो उसकी लाज रखते हुए बहक भी जाते. ऐसा ही एक किस्सा मुंबई के गलियारों में भटकता है. मशहूर अभिनेत्री नादिरा के घर फ़िराक़ साहब का डेरा था उन दिनों. एक दिन वो सुबह से ही अंगूर की बेटी के मुंह लग गए. दोपहर होते-होते ज़ुबान पर से काबू छूटने लगा. गालियां निकलने लगीं. नादिरा परेशान हो गईं. जब फ़िराक़ को संभालना उनके बस का न रहा तो उन्होंने इस्मत चुगताई को बुलावा भेजा. जैसे ही इस्मत वहां पहुंचीं, फ़िराक़ संभल गए. इस्मत से उर्दू साहित्य पर बातचीत करने लगे. नादिरा हक्का-बक्का थी. चिढ़ कर बोलीं,
“फ़िराक़ साहब, वो गालियां क्या ख़ास मेरे लिए थीं?”
फ़िराक़ ने मासूमियत से जवाब दिया,
“अब तुम समझ गई होगी गालियों को कविता में कैसे बदलते हैं.”

शायरी को क्लिष्टता से निकालकर आम बोली तक ले आए फ़िराक़
फ़िराक़ से पहले शायरी या तो रुमानियत से सराबोर थी या दार्शनिकता से लबरेज़. फ़िराक़ उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी तक खींच ले आए. उर्दू में जब नई ग़ज़ल का दौर शुरू हुआ, तो फ़िराक़ इस पहल के सबसे बड़े झंडाबरदार बनें. वो कहते भी थे कि उर्दू को हिंदुस्तान आए अरसा हो गया. लेकिन हैरत की बात है कि इसमें यहां के खेत-खलिहान, समाज-संस्कृति, हिमालय, गंगा-यमुना क्यों नहीं दिखाई पड़ते? इस महरूमी को दूर करने की उन्होंने भरसक कोशिश की. कामयाब कोशिश. बानगी देखिए,
“लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़ा-ए-सुब्ह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुस्कराए जैसे”
हाज़िरजवाब, मुंहफट, दबंग और न जाने क्या-क्या!
फ़िराक़ मशहूर थे अपनी हाज़िरजवाबी के लिए. बिना सोचे-समझे बोल देते थे. एक बार एक मुशायरे में शिरकत कर रहे थे. उनसे पहले काफी शायर कलाम पढ़ते रहे. फ़िराक़ को मामला कुछ ख़ास जमा नहीं. वो धीरज से अपनी बारी का इंतज़ार करते रहे. जब उनकी बारी आई तो उन्होंने माइक संभाला और छूटते ही कहा,
“हज़रात! अब तक आप कव्वाली सुन रहे थे. अब कुछ शे’र सुन लीजिए.”
इसी तरह एक बार इलाहाबाद में एक मुशायरा हो रहा था. जब फ़िराक़ साहब ग़ज़ल पढ़ने के लिए खड़े हुए तो लोग हंसने लगे. वजह फ़िराक़ की समझ में नहीं आई लेकिन वो भड़क गए. कहा, “लगता है आज मूंगफली बेचने वालों ने अपनी औलादों को मुशायरा सुनने को भेज दिया है.”
वो तो बाद में स्टेज पर बैठे शायरों ने नोट किया कि फ़िराक़ की शेरवानी के नीचे से उनका नाड़ा लटक रहा है. फिर कैफ़ी आज़मी उठे और उनकी शेरवानी उठाकर नाड़ा उनकी कमर में खोंस दिया. हंसी का फव्वारा एक बार फिर छूटा.
फ़िराक़ की एक ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई.
“बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं”
इसी ग़ज़ल का एक शे’र है. इस शे’र की आसानी ही इसका हासिल है. तन्हाई के मारों की सेल्फ-हीलिंग थेरपी कुछ ऐसी ही हुआ करती है.
“तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं”
इसे चित्रा और जगजीत सिंह ने बेहद दिलकश अंदाज़ में गाया भी है. सुना जाए:
धुआंधार अंग्रेज़ी जानने वाला शायर
फ़िराक़ उन चुनिंदा फ़नकारों में से एक हैं जो महज़ शायरी तक महदूद नहीं रहे. वो खूब पढ़े-लिखे आदमी थे. एशिया और यूरोप के मामलों पर गहरी पकड़ रखते थे. उन्होंने मज़हबी फलसफों पर भी लिखा और राजनीति पर भी. आलोचनात्मक लेख भी लिखे. अपने विद्वान होने पर उन्हें फ़ख्र था. मज़ाक में कहा करते थे,
“हिंदुस्तान में सही अंग्रेज़ी सिर्फ ढाई लोगों को आती है. एक मैं, एक डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और आधा जवाहरलाल नेहरू.”
नेहरू से उनके संबंध बड़े दोस्ताना थे.

