सचिन की एक आदत थी. जो उनके करियर के दूसरे हाफ़ में शुरू हुई और बढ़ती ही गई. वो अपनी सेंचुरी की ओर पहुंचते तो धीमे हो जाते. उन पर एक प्रेशर आ जाता. वो कभी स्कोरबोर्ड की तरफ नज़र नहीं डालते थे लेकिन मैदान में मौजूद दर्शक ज़रूर डालते थे. उनके हल्ले से उन पर प्रेशर बढ़ता. वो सब कुछ संज्ञान में लेने लगते. उनकी ग्वालियर में खेली 200 रन की इनिंग्स इस बात की गवाह है. एक ओर धोनी जहां चौके और छक्के लगा रहे थे वहीं सचिन सिंगल डबल में बात कर रहे थे. प्लेसमेंट खोज रहे थे. तब जब कुछ ही देर पहले वो हुक और पुल कर रहे थे. यही हाल उस रोज़ भी था. मुल्तान में सचिन हल्का खेल रहे थे. उनके 194 रन 348 गेंदों पर आये थे. 2 दिन का खेल जा चुका था. या बस जाने ही वाला था. रन भतेरे थे. ऐसे में ज़रूरत थी डिक्लेयरेशन की. मगर सचिन थे कि लगे हुए थे. द्रविड़ ने डिक्लेयर कर दिया. सचिन सकते में थे.मगर इतवार को कोहली ने करुन नायर तक एक मेसेज पहुंचाया. बताया कि जल्दी खेलिए. वरना पर्दा गिरा देंगे. नायर तुरंत फायर हुए. आखिरी 100 रन 75 गेंद में ही मार दिए. 133 का स्ट्राइक रेट. सचिन का पर्थ वाला अपर कट भी दिखाया. बस सचिन वाला वैभव मिसिंग था. ये वैसा ही कुछ था कि आपको झिंटाक ठंड में अदरक वाली चाय की चाहत हो और आपको डिप वाली चाय मिले. एकदम मन पनिया जाए. लेकिन सुडुकते रहें. क्यूंकि चाय आखिर चाय है. खैर. भटकते नहीं हैं. सचिन की बात करने लगेंगे तो 2017 आ जायेगा. तो हुआ ये कि नायर ने बढ़िया खेला. वैसा जैसा उस माहौल में ज़रूरत थी. कोहली को यकीन तो था कि नायर चलेगा, लेकिन टाइम एक फैक्टर था. भला हो जडेजा का कि 7 विकेट निकाल लिए तो समय रहते जीत गए. वरना नायर को दिया एक्स्ट्रा टाइम भारी पड़ता. नायर को जो टाइम मिला, उसका सही उपयोग भी किया. केएल राहुल की तरह अगर एक-दो रन पहले निकल लेते तो फिर खटकता. तो कुल मिलाके मामला ये कि सब कुछ हालांकि एक संयोग था मगर एक बेहद खूबसूरत संयोग जो इंडिया के फेवर में सब कुछ बुनता गया. और वहीं से इंडिया की जीत की स्क्रिप्ट लिख डाली गई.
सचिन के 194* और नायर के 303* में अंतर बस कोहली की कप्तानी का है
राहुल द्रविड़ को टीम चलाने के मामले में मात दे दी कप्तान कोहली ने.

