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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता ‘तुम्हारे साथ रहकर’

तुम्हारे साथ रहकर, अक्सर मुझे लगा है, कि हम असमर्थताओं से नहीं, सम्भावनाओं से घिरे हैं,

तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि दिशाएं पास आ गयी हैं, हर रास्ता छोटा हो गया है, दुनिया सिमटकर एक आंगन-सी बन गई है जो खचाखच भरा है, कहीं भी एकान्त नहीं न बाहर, न भीतर। हर चीज़ का आकार घट गया है, पेड़ इतने छोटे हो गये हैं कि मैं उनके शीश पर हाथ रख आशीष दे सकता हूं, आकाश छाती से टकराता है, मैं जब चाहूं बादलों में मुंह छिपा सकता हूं। तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे महसूस हुआ है कि हर बात का एक मतलब होता है, यहां तक कि घास के हिलने का भी, हवा का खिड़की से आने का, और धूप का दीवार पर चढ़कर चले जाने का। तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे लगा है कि हम असमर्थताओं से नहीं सम्भावनाओं से घिरे हैं, हर दीवार में द्वार बन सकता है और हर द्वार से पूरा का पूरा पहाड़ गुज़र सकता है। शक्ति अगर सीमित है तो हर चीज़ अशक्त भी है, भुजाएं अगर छोटी हैं, तो सागर भी सिमटा हुआ है, सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है, जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है वह नियति की नहीं मेरी है।