फ़िराक़ के भांजे अजयमान सिंह ने उन पर एक किताब लिखी है. ‘फ़िराक़ गोरखपुरी – अ पोएट ऑफ़ पेन एंड एक्सटसी’. इस किताब में वो एक किस्सा लिखते हैं.
जब नेहरू प्रधानमंत्री बन गए तो एक बार इलाहाबाद आए. उनके घर जब फ़िराक़ पहुंचे तो रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें पर्ची पर नाम लिख कर देने को कहा. उन्होंने लिखा रघुपति सहाय. रिसेप्शनिस्ट ने आगे आर सहाय लिखकर पर्ची अंदर भेज दी. जब 15 मिनट बीतने पर भी बुलावा न आया तो फ़िराक़ भड़क गए. चिल्लाने लगे. शोर सुन कर नेहरू बाहर आए. माजरा समझने पर बोले कि मैं 30 साल से तुम्हें रघुपति के नाम से जानता हूं, मुझे क्या पता ये आर सहाय कौन है? उन्हें जब अंदर ले गए तो नेहरू ने उनकी सूरत देखकर पूछा, “नाराज़ हो?”
जवाब फ़िराक़ ने इस शे’र से दिया,
“तुम मुखातिब भी हो, करीब भी
तुमको देखें कि तुमसे बात करें”
नेहरू से मुहब्बत
पंडित नेहरू से जुड़ा हुआ एक और किस्सा भी है. एक बार नेहरू इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में स्पीच दे रहे थे. उनसे कभी-कभार इतिहास की घटनाओं को लेकर तथ्यात्मक गलती हो जाती थी. इस भाषण के वक़्त भी एक हुई. मशहूर इतिहासकार डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने तुरंत उनकी भूल सुधारनी चाही. उधर फ़िराक़ से भी रहा न गया. वो चीख़ कर बोले,
“सिट डाउन ईश्वरी, यू आर अ क्रैमर ऑफ़ हिस्ट्री एंड ही इज़ अ क्रिएटर ऑफ़ हिस्ट्री,” (बैठ जाओ ईश्वरी, तुम इतिहास को रटने वाले आदमी हो और ये इतिहास को बनाने वाला)”.

उनके सिर्फ एक शेर पर ही जीवन वारा जा सकता है
चंद्रधरशर्मा गुलेरी ‘उसने कहा था’ लिख कर अमर हो गए. और कुछ भी न लिखते तो भी चलता. गोपालदास नीरज ‘कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे’ के बाद कलम तोड़ देते, तो भी फर्क नहीं पड़ता. इसी तरह फ़िराक़ अगर सिर्फ यही एक शेर लिख कर शायरी पर फुल स्टॉप लगा लेते तो भी उन्हें इतना ही प्यार हासिल होता. आज के पूर्वाग्रहों के दौर में तो ये शे’र और भी मौजू हो गया है. मानवता के पक्ष में इससे ज़्यादा स्ट्रोंग स्टेटमेंट शायद ही और कोई हो.
“मज़हब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे
तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के”
आइए जाते-जाते उनके कुछ चुनिंदा शेर याद कर लिए जाएं.
“आए थे हंसते खेलते मय-ख़ाने में ‘फ़िराक़’
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए”
“अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयां”
“एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं”
“इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात”
“क्या जानिए मौत पहले क्या थी
अब मेरी हयात हो गई है”
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उसने ग़ज़ल लिखी तो ग़ालिब को, नज़्म लिखी तो फैज़ को और दोहा लिखा तो कबीर को भुलवा दिया
जगजीत सिंह, जिन्होंने चित्रा से शादी से पहले उनके पति से इजाजत मांगी थी
वो मुस्लिम नौजवान, जो मंदिर में कृष्ण-राधा का विरह सुनकर शायर हो गया