
1.
धूप की साज़िश के खिलाफ़
इस सनातन बेवफ़ा धूप से घबराकर क्यों हो जाती हो तुम एक सुरक्षित खिड़की की सुशोभित बोन्साई! और बेबसी से, मांगती हो छाया. इस अनैतिक संस्कृति में नैतिक होने की हठ की खातिर क्यों दे रही हो एक आकाशमयी मनस्वी विस्तार को पूर्ण विराम तुम क्यों खिल नहीं जाती आवेश से गुलमोहर की तरह धूप की साज़िश के ख़िलाफ़.2.
दोस्त
एक ही स्वभाव के हम दो दोस्त एक दूसरे के अजीज़ एक ही ध्येय एक ही स्वप्न लेकर जीने वाले कालांतर में उसने आत्महत्या की और मैंने कविता लिखी.3.
मेरे हाथो में न होती लेखनी
मेरे हाथो में न होती लेखनी तो तो होती छीनी सितार, बांसुरी या फ़िर कूची मैं किसी भी ज़रिये उलीच रहा होता मन के भीतर का लबालब कोलाहल4.
‘क’ और ‘ख’
क. इश्तिहार में देने के लिए खो गये व्यक्ति की घर पर नहीं होती एक भी ढंग की तस्वीर. ख. जिनकी घर पर एक भी ढंग की तस्वीर नहीं होती ऐसे ही लोग अक्सर खो जाते हैं.5.
जनगणना के लिए
जनगणना के लिए ‘स्त्री / पुरुष’ ऐसे वर्गीकरण युक्त कागज़ लेकर हम घूमते रहे गाँव भर और गाँव के एक असामान्य से मोड़ पर मिला चार हिजड़ो का एक घरअगर आप भी कविता/कहानी लिखते हैं, और चाहते हैं हम उसे छापें. तो अपनी कविता/कहानी टाइप करिए, और फटाफट भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर. हमें पसंद आई, तो छापेंगे. ‘एक कविता रोज’ की दूसरी कविताएं पढ़ने के लिए नीचे बने ‘एक कविता रोज’ टैग पर क्लिक करिए.