प्रिय पाठको, आज एक कविता रोज़ में शमशेर. शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी 1911 – 12 मई 1993 ) उन कवियों में से हैं जिनके विषय में बहुत बोलते हुए डर लगता है. उन्हें पढ़ते हुए छोटे-छोटे स्वार्थों में डूबी हुई यह दुनिया बहुत कमीनी लगती है. उनके बारे में सुनो तो लगता ही नहीं कि इस तरह के कवि भी हमारी भाषा में हुए हैं जिनका जीवन भी उतना ही निर्मल, जितनी उनकी कविता. यह भी सुख है कि मुक्तिबोध, नागार्जुन और शमशेर जैसे कवियों को हिंदी में हुए कोई युग नहीं बीते हैं, लेकिन इनका न होना एक युग की अंत की तरह ही खबरों में पसरा रहा. लेकिन शमशेर की कविताएं शमशेर के होने को सबसे उज्ज्वल अर्थों में दीप्त रखती हैं. कैसे एक कवि को जीवित और प्रकाशित होना चाहिए यह विवेक शमशेर देते हैं. बहुत विनम्रता से वह 45 की उम्र में अपनी कविताओं की पहली किताब ‘कुछ कविताएं’ कह कर समाज को सौंपते हैं. कहते हैं कि भर जीवन घोर अभावों में जीने वाले शमशेर का यह संग्रह न आता अगर उनके मित्र-शुभचिंतक जगत शंखधर न होते. किसी भी प्रकार का संग्रह करने में जैसे शमशेर की कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह आखिर यों ही तो नहीं कह गए : ‘‘खुश हूं कि अकेला हूं, कोई पास नहीं है— बजुज एक सुराही के, बजुज एक चटाई के, बजुज एक जरा-से आकाश के, जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर’’ 50 की उम्र में शमशेर की ‘कुछ और कविताएं’ आती हैं. कविताओं की इस दूसरी किताब के बाद 14 बरस बाद 64 की उम्र में शमशेर की कविताओं की तीसरी किताब आती है – ‘चुका भी नहीं हूं मैं’. कई भाषाओँ के कई कवियों को हमने 35-40 की उम्र में चुकते देखा है, लेकिन 70 की उम्र में शमशेर कह रहे थे : ‘‘बात बोलेगी / हम नहीं.’’ लगभग 80 की उम्र में शमशेर कह रहे थे : ‘काल, तुझसे होड़ है मेरी’.
अब पढ़िए शमशेर बहादुर सिंह की यह अनूठी प्रेम-कविता. इसका शीर्षक है ‘तुमने मुझे’ :