आज पढ़िए फैज़ अहमद फैज़ की ये नज़्म.
फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरव होगा, कहीं और चला जाएगा ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खड़ाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़
सो गई रास्ता तक-तक के हर एक रहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़ अपने बेख़्वाब किवाड़ों को मुकफ़्फ़ल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा... *** मुश्किल शब्दों के मतलब: दिल-ए-ज़ार: बेचैन दिल
राहरव: राहगीर
एवानों: महलों
ख्वाबीदा चिराग: सोए हुए चिराग
रहगुज़र: रास्ते
सुराग: पांव के निशान
गुल करो: बुझा दो
मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़: शराब और शराब की बोतल
मुकफ़्फ़ल: ताला लगाना
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एक कविता रोज: अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा
आज पढ़िए फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार. बरसी है उनकी.

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