आए थे हंसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़' जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए - रघुपति सहाय उर्फ फ़िराक़ गोरखपुरी
कैम्पियरगंज ग्राउंड रिपोर्ट: यहां अली अपने लोगों के लिए कहते हैं, 'हैं चुटकी भर और गंधवाए इतना हैं'
यहां आम के बौर की भीनी महक आने लगी है, जिसके आगे सारे नशे फीके हैं. पर लोग 40 रुपए लीटर वाली शराब छककर पीते हैं.

हम गोरखपुर के कैम्पियरगंज में चौराहे पर खड़े थे. हमने पूछा कि यहां कोई जगह है देखने लायक. लोगों ने बताया कि कैम्पियरगंज जिस अंग्रेज के नाम पर पड़ा, उनकी कोठी है, लेकिन वो खंडहर हो चुकी है और वहां कोई रहता नहीं. हमने पूछा कोई और जगह. एक लड़के ने हंसते हुए कहा, 'नर्सरी'. किस चीज की नर्सरी? 'अवैध दारू की.' 'कहां है?' 'वो जो सड़क पर आपको बिजली का आखिरी पोल दिख रहा है, उसी से पांच पोल आगे सड़क के बाईं तरफ वाली जगह में अवैध दारू का बड़ा कारोबार होता है. वहीं बनती है और बिकती है.' 'कीमत?' '40 रुपए लीटर.'
मैं हैरान था, क्योंकि जहां हम खड़े थे, वहां सड़क के दूसरी तरफ थाना नजर आ रहा था. थाने के इतनी पास अवैध दारू की नर्सरी! नर्सरी उस जगह का नाम है. वहां से नर्सरी 200-300 मीटर रही होगी. मैंने पूछा कि ये थाने वाले कुछ करते नहीं, पता चला कि इस थाने से कोई पुलिसवाला अगर वहां जाता है, वो लोग उसे बेइज्जत करके भेजते हैं, क्योंकि वो जगह महराजगंज जिले में लगती है. वो कहते हैं कि हम न तुम्हारे थाने में आते हैं, न जिले में. उनके अपने थाने की पुलिस आती है, तो वो भागें, उन्हें पैसे दें, पकड़े जाएं, वो सब मंजूर है. लेकिन मजाल है कि दूसरे थाने की पुलिस कुछ कर दे.
https://www.youtube.com/watch?v=VWIxUBCT9so&t=1sलेकिन कैम्पियरगंज से लोग शाम को टहलते हुए जाते हैं और 10 रुपए में एक पाव, बहुत मन हुआ तो 40 रुपए में एक लीटर छककर पीते हैं. कैम्पियरगंज से ही क्यों, लोग दूर-दूर से आते हैं. हम बात कर ही रहे थे कि एक भाई साहब साइकिल लेकर उधर से ही आए. उन पर 40 रुपए में एक लीटर का नशा तारी था, बोले, 'न चलेगा हाथी-साइकिल, न उड़ेगी धूल, अबकी बार कमल का फूल'.
ये पता चला कि हम जाएंगे, तो अलग सी गाड़ी देखकर भगदड़ मच जाएगी और लोग सारा सामान-दारू छोड़कर भाग जाएंगे. अगर उन्हें 15 मिनट पहले खबर मिल गई कि कोई आ रहा है, तो वहां अवैध दारू का कोई निशान नहीं मिलेगा. इलाके में से कोई भी हमारे साथ वहां चलने को तैयार नहीं हुआ. उन लोगों ने कहा कि भले ही आप फोटो न लें, कुछ न करें, लेकिन अगर किसी वजह से कल पुलिस आ गई, तो वो हमें कहेंगे कि हमारी वजह से ऐसा हुआ है.