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अक्सर यूं होता है कि आस-पास कुछ देखो-सुनो तो उससे जुड़ा कुछ और याद आता है. प्लेन में चढ़ता हूं, तो रह-रह कर 11 सितंबर को ध्वस्त हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की याद आती है. वो पहली दफ़ा था जब मुझे आतंकवाद शब्द से रूबरू करवाया गया था. और तबसे प्लेन्स को लेकर एक डर बैठ गया है अंदर. उस वक़्त तो आलम ये था कि ऊपर हवा में उड़ते किसी प्लेन की आवाज़ आती थी तो सोचता था कि मुझे कहीं छुप जाना चाहिए, इससे पहले कि वो मुझ पर आ गिरे. खैर, सार ये कि किसी भी बात के होने पर अक्सर हमें उससे मिलती-जुलती चीज़ें याद आ ही जाती हैं. और हम उन दोनों को एक दूसरे से कम्पेयर करने बैठ जाते हैं. ऐसी ही एक कहानी थी सोमवार की. करुन नायर ने 300 रन बनाये. मैच का चौथा दिन. 77 रन के पर्सनल स्कोर से आगे खेलना शुरू किया. अगले दिन 226 रन बनाये. लगभग पूरे दिन बैटिंग की. 282 रन की लीड इंडिया के हाथ लगी. मगर उसके साथ ही टाइम भी गया. इंग्लैंड की टीम को मात्र 5 ओवर ही खेलने को मिले. अगले दिन का खेल बाकी था. करुन नायर की मैराथन इनिंग्स ने ये पक्का कर दिया था कि टीम इंडिया मैच हार नहीं सकती. लेकिन जीत निश्चित नहीं हुई थी. क्यूंकि उसके लिए ज़रूरी थी दो में से एक बात - या तो टाई हो. जो कि नहीं था. या फिर बॉलर्स रंग दिखा दें. जिस पर पूरी तरह से भरोसा करके नहीं बैठा जा सकता. क्यूंकि सामने कोई दोयम दर्जे की टीम नहीं थी. हालांकि ये सवाल उसी वक़्त रीसायकिल बिन में चला जाता है जब रवीन्द्र जडेजा अपना सातवां विकेट लेकर टीम इंडिया को सीरीज़ 4-0 से दे देते हैं. मगर इफ़-बट की गुंजाइश बनी ही रहती है. दबी जुबान ही सही. और इसी कहानी से याद आता है मुल्तान टेस्ट. सीरीज़ का पहला. इंडिया वर्सेज़ पाकिस्तान. साल 2004. पहली इनिंग्स में सचिन और युवराज बैटिंग कर रहे थे. खेल का असली मज़ा सहवाग देकर जा चुके थे. 309 रन. युवराज का विकेट गिरते ही राहुल द्रविड़ ने इनिंग्स डिक्लेयर कर दी. दूसरे एंड पर खड़े सचिन सन्नाटे में आ गए. उनका स्कोर था 194 रन. 200 रन से मात्र 6 रन दूर. सहवाग की भाषा में कहें तो 200 रन से मात्र एक शॉट दूर. और द्रविड़ ने उन्हें वापस बुला लिया. सचिन शॉक में थे. हर कोई शॉक में था. कुछ इसे बेवकूफ़ी भरा तो कुछ इसे एक साहसी डिसीज़न बता रहे थे. इसके बाद सचिन और द्रविड़ के बीच खटास की बातें भी आईं लेकिन वो सभी बकवास ही थीं. लड़ना-झगड़ना उन दोनों के लिए नहीं बना था. https://www.youtube.com/watch?v=23ki-84NfsQ इन दोनों ही 'घटनाओं' से कुछ मालूम चलता है. और वो ये है कि इंडियन टीम में अब बातें होने लगी हैं. ऐसा नहीं है कि पहले सभी मूक-बधिर थे, बस बातें नहीं होती थीं. सिर्फ बोलचाल थी. वो, वो दौर था जब सीनियर्स कुछ हुआ करते थे. जब उनसे बात करने के लिए उनके कमरे का दरवाज़ा खटखटाने की हिम्मत कम खिलाड़ियों में होती थी. जब बड़े खिलाड़ी अपनी हनक में रहते थे. मगर अब वो दौर है जब चेन्नई में आये तूफ़ान की वजह से वहां नेटवर्क न होने पर कोहली, के एल राहुल, करुन नायर, जयंत और पार्थिव एक्स बॉक्स पर गेम खेल रहे होते हैं. यहां न कोई छोटा न बड़ा. सभी खिलाड़ी एक सामान. 'बड़े' प्लेयर्स, 'छोटे' प्लेयर्स के साथ घूम रहे होते हैं, तफरी काट रहे होते हैं. वो जो प्लेयर्स के बीच एक हाथ की बराबरी थी, गायब हो चुकी है. अब गलबहियां वाला दौर है. और ऐसे में मेसेज आसानी से इधर-उधर आ-जा रहा है.