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SG, Duke, Kookaburra इन गेंदों में क्या अंतर है? प्लेयर्स क्या कहते हैं?

किस कंडीशन में कौन सी बॉल बेस्ट होती है?

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अलग-अलग तरह की बॉल्स (सौ: गेटी)

क्रिकेट दक्षिण-पूर्वी इंग्लैंड से शुरु हुआ था. और 18वीं शताब्दी में ये इंग्लैंड का राष्ट्रीय खेल बन गया. 19वीं और 20वीं शताब्दी आते-आते दुनिया के कई देश इस खेल को खेलने लगे. सबसे पहला वर्ज़न टेस्ट क्रिकेट था. इस खेल की सबसे बेसिक जरूरत हैं बैट और बॉल. और आज हम आपको इसी गेंद के बारे में कुछ कमाल की चीजें बताएंगे. जैसा कि आप जानते ही हैं. गेंद मुख्यतः तीन रंगों की होती है- लाल, सफेद और गुलाबी.

सबसे पहले क्रिकेट लाल बॉल से ही खेला जाता था. आज भी इनका उपयोग टेस्ट मैच और कंपटिटिव क्रिकेट में किया जाता है. 1977 तक सभी प्रकार की क्रिकेट खेलने के लिए लाल बॉल का ही यूज़ किया जाता था. नई गेंद पारी की शुरुआत में स्विंग और सीम करती है. और पुरानी होने पर ये रिवर्स स्विंग होने लगती है. आजकल, लाल बॉल का प्रयोग सिर्फ टेस्ट क्रिकेट खेलने के लिए किया जाता है.

और इसे बनाने वाली सबसे पुरानी कंपनी ड्यूक है. ड्यूक बॉल 1760 से बनाई जा रही है, और क्रिकेट के पहले दिन से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. हालांकि अगर हम इंडिया में होने वाले टेस्ट और फर्स्ट क्लास मैच की बात करें तो यहां एसजी की गेंदें प्रयोग की जाती हैं. साल 1994 के बाद से ही भारत में इनका प्रयोग किया जा रहा है. वहीं साल 1946 से ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में कूकाबुरा गेंद का प्रयोग किया जा रहा है. अब सवाल ये उठता है कि इन गेंदों में अंतर क्या है? पूरी दुनिया में एक ही गेंद का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता? तो चलिए, आपको एक-एक कर इन तीनों गेंदों का अंतर समझाते हैं.

और हम शुरुआत करेंगे इन तीनों गेंदों की सिलाई से.

#गेंद की सिलाई

तीनों गेंदों में सबसे बड़ा फ़र्क सिलाई का ही होता है. और यही सिलाई बताती है कि गेंदबाज को कितनी सीम मिलेगी. भारतीय कंपनी एसजी की गेंदें हाथ से सिली हुई होती हैं. छह लाइन में की गई ये सिलाई एक-दूसरे के काफ़ी क़ऱीब होती है. इस बॉल की सिलाई में जो धागा इस्तेमाल होता है, वो बाकी दोनों बॉल्स से मोटा होता है. इस वजह से बॉल की सीम उभरी हुई होती है. जब ये सीम पुरानी हो जाती है, तब फील्डिंग टीम बॉल की किसी एक साइड को चमकाने लगती है. इससे आगे चलकर पेसर्स को रिवर्स स्विंग मिलता है.

अब कूकाबुरा की बारी. बॉल के दोनों भागों को सिर्फ बीच की दो लाइनों की सिलाई एक साथ पकड़कर रखती है. इसलिए इन दो लाइन्स की सिलाई हाथ से की जाती है. बाकी की चार धारियों की सिलाई मशीन से की जाती हैं. ऐसा कह सकते हैं कि एसजी बॉल की सीम कूकाबुरा की सीम से मोटी होती है. बताते चलें कि बोलर्स के लिए एसजी की बॉल से ज्यादा आसान कूकाबुरा की बॉल पकड़ना होता है.

कूकाबुरा की बॉल बहुत सख्त होती है. मशीन से की गई सिलाई जब हल्की हो जाती है, तब भी पेसर्स इस बॉल की सख़्ती को बाउंस जेनरेट करने में यूज़ कर लेते हैं. ऑस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रीका में इन बॉल्स का इस्तेमाल किया जाता है. मशीन की सिलाई की वजह से ही कूकाबुरा अपनी शेप जल्दी खो देती है.

अब ड्यूक की बात कर लेते हैं. एसजी की तरह ही ड्यूक भी हाथ से ही सिली जाती है. अब आप सोच रहे होंगे कि फिर ड्यूक और एसजी में अंतर क्या है? अंतर है. हमने आपको पहले बताया कि एसजी बॉल की सिलाई जिस धागे से होती है, वो थोड़ा मोटा होता है. यानी ड्यूक की सिलाई एसजी से पतले धागे से होती है. इससे बोलर्स को बेहतर ग्रिप मिलती है. एक और अंतर है. एसजी की सीम बहुत कऱीब सिली जाती है. ड्यूक की सिलाई में थोड़ा गैप रहता है. इससे बॉल की शेप ज्यादा देर तक अच्छा रहती है. तभी आपने देखा होगा कि इंग्लैंड में पूरे दिन बॉल स्विंग करती है. और स्लिप फील्डर्स के पास पूरे दिन कैच आते रहते हैं.

