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एक कविता रोज: कभी चींटी को चलते हुए देखा है?

सुमित्रानंदन पंत के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी कविता 'चींटी'.

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फोटो - thelallantop

चींटी 

सुमित्रानंदन पंत  - चींटी को देखा? वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे सी जो हिल-डुल, चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल, यह है पिपीलिका पांति! देखो ना, किस भांति काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत. गाय चराती, धूप खिलाती, बच्चों की निगरानी करती लड़ती, अरि से तनिक न डरती, दल के दल सेना संवारती, घर-आंगन, जनपथ बुहारती. चींटी है प्राणी सामाजिक, वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक. देखा चींटी को? उसके जी को? भूरे बालों की सी कतरन, छुपा नहीं उसका छोटापन, वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर विचरण करती, श्रम में तन्मय वह जीवन की तिनगी अक्षय। वह भी क्या देही है, तिल-सी? प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी दिनभर में वह मीलों चलती, अथक कार्य से कभी न टलती.