गोरखपुर की एक सीट कैम्पियरगंज. नाम किसी अंग्रेज के नाम पर पड़ा. यहां अगल-बगल ऐसी दो और जगहें हैं, जिनका नाम वहां रहने वाले किसी अंग्रेज के नाम पर पड़ा- पीपीगंज और बृजमनगंज. कैम्पियरगंज नाम जिनके नाम पर पड़ा, उनकी कोठी भी है. अब उस अंग्रेज के परिवार की कोई बुजुर्ग महिला कभी-कभी आती हैं. उन्होंने एक स्कूल खोला है, जिसमें लोगों के मुताबिक अच्छी पढ़ाई होती है. लोग बताते हैं कि जहां सड़क पर एक फ्लाईओवर बनता दिखे, समझ लीजिए कि कैम्पियरगंज पहुंच गए. ये कई सालों से बन रहा है.
https://www.youtube.com/watch?v=qk0alksFn7oअगर आप वाकिफ नहीं हैं, तो कैम्पियरगंज नाम से ही नहीं, अपनी विधानसभा क्षेत्र के आकार से भी आपको उलझन में डाल सकता है. अगर गोरखपुर से कैम्पियरगंज जाएं और वहां से दाएं मुड़ जाएं, तो उसी सड़क पर पहले कैम्पियरगंज विधानसभा सीट लगेगी, फिर महराजगंज जिले की फरेंदा विधानसभा सीट लगेगी और फिर कैम्पियरगंज.
कैम्पियरगंज पर बस एक बार चुनाव हुआ है. इस सीट से उत्तर प्रदेश में 2012 में एनसीपी का कैंडीडेट जीता था. उत्तर प्रदेश में एनसीपी! फिर से जो वाकिफ नहीं, वो हैरान हो सकते हैं. लेकिन जब आप इलाके के लोगों से बात करें, तो वो ये जानते हैं कि वो कैंडीडेट निर्दलीय लड़ा था. फतेह बहादुर सिंह. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके पूर्वांचल के बड़े नेता वीर बहादुर सिंह के बेटे. 2007 में बसपा से जीते, मंत्री भी रहे. 2012 में बसपा ने टिकट नहीं दिया, तो एनसीपी के टिकट पर लड़े और प्रदेश में एनसीपी के इकलौते विधायक बने. हालांकि, उनकी जीत में पार्टी का कोई रोल नहीं था. 2017 का चुनाव वो भाजपा से लड़ रहे हैं.
उनका जोर बहुत है. जोर बस इस बात से समझ लीजिए कि उन्होंने पिछला चुनाव एनसीपी के टिकट पर जीत लिया, जिसे लोग निर्दलीय समझते हैं. लेकिन, तब से पांच साल बीत चुके हैं. कई लोगों से मैंने सुना कि उनकी जीत पक्की है, लोग उनकी तारीफ करते हैं. लेकिन कुछ जगह पर लोग सपा की चिंता यादव को वोट देने की बात कहते हैं और फतेह बहादुर की तारीफ नहीं करते. बसपा से अर्चना निषाद हैं, जिनका नाम जिक्र लोग कम ही करते मिलते हैं.

एनसीपी से विधायक बने फतेह बहादुर
हमारे होटल में काम करने वाले मुरली मनोहर कन्नौजिया का गांव कैम्पियरगंज में पड़ता है. वो कहते हैं कि उनके गांव में ज्यादातर लोग और आस-पास के लोग फतेह बहादुर से नाराज हैं और चिंता यादव को वोट देने को कह रहे हैं. मुरली मनोहर के लंबे और अच्छे बाल हैं. ऐसा लगता है जैसे विग लगाई हो. 'शादी हो गई', पूछने पर वो एक सेकंड में किरन, प्रिया, प्रीति, सचिन कहते हैं. ये उनके बच्चों के नाम हैं. कहते हैं कि लड़के की चाहत में चार बच्चे हो गए. लड़के की इतनी चाहत क्यों? उन्होंने कहा कि लोग कहने लगते हैं कि इसके तो लड़का ही नहीं है.
फतेह बहादुर की तारीफ करने वाले कहते हैं कि उन्होंने काम कराया है और मिलते-जुलते हैं. तारीफ न करने वाले कहते हैं कि फतेह बहादुर ने काम नहीं कराया है और जीतने के बाद से उनकी सूरत नहीं देखी. बहरहाल फतेह बहादुर का अपना (पिता वीर बहादुर की बदौलत) प्रभाव है, जिसमें बीजेपी का जुड़ना उनकी स्थिति को मजबूत कर देता है. मिलने-जुलने का तो नहीं पता, लेकिन फतेह बहादुर इलाके के लिए जितना बड़ा नाम हैं, वैसा काम दिखता नहीं है.
सड़क किनारे एक बोर्ड लगा है. वनग्राम भारी वैसी वनटागिया. बोर्ड के ऊपर बड़े-बड़े शहतूत लटक रहे हैं. वहां बाहर केवल दो लड़कियां दिखती हैं, काम कर रही हैं, झाड़ू लगा रही हैं, नल पर बर्तन धो रही हैं. कुछ पूछने पर जवाब नहीं देतीं, केवल शर्माती हैं, मुस्काती हैं. मैंने पूछा कि कोई और है घर में, तो सिर नहीं में हिला. उनकी नजर मेरे पीछे सड़क पर गई और चिंहुककर उन्होंने उंगली से इशारा किया. एक आदमी साइकिल से आ रहा था. नाम धर्मदास.
धर्मदास ने बताया कि ये जगह भी फरेंदा में लगती है. वो कहते हैं कि अगर कैम्पियरगंज में लगती, तो फतेह बहादुर को वोट देते, फरेंदा में हैं, तो अभी कुछ तय नहीं है. शायद बीएसपी को वोट दें. वो रेलवे में सफाई का काम करते हैं. ठेके पर. नोटबंदी में ठेकेदार ने 3 महीने तक सैलरी नहीं दी. आप सोच सकते हैं कि अगर आपकी एक महीने की सैलरी न आए, तो आपको कैसा लगेगा. 2 दिन पहले एक महीने का वेतन आया है, बाकी भी आ जाएगा, उन्हें भरोसा है, ये भरोसा बहुत सी चीजें चलाता रहता है. वो कहते हैं कि स्टेट बैंक में तो अब पैसा रहने लगा है, लेकिन उनका खाता पूर्वांचल ग्रामीण बैंक में है, जहां अब भी पैसा नहीं रहता.
सड़क किनारे कई बोरे भरे रखे थे. वहां पहुंचा तो उनमें आलू भरा जाता दिखा, जो पास के किसानों से खरीदा गया है और मंडी में बेचा जाएगा. मंडी में करीब 600 रुपए क्विंटल बेचा जाएगा. इस 600 रुपए में बिचौलियों का अपना मुनाफा, खेत से मंडी तक पहुंचाने की लागत शामिल है. आप सोच सकते हैं कि किसान को कितना मिला होगा. वहां आद्या निषाद और मोहम्मद अली मिले. दोनों कहते हैं कि नोटबंदी से दिक्कत हुई. कहते हैं कि नोटबंदी न होती, तो आलू 1000 रुपए में रहता.
आद्या भाजपा के फतेह बहादुर की तारीफ करते हैं और उन्हें वोट देने की बात करते हैं. मोहम्मद अली फतेह बहादुर की तारीफ करते हैं, लेकिन वोट चिंता यादव को देने की बात करते हैं. मोहम्मद अली जब किशोर थे, तब उनका हाथ टूट गया था, डॉक्टर ने प्लास्टर गलत बांध दिया, तो वो हाथ लुंज हो गया, काम नहीं करता. फेसबुक न इस्तेमाल करने वाले मोहम्मद अली किसी बात पर सेना की तारीफ करते हुए कहते हैं कि हम लोग यहां चैन से काम कर पा रहे हैं, चैन से सो पा रहे हैं, तो उन्हीं सैनिकों की बदौलत. बस ईद-बकरीद को नमाज पढ़ने वाले मोहम्मद अली कहते हैं कि उनकी तरफ (मुस्लिमों) के भी कुछ लोग गड़बड़ करते हैं और इसके बाद वो उनको कोसते हैं. वो चुटकी दिखाने के बाद हाथ बड़ा करते हुए कहते हैं, 'हैं चुटकी भर और गंधवाए इतना हैं'.
जहां मेरी मुलाकात आद्या और मोहम्मद अली से हुई, वहीं पीछे आम का बहुत बड़ा बाग है, जिसमें से बौर की भीनी महक आ रही है. ये महक मदहोश करने वाली है. इस महक के सामने कोई गंध कैसे टिकेगी! इस महक के आगे सारे नशे बेकार हैं.
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