#गेंद की सीम

ये पॉइंट समझाने के लिए शायद हमें कुछ बातें दोहरानी पड़े. पर यकीन मानिए, अच्छे से समझने के लिए ये जरूरी होगा. हमने आपको पहले ही बताया कि हर तरह की बॉल में छह लाइन की सिलाई होती है. आपने शायद ऐसा देखा भी हो. लेकिन सीम की सिलाई में भी अंतर होता है. एक-एक करके आपको बताते हैं. ड्यूक बॉल से ही शुरु करते हैं. इस बॉल की सीम की सिलाई एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती है. यानी बॉल के बीच के दोनों तरफ की तीन-तीन लाइन्स आपस में सिली हुई होती हैं.

नहीं समझ आया, चलिए और आसान किए देते हैं. दो पेपर लीजिए. अलग-अलग रखिए. अब सुई में धागा डालकर एक पेपर को दूसरे पेपर से सिल दीजिए. अब दूसरे पेपर से पहले पेपर को सिल दीजिए. अब इसी चीज को दोहराते रहिए. बस यही तरीका है. आप खुद भी समझ सकते हैं कि इस सिलाई में कितना वक्त लगता होगा. और ये सीम एसजी बॉल से ज्यादा फैली हुई भी होती है. ये भी ड्यूक बॉल के अच्छे शेप में रहने की एक वजह है.

एसजी की सीम कूकाबुरा और ड्यूक से मोटे धागे से सिली जाती है. इसके साथ ही उसकी सीम बहुत कऱीब भी होती है. यानि की वो छह लाइन्स एक-दूसरे से काफी नजदीक होती हैं. इसकी सीम की सिलाई का तरीका भी ड्यूक जैसा ही होता है.

अब कूकाबुरा की ओर चलते हैं. कूकाबुरा की सिर्फ दो लाइन्स हाथ से सिली जाती हैं. बाकी की चार लाइन्स की सिलाई मशीन से की जाती है. धागा भी पतला यूज़ होता है. इसलिए कूकाबुरा अपनी शेप जल्दी खो देती है. हालांकि इसके बाद भी इस गेंद की सख्ती बनी रहती है. और इसी की वजह से पुरानी सीम के साथ भी बोलर्स बॉल से बाउंस जेनरेट करवा लेते हैं.

#कंडीशन्स

हर बॉल का कंडीशन के हिसाब से यूज़ होता है. इंडिया में एसजी की बॉल यूज़ होती है. यहां की पिचेस सेना (SENA) देशों की तरह हार्ड नहीं होती, और इनमें क्रैक्स ज्यादा होते हैं. पिच पहले या दूसरे दिन ही क्रैक करने लगती है. इसलिए हाथ से सिली हुई ये बॉल ज्यादा देर टिकती है. जब बॉल की शाइन खत्म होना शुरु होती है, तब फील्डिंग टीम किसी एक साइड को चमकाना शुरु कर देती है. इससे स्पिन और रिवर्स स्विंग मिलने में सुविधा होती है.

कूकाबुरा इस लिहाज़ से काफी अलग है. मशीन से सिले जाने के बाद ये बॉल काफी कड़ी रहती है. सीम गायब हो जाती है. इसके बाद बोलर्स बाउंसी पिच का फायदा उठाते हैं. कूकाबुरा थोड़ी देर बाद अपना शेप खोने लगती है, क्योंकि उसकी सिलाई इतनी अच्छी नहीं होती है.

ड्यूक की बॉल हवा में लहराती बहुत है, और इसलिए पेस बोलर्स उससे बोलिंग करना पसंद भी करते हैं. इंग्लैंड की कंडीशन्स, जहां हम ज्यादातर ओवरकास्ट वेदर देखते हैं, वहां बोलर्स को ऐसी बॉल से काफी मदद मिलती है.  ये बॉल काफी देर हार्ड भी रहती है, और अच्छा कैरी भी होती है.

#प्लेयर्स की पसंद
 

तो ये था इन तीनों बॉल्स का अंतर. बात प्लेयर्स की करें तो पेसर्स ने लगातार कहा है कि उन्हें ड्यूक बॉल से बोलिंग करना पसंद है. इस लिस्ट में एंडरसन, जसप्रीत बुमराह, उमेश यादव समेत कई पेसर्स शामिल हैं. पूर्व पाकिस्तानी पेसर वसीम अकरम भी ड्यूक बॉल को बहुत पसंद करते थे. एंडरसन की बॉल का इतना लहराना काफी हद तक ड्यूक की ख़ासियत भी है. वहीं ऑस्ट्रेलिया के पेसर्स कूकाबुरा प्रिफर करते हैं